अंक-17-बहस-17-आज के गांधीवादी बनाम मार्क्सवादी

17-आज के गांधीवादी बनाम मार्क्सवादी

आज दुनिया में गांधी और गांधियन मेथड की आए दिन चर्चा होती है। और होनी भी चाहिए।
लोग कहते हैं यह सभी बातें बकवास हैं -आज गांधीवाद की कोई जरूरत नहीं।
लोग कहते हैं कि सोवियत रसिया का विघटन हो गया, अब मार्क्सवाद का क्या होगा ?
उक्त दोनों ही बातें मूर्खता का प्रमाण हैं।
एक सिद्धांत है तो दूसरा मूल्य!
मार्क्स एक सामाजिक सिद्धांत है, गांधी जी मानव मूल्य! क्या दोनों के बगैर एक अनुशासित, आत्मनिर्भर और प्रबुद्ध आवाम की उम्मीद कर सकते हैं ? क्या सिर्फ टेक्नो बेस्ड होकर मानव महामानव बन सकता है ? वह रोबोट पैदा कर सकता है -इंसान नहीं। यदि सचमुच इस विश्व को रोबोटों का घर नहीं, इंसानों की बस्ती बसाए रखना है तो मानवीय सिद्धांत और मानव मूल्य का अस्तित्व साथ-साथ हो। हमें दोनों चाहिए। कोई एक नहीं।
हम सिद्धांतों की दुहाई देते हैं। बड़े नेताओं के आदर्श के पिछलग्गू घोषित करते हैं। जैसे कोई स्कूल-कॉलेज का प्रोफेसर मार्क्स की मोटी किताबों का अध्ययन करके -कोई रचनाकार मार्क्स के शब्दों का जाल बुनकर मार्क्सवादी जुलाहा बन जाता है। क्या सचमुच में ऐसा हो सकता है कि कोई डिक्शनरी के दो-चार परिभाषित शब्द सीख कर उसका ज्ञाता हो जाए ?
इस प्रश्न को यहां क्यों उठाया गया है ?
इसलिए उठाया गया है कि हम अपनी दुर्दशा, अन्याय के लिए सीधे-सीधे सिद्धांतकारों को ही दोषी ठहराते हैं। यही कि वह तो गांधीवादी था उसने क्या किया। वह राज्य तो मार्क्सवादियों का है वहां क्या उखाड़ लिया ?
इस प्रश्न में ही उत्तर है। बस, गौर फरमाने की जरूरत है।
’आज के गांधीवादी बनाम मार्क्सवादी’ शीर्षक पर अधिक टिप्पणी की आवश्यकता नहीं। सिर्फ सवाल उठाना ही प्रबुद्ध पाठकों के लिए पर्याप्त होगा।
और लगे हाथों एक सवाल और…….., भारत के प्रथम प्रधानमंत्री श्री जवाहरलाल नेहरू वल्द श्री मोतीलाल नेहरू, की पुत्री प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी……………, क्या गांधीवादी थे ? क्या वे मार्क्सवादी समाजवादी थे ? या दोनों ?
यह प्रश्न इसलिए उठाया जा रहा है कि नैतिकता और सिद्धांत की अहमियत आने वाली पीढ़ी और वर्तमान समझ सके। किसी ’वाद’ को कंठस्थ करना ही ’वादी’ हो जाना नहीं, भीतर पचाना भी अहम है और जागरूक पाठक इस प्रश्न के बहाने समझ सकते हैं कि उन मूल्यों का और उन सिद्धांतों को उनकी महान विरासत ने क्या किया ?
और उदाहरण देना उचित नहीं। पर, कुछ उदाहरणों की ओर बरबस ध्यान चला जाता है जो कि दिलचस्प भी है और बहुत से सवालों का जवाब ही मिल जाता है।
जे.पी. (जय प्रकाश) आंदोलन के समय एक लाठीचार्ज में जयप्रकाश जी के चेले लालू प्रसाद यादव, जब युवा थे, अपने नेता जे.पी. को बचाने वास्ते स्वयं पुलिस की लाठी खाई थी। उस घटना ने उन्हें काफी लोकप्रिय बनाया था और जे.पी. के बहुत करीब हुए। ये वही लालू प्रसाद यादव जी हैं जो समाजवादी जे.पीं के भक्त ठहरे। जब बिहार के मुख्यमंत्री बनकर और बिहार के किंग मेकर बनकर बिहार में कैसी समाजवादी आदर्श का स्थापना की, कहने की आवश्यकता नहीं। उधर मुलायम सिंह यादव उसी तर्ज के समाजवादी ठहरे, जिनके कार्यकाल में सैकड़ों गन्ना मिले बंद करनी पड़ी और पीड़ितों को ढंग का मुआवजा भी आज तक नहीं मिला।
प्रश्न घूमकर ’वाद’ पर नहीं ’वादियों’ पर टिक जाता है। और यह ’वादियां’ कश्मीर की कली सरीखी दिलचस्प हैं। गांधी, गांधीवाद और गांधीवादी -इनमें गांधी वादियों को ढूंढना, पकड़ना असली चुनौती है। ’वादी’ ’वाद’ का सहारा लेकर कौन सा ’विवाद’ पैदा कर रहा है ? -प्रश्न यह है।
यही प्रश्न मार्क्स नामक ’वादियों’ के साथ भी लागू होता है।
और एक प्रसंग जो बहुत ताजा है। इस लेख के लिखे जाने तक छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री रमन सिंह इस्तीफा दे चुके हैं, कांग्रेस को दो तिहाई बहुमत से भी अधिक सीटें प्राप्त हुई हैं। दिल्ली में कांग्रेस अध्यक्ष की अध्यक्षता में छत्तीसगढ़ का नया सी.एमं चुनना है। सिंहदेव, बघेल, महंत, साहू या कोई और…….!
जनमत ?
यह जनमत क्या है ?
सुना है जनमत जानने के लिए ’एप्स’ का सहारा लिया जा रहा है। सुना है लोकप्रिय नेता चुनने के लिए किसी रिपोर्ट का भी सहारा लिया गया है। पर कंफ्यूजियन बरकरार है। मतलब संशय।
पद्धति तो लोकतांत्रिक है। जरा भी संदेह नहीं!
पर, क्या यह सही जनमत होगा ?
थोड़ी चर्चा करें-
जनमत है क्या ? क्या सौ में निन्यानबै लोगों का पक्ष जनमत माना जाए!
शायद हां! प्रजातंत्र यही है।
नहीं…., यह निन्यानबै गलत भी हो सकते हैं। क्योंकि भीड़ बुद्धिमान हो इसकी गारंटी नहीं के बराबर है।
तो क्या वह एक मत, सौवां, जो निन्यानबै का विरोधी मत है -वह सही है ? और क्या यह सौ में एक मत निन्यानबै पर भारी ?- यह तो तानाशाही है।
हां। यह तानाशाही हो सकता है अगर इरादा ’इंटेंशन’/ भावना पवित्र हो।
इस तर्ज पर गांधी जी तानाशाह भी थे -अपनी बात पर अडिग। मगर इरादा व लक्ष्य पवित्र। वे दूरदर्शी थे जो उनके सभी तात्कालिक उन्हें नहीं देख-समझ पाए। इसलिए जब नेहरू, सुभाष और सभी माने हुए नेताओं का विचार कुछ होता था तो गांधी -का कुछ!
असहयोग आंदोलन, प्रथम एवं द्वितीय विश्व युद्ध के समय की रणनीति, सभी में गांधी जी घोर विरोध के बावजूद अपने अभिमत पर अडिग रहते थे। यहां तक कि उनके निर्णय को देश के साथ धोखा करार दिया जाता था।
पर, गांधी जी उस हुकूमत के चरित्र को अच्छी तरह समझते थे जो निहत्थों पर गोलियां चलवाकर जलियांवाला बाग हत्याकांड करवा सकती थी, वहीं आवाम के भूख, दर्द और दर्द सहने की क्षमता को भी वे अच्छी तरह से समझते थे।
शायद इतने विरोधी या कहे सर्व-आयामों से पहलू को देखने-समझने की कूवत उनके किसी समकालीनों में नहीं थीं। निश्चित रूप से तब गांधीजी को नहीं समझा जा सका। या गलत समझा गया।
पुनः उस प्रश्न पर लौटते हैं -तो जनमत कौन ? वो निर्णय जो लोकप्रिय न हो मगर सबके हित में हो और चाहे वह एक व्यक्ति द्वारा व्यक्त हो। या भीड़ का निर्णय जो लोकप्रिय तो हो मगर सही नहीं। सबके हित में नहीं…..!
भीड़ का जनमत मगर गलत…….?
एक का जनमत मगर सही……?
आज एक गांधी जो शायद देश का पहला प्रमाणिक (?) गांधीवादी है -कहां है गांधी जी जैसी कैफियत!
वो राजनीति की समझ ? वो संगठन की शक्ति ? वो आवाम की समझ ?
वो विरोधियों से सहानुभूतिपूर्वक संघर्ष भाव ?
वो मानव मूल्य जो गांधी जी ने दिए ?
ऐसे में दो पल का निर्णय ’एप्स’ के भरोसे चले जाए तो आश्चर्य क्या……! (ठीक वैसे ही आज मार्क्सवादी कहां हैं ? बंदूक लेकर जंगल में क्रांति फूंक रहे हैं ?)
वही कांग्रेस जो गांधी जी ने नेतृत्व किया।
यही कांग्रेस जो गांधी जी ही नेतृत्व कर रहे हैं! फर्क क्या है….!!
शेक्सपियर याद आते हैं -नाम में क्या रखा है….।
लब्बो-लुआब (मुआफ कीजिएगा गलत लफ्ज के लिए) ये कि जनमत को हमें पुनर्भाषित करना होगा। हमें विरासत से सीखना चाहिए। हमारे पूर्वजों ने अपूर्व योगदान दिया है। उसका सम्मान, उसका आभार हम उनसे ठीक-ठीक सबक लेकर ही अदा कर पाएंगे।
हमारे प्रबुद्ध पाठक विचार करें।
अटल बिहारी वाजपेई जैसी शख्सियत को इस जनमत ने प्याज फेंक कर मार दिया। ऐसा प्रतीत होता है कि समुद्र तैर जाने वाला चरित्र प्याज के छोटे से गड्ढे में जा गिरा।
यह भी जनमत था!
क्या हमारा अवाम जो प्रबुद्ध प्रजातंत्र का वाहक है -अपने जनमत पर विचार करना चाहेगा या महान नेताओं, गुरुओं को गाली बकता रहेगा…..। उसे आसमान से टूटते तारे की तरह ’अवतार’ चाहिए -उसे क्या, उसे तो जनमत का अधिकार है। यह अधिकार कैसे और कहां से आया, किसकी बदौलत -इसकी खबर भी उसे है ? इनको तीन अधिकार हैं -खाना-पचाना और हगना……..! (और इंटरवेल में पादना)
और यही हम हैं असली जनमत के वाहक!!!