अंक-17-बहस-15-पी.सी. जोशी एवं जय प्रकाश नारायण

15-पी.सी. जोशी एवं जय प्रकाश नारायण

सन 1935 में पी.सी. जोशी ने मार्क्सवादियों को पुनर्संगठित किया समाजवादियों तथा अन्य वाम विचारकों को एकत्र कर यूनाइटेड फ्रंट की स्थापना की। एक बारगी पार्टी की हैसियत से मार्क्सवादी दल ने राष्ट्र के आंदोलन में कांग्रेस का समर्थन किया। सभी वामपंथियों का आह्वान कर कांग्रेस की सदस्यता स्वीकार करने की अपील की गई। 1938 तक इसने स्वीकार किया कि देश की संस्था कांग्रेस ही है जो साम्राज्यवादी ताकतों से निजात दिला सकती है। 1939 में पी.सी. जोशी ने अपने साप्ताहिक -‘नेशनल फ्रंट’ में यह अद्भुत बात कही कि राष्ट्र का संघर्ष ही वास्तविक देश संघर्ष है….। (अर्थात सिद्धांत के अनुसार वर्ग संघर्ष से बढ़कर)
और यह व्यवहारिक बात थी, समय-सापेक्ष। जब शरीर में दो और चार या आठ कई बीमारियों के लक्षण हो तो डॉक्टर सबसे पहले घातक और तीव्र पीड़ा पहुंचाने वाली बीमारी का इलाज करता है ताकि मरीज को राहत मिले। मार्क्स के सिद्धांतों के तहत वर्ग और जाति और स्त्री एजेंडे इत्यादि से बढ़कर ब्रिटिश हुकूमत, तानाशाही और दमन की नीति तब का प्रबल रोग था।
इस प्रकार जोशी के नेतृत्व में सारे वामपंथी एक बार फिर कांग्रेस को भीतर से समर्थन देते रहे। 1936 से 1942 के अंतराल में उनके प्रयास से केरल, आंध्र, बंगाल और पंजाब में शक्तिशाली किसान आंदोलन हुए।
एक बार फिर वामपंथी विचार लोगों के बीच लोकप्रिय हुआ।
1921 के असहयोग आंदोलन में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेने वाले उत्साही युवा नेताओं को हुकूमत ने लंबी सजा दी। जेल में राष्ट्रवादी विश्व की गतिविधियों से अवगत होते रहे, मार्क्स को विशेष रूप से। कई युवा सीपीआई के कार्य व्यवहार से असंतुष्ट थे -वे एक पृथक सोच रखते थे। विचार मार्क्स के तहत ही था, पर देश-काल-सापेक्ष राजनीति तैयार करने और समाजवादी सोच की दिशा मजबूत करने के उद्देश्य से जयप्रकाश नारायण, आचार्य नरेंद्र देव और मीनू मसानी के नेतृत्व में 1934 में कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी की स्थापना की गई।
कांग्रेस सोशलिस्टां के बीच इस बात पर सहमति थी कि समाजवाद लक्ष्य है, मगर राष्ट्रवाद के रास्ते। अर्थात पहले राष्ट्र की मुक्ति। सामाजिक आदर्श प्राप्त करने हेतु राष्ट्रवाद एक प्रक्रिया है। सभी नेता इस बात से सहमत थे कि कांग्रेस के मंच से ही उन्हें अपने लक्ष्य हासिल करने हैं। कांग्रेस को कमजोर करके नहीं, मजबूत करके। इस बाबत् किसानों और कामगारों को एकत्र करके कांग्रेस की दिशा समाजवादी आदर्श की ओर ले जाना। कांग्रेस को मजबूत करना और कांग्रेस की दिशा वाम की ओर ले जाना। जयप्रकाश नारायण ने स्पष्ट कहा था कि इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए हम प्रयास करेंगे और असफल होने पर भी करते रहेंगे, मगर कांग्रेस से बाहर हम जाने की नहीं सोच सकते।
सोशलिस्ट की हैसियत से वाममार्गियों के समक्ष चुनौती थी कि कांग्रेस की लीडरशिप उनके चुने हुए नेता हों हालांकि 1936 से 1940 तक नेहरू-सुभाष के रूप में कांग्रेस के भीतर वाम विचार अपनी जीत दर्ज करा चुका था। उसकी लोकप्रियता नेताओं और आवाम के बीच असंदिग्ध थी, फिर भी वे सीपीआई जैसा कि पूर्व में स्वयं को अकेला कर अपने आप को निरीह कर लिया था -इसे देखा जा चुका था। जयप्रकाश नारायण और उनके साथियों ने निश्चित ही ऐसी गलती नहीं दोहराई। हालांकि नेहरू के साथ-साथ अन्य समाजवादी अच्छी तरह जानते-समझते थे कि अब भी पूरे देश को आह्वान करने की क्षमता एकमात्र गांधी में थी। उनके ऐलान पर चाहे पूंजीपति हो या कामगार या किसान, सभी दौड़े चले आते थे। यहां तक कि कई वामपंथी अपनी पृथक सोच रखने के कारण भी गांधी की उपेक्षा करने की स्थिति में नहीं थे। उन्हें सभी का आदर प्राप्त था। वे करिश्मायी शख्सियत के मालिक थे। गांधी का विकल्प स्वयं गांधी थे। आंदोलन सफल होने पर भी अथवा असफल होने पर भी।
वाम विचारकों के तमाम प्रयास, बहस, विचार-विमर्श और क्रियात्मक मंथन उपरांत भी नतीजा वही पहुंचता जहां से गांधी नाम का सवाल उठता। अर्थात वाम का यह विचार कि कांग्रेस को मार्क्स के आदर्शों के तहत मोड़ कर लीडरशिप भी मिलिटेंट नेता जैसा कि सुभाष का व्यक्तित्व था (यह लेखक की निजी राय है) उन्हें सौंपी जाए।
और यह संभव नहीं हो सका क्योंकि सीधे अर्थां में आवाम गांधी के साथ थी। गांधी-सुभाष तनाव अर्थात इसे दक्षिण-वाम विचारों का संघर्ष इस कदर बढ़ा की 1939 की अध्यक्षता सुभाष बोस 1377 मत के विरुद्ध 1580 मत प्राप्त कर की -गांधीजी के प्रतिनिधि पट्टाभी सीतारमैया की हार गांधी ने अपनी हार होना स्वीकारा। उन्होंने खुलकर इसका विरोध किया -यहां तक की सुभाष बोस को कांग्रेस छोड़ फारवर्ड ब्लाक बनाने पर विवश होना पड़ा।
कहने की आवश्यकता नहीं कि विचार के स्तर पर मार्क्सवादी एजेंडे के समर्थक कांग्रेस में किस कदर लोकप्रिय हो रहे थे और गांधियन विचार, मेथड लगातार सवालिया निशान बन रहे थे।
गांधी जी के इस कार्यवाही पर पृष्ठभूमि में गांधियन मेथड के विरोधी किस कदर उनकी फजीहत किए होंगे -समझा जा सकता है। और हम सब बहुत से मामलों में देखते हैं कि जैसे-जैसे स्वतंत्रता संग्राम अंतिम डगर की ओर बढ़ रहा था गांधी जी के अडियल रवैये के कारण उन्हें काफी दुर्गति भी झेलनी पड़ी होगी। इसे हम प्रमाणिक नहीं मान सकते और प्रमाण की आवश्यकता भी नहीं -पर कहते हैं बिटवीन द लाइंस…….. अर्थात कुछ बातें समझने की होती है। कुछ बातें अनुत्तरित रहती है। भरी सभा में द्रोपदी को नंगा किया जा रहा था -कितना और कैसा….., ऐसे सवाल पूछने की इजाजत कलम और रोशनाई नहीं देते!
फिलहाल, गांधीजी तब भी आवाम के प्रतिनिधि थे -यह निर्विवाद था।
नेता रोज नहीं पैदा होते और कुछ स्थितियां-परिस्थितियां होती हैं जिनसे कोई-कोई लीडर उभरता है।
द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान जैसा कि गांधीजी प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान भी अपना मत प्रकट कर चुके थे -हुकूमत को तंग न करना, फिर डोमिनियन स्टेट्स की स्थापना, गांधीजी का अहिंसा पर जोर इत्यादि ऐसे मामले थे जिनकी वामपंथियों द्वारा लगातार आलोचना की जाती रही। सच तो यह है कि वामपंथी गांधियन मोर्चे को बिल्कुल नहीं समझ पाए। उनका चश्मा मार्क्स थे और चीन की मिलिट्री सेना, जिनकी ताकत से विदेशियों को भगाना था। पूंजीपतियों से धन छीनकर व्यक्तिगत संपत्ति की अवधारणा ही खत्म करनी थी।
यह सारे अवधारणात्मक पहलू थे जिनसे अवाम का रिश्ता दूर की कौड़ी था। आवाम तो भूख और रोजी की समस्या से निजात मिले -यही सवाल उसके समक्ष प्रबल था। आवाम जानती थी -हुकूमत ही इसके लिए जिम्मेदार है और गांधीजी हुकूमत को विवश करने वाले उनके एकमात्र नेता! आवाम वर्ग-संघर्ष और निजी संपत्ति -स्टेट कंट्रोल जैसी चीजों से दूर थी। बहुत दूर…..!
वाम नेता देश की नब्ज टटोलने में असमर्थ थे -हां उन्होंने कांग्रेस और देश के भीतर एक सवाल जरूर खड़ा किया और सच में कि समाज कोढ़ग्रस्त था। बीमार! प्रेमचंद ने उस समाज का अद्भुत चित्रण कफन, ठाकुर का कुआं, सद्गति इत्यादि में कर चुके थे। किसान, किसानी छोड़कर मजदूरी करके खुश हो रहे थे। (पूस की रात) और हमारी सामंती वीरभद्र ’शतरंज के खिलाड़ी’ में शानदार शहादत के साथ चित्रित थे। इतिहास आईने की तरह हमारा चेहरा दिखा रहा था -मार्क्सवादियो ने सिद्धांत पढ़ा -आवाम का चेहरा नहीं! उसे महंगे और सुंदर सूट-बूट पहना देने से हमारे लंगोटी किसान समृद्ध नहीं हो जाते! विचार का चोला धारण कर लेने मात्र से फूल, फल नहीं दे देते। प्रतीक्षा और समय की नब्ज को समझने की जरूरत थी -जो कि वाम नेता ऐसा नहीं कर पाए।
वहीं गांधीजी के सारे प्रयास आवाम की मजबूरी, दुर्दशा, मनोदशा देख समझ कर था। वह आरोपित विचार नहीं था। वह भीतर से उत्पन्न था। एक प्रतिज्ञा थी। ’सत्याग्रह’ -सत्य पर अड़े रहना।
और उनका सत्य क्या था ?
वामपंथी अपने विचार और एजेंडे में भी एकमत नहीं थे। साम्यवादी पार्टी समाजवादियों से भय खाती थी, वहीं वामपंथ में अनगिनत गुट और दल थे। यहां तक कि सुभाष और नेहरू दोनों ही मार्क्सवाद से प्रेरित थे मगर आपस में एकमत नहीं थे। मार्क्सवादी तो आजादी के बाद से ही पूंजीपतियों अर्थात अमेरिकन एजेंट कांग्रेसियों को समझने लगे थे -जबकि आगे हम देखेंगे नेहरू के प्रधानमंत्रित्व में किस तरह समाजवादी एजेंडों के तहत विकास का सपना और नए भारत का निर्माण किया गया।
तथापि, वाम विचार ने आज तक हमें जो दृष्टि थी उस पर अमल और भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन अथवा कांग्रेस को वैचारिक तौर पर जो झकझोरने का कार्य किया -वह उल्लेखनीय है। हम पूर्व में यह कह चुके हैं कि मार्क्सवाद आज भी आंकड़ों में पीछे है -विचार के स्तर पर तो वह विश्व के लोगों में फैला है -उसका कोई पैमाना मार्क्सवाद के कद को माप नहीं पाएगा। ऐसा नहीं है कि भारतीय समाज ही जाति-पाति, छुआछूत, गरीबी, अंधविश्वास, तर्कहीनता, मूढ़ता के कोढ़ में फंसा था, 15वीं सदी तक समस्त यूरोप अंधकार युग में था। धर्म के नाम पर ही सैकड़ों वर्षो तक वे आपस में लड़ते रहे। जिन्हें हम विकसित और शिक्षित समझते हैं वे आज भी (लगभग) गोरे-काले के भेद से उबर नहीं पाए हैं। अभी हाल ही में अमेरिका जैसे विकसित राष्ट्र में काले लोगों ने एक सुर में विरोध किया था जिसमें न्यायाधिपति सिर्फ गोरे थे। प्रसंग याद नहीं -भाव शेष रहा है। और भाव ही मानव का वास्तविक इतिहास होता है। और भाव कहता है कि भेदभाव आज भी है। गोरा-काला, नाटा-मोटा….। पश्चिम-पूरब…! गोरी-करियढ़ी…..!
काला…. छत्तीसगढ़ में इन्हें बिलवा कहा जाता है -कहीं करिया, कल्लू, कलुआ….!
रंग मिटा नहीं सकते, शायद जाति भी नहीं, पर हम स्वीकार तो कर सकते हैं….., चाहे गांधी नजरिए से, चाहे मार्क्स पढ़ कर, असल है विभेद खत्म करना मन और विचार से…..!
मार्क्सवादियो ने यहीं चूक की, लक्ष्य (स्वतंत्रता -साम्यवाद) प्राप्ति की कोशिश की जगह गांधियन मेथड पर सवालिया निशान लगाए गए। जबकि दोनों का लक्ष्य एक था -सिर्फ तरीके भिन्न थे!
बड़ी छोटी सी बात थी -बस उनका एक रंग ही फीका था मगर गोरी से कलुआ का गठबंधन ना हो सका! हाय….!!