13-नेहरू एवं मार्क्सवाद
जैसा कि पूर्व में बताया जा चुका है कि रसिया में बोलशेविको की सफलता और विश्व युद्ध की समाप्ति पर पूर्वी यूरोप और एशियाई देशों में मार्क्सवाद का विचार प्रबल हो उठा। साम्राज्यवाद से मुक्ति के साथ-साथ औद्योगिक क्रांति से उत्पन्न नये किस्म के पूंजीपतियों से मुक्ति और कामगारों की एकता, समानता हर समाजवादी का लक्ष्य हो चला था। भगतसिंह और चंद्रशेखर आजाद जैसे नायको द्वारा देश में सरजमीं के लिए जज्बे के साथ-साथ सामाजिक एकता और समाजवाद की वकालत भी की गई। भगतसिंह द्वारा प्रस्तुत अपने विचार हिंदू-मुस्लिम एकता अथवा संप्रदायवाद के खतरे को काफी पूर्व पहचान लिया गया था। जेल से लिखे पत्रों में वे देशवासियों को इस ओर आगाह करते हैं। उन्होंने यह भी राय व्यक्त की कि युवा क्रांति यथाशीघ्र व्यक्तिगत कुर्बानी की राह छोड़कर आवाम को समाजवाद की राह में अग्रसर करें। खैर!
सन 1920 से 1930 के बीच भारत के स्वतंत्रता इतिहास में आ रहे घटनाओं के साथ साम्यवाद का विचार भी फलित होना उल्लेखनीय घटना थी।
सवाल उठता है कि देश में समाजवादी विचारधारा इतनी पुरानी और मार्क्स के मूल विचार को यहां की जमीन में लागू करने की उत्कंठा और अवसर दोनों थे -तथापि मार्क्सवाद को देश की जमीन में वांछित सफलता नहीं मिल पाई।
इस पर मीमांसा आवश्यक है।
यह बता देना आवश्यक है कि कांग्रेस जो कि हिंदुस्तान को मुक्त करने का एक प्रभावी मंच था और नेहरू-सुभाष जैसे लोकप्रिय नेताओं का साम्यवादी विचार की वकालत थी, समर्थन था -बावजूद मार्क्सवाद इम्तिहान में अच्छे अंक नहीं ला पाया। यह सवाल विचलित करने वाला है।
सन 1930 तक सारा देश गांधी जी के तरीकों से लगभग नाखुश था। असहयोग आंदोलन असफल हो चला था। स्वराज्य दल के हिस्से भी वही पुराने अनुनय-विनय-प्रार्थना की नीति थी। विश्व आर्थिक मोर्चे पर महान मंदी के दौर से गुजर रहा था। विश्व के साथ-साथ भारत के शहरों में भी बेरोजगारी और पूंजीवादी पद्धति की कटु आलोचना मार्क्सवादी नजरिए से विश्व के पूंजीवादी राष्ट्रों में भी होने लगी थी। समाजवादी विचार कांग्रेस के भीतर इतना प्रबल हो चला था कि 1936-37 में कांग्रेस के अध्यक्ष नेहरू चुने गए, सन 1938-39 में सुभाष चंद्र बोस। यही नहीं कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी का जन्म भी हो चला था।
अखबारों और जर्नल के मार्क्सवादी विचार संपूर्ण देश में फैल रहे थे। श्री डांगे ने मुंबई से पम्फलेट प्रकाशित किया -’गांधी एंड लेनिन’। ’द सोशलिस्ट’ -एक साप्ताहिकी का प्रकाशन नियमित किया। मुजफ्फर अहमद बंगाल में ’नवयुग’, पंजाब में गुलाम हुसैन एवं अन्य द्वारा ‘इंकलाब’ मद्र्रास में एम. सिंगरावेलू ’लेबर-किसान गजट’ प्रकाशित किए। उसी तरह कालेजों में विद्यार्थी-युवा एसोसिएशन स्थापित किए गए। सुभाष और नेहरू ने देश भर की सघन यात्राएं की और साम्राज्यवाद-पूंजीवाद, जमींदारी के विरूद्ध लोगों को जागृत किया। समाजवादी आदर्श बताए। 1920 के बाद से ही ट्रेड यूनियन और किसान आंदोलन सक्रिय रहे।
नेहरू, जो कि गांधी के बाद सबसे लोकप्रिय नेता थे -अपनी पुस्तक ’ऑटो बायोग्राफी और गिल्म्पिसेस ऑफ वर्ल्ड हिस्ट्री’ में तथा जेल से लिखे पत्र व्यवहार में मार्क्सवादी मेथड से सामाजिक समानता की अहमियत उल्लेखित करते रहे। उनका अभिमत स्पष्ट था कि सिर्फ राजनीतिक स्वतंत्रता हासिल हो भी जाए तो समाज में जो आंतरिक भेद हैं विशेषकर अगड़े वर्ग द्वारा छोटे वर्ग का शोषण -और जब तक यह भेद खत्म नहीं होता पूर्ण स्वतंत्रता संभव नहीं। नेहरू किसानों के आंदोलन में भाग ले चुके थे और उनमें निहित आर्थिक पहलू को पृथक नजरिए से देखने लगे थे। सन 1927 में उन्होंने सारे विश्व से इकट्ठा हुए साम्राज्यवादी विरोधी सम्मेलन जो कि ब्रसेल्स में हुआ था -सम्मिलित हुए। कोने-कोने से उपनिवेश विरोधी नेताओं के संपर्क में आए। उसी वर्ष उन्होंने सोवियत रसिया की यात्रा की और वहां के समाजवादी समाज से अत्यंत प्रभावित हुए। अपनी वापसी उपरांत 1929 लाहौर सेशन में स्पष्ट अभिमत प्रस्तुत किया जिसमें समाजवादी समाजवाद -गणतंत्र पर उनका विश्वास असंदिग्ध था। वहीं सामंती प्रथा की भर्त्सना की। भारत में समाजवादी आदर्श की नींव रखनी होगी यदि आवाम गरीबी और असमानता से मुक्त होना चाहता है तो।
ज्ञात हो कि कांग्रेस में पूंजीपति, जमींदार, श्रमिक, खेतिहर के बीच सामंजस्य रखना एक चुनौती सी बन गई थी। कांग्रेस की चुनौती इस देश की चुनौती थी।
आवाम के नब्ज को समझना अथवा आवाम की जरूरतों को समझना -यह खासियत हो और जनमत का निर्माण हो, जनता की शक्ति साथ हो -यही एक लीडर की पहचान हो सकती है। अगर उक्त परिभाषा को माने तो गांधी और नेहरू दोनों ही जनता के नेता थे। लीडर। जनता उनकी आवाज सुनती थी और बदले में लीडर जनता की आवाज बनते थे। दूसरे अर्थ में कहा जाए कि जब लीडर और अवाम के विचार, विचार प्रणाली में भेद खत्म हो जाता है तो जिसे कहते हैं कि आवाम अपना पूर्ण विश्वास, पूर्ण समर्पण प्रदान करता है। कुछ मुद्दों पर असहमतियां हो सकती हैं, जैसा कि हम गांधीजी की अहिंसा पर अत्यधिक जोर देने के मामले में देखते हैं -फिर भी उनकी आलोचना करना या उनके विरुद्ध हो जाना कतई आसान ना था। पर, इतना स्पष्ट है कि असहयोग आंदोलन के बाद से ही गांधियन मेथड पर से आंशिक ही सही, मगर मोह-भंग की स्थिति उत्पन्न हुई थी। तब भी, कांग्रेस संपूर्ण देश की एक मात्र संस्था थी जिसके तहत गांधी जी की पुकार पर उत्तर-दक्षिण और पूरब-पश्चिम से आवाम एकजुट हो जाता था।
नेहरू यद्यपि समाजवादी, मार्क्सवादी विचार प्र्रक्रिया को समझ चुके थे और देश के समक्ष राजनीतिक आजादी के साथ -साथ सामाजिक आजादी की प्राप्ति भी एक उल्लेखनीय पहलू हो चला था। नेहरू ने बडे़ शिष्ट विचारों से अपनी बात देश व गांधी जी के समक्ष रखा, देश में पूंजीपतियों, जमींदारों का हित और किसानों, कामगारों का हित पृथक था, इसे स्पष्ट किया। नेहरू ने गांधी जी के ट्रस्टीशिप के सिद्धांत को सीधा खारिज किया और मार्क्सवादी भौतिक द्वंदवाद को अधिक सार्थक, सही माना। गांधीजी व्यक्तिगत संपत्ति को समाज का ट्रस्टी होने के नाते समाज की संपत्ति समझते थे मगर मालिकाना हक ऐसी सम्पति पर व्यष्टि का ही था। दूसरी ओर मार्क्सवाद ऐसी संपत्ति को वैज्ञानिक तरीके से समाज के घटकों के बीच वितरित किए जाने का विकल्प प्रस्तुत कर चुका था। सोवियत रसिया इसका सुंदर उदाहरण था।
वैचारिक स्तर पर आखिर नेहरू ने क्या किया ? क्या उन्हें कांग्रेस से पृथक हो अपने पीछे खड़ी आवाम को जागृत करने के लिए अलग पार्टी बनानी चाहिए थी ? फिर कांग्रेस को देशव्यापी समर्थन का क्या होता ? कोई भी नया दल तत्काल देशव्यापी नहीं बन जाता, खासकर तब जब सीपीआई जैसी पार्टी की स्थापना देश में 1920 के आसपास ही हो गयी थी। अथवा नेहरू वाम-दक्षिण की बहस में कांग्रेस को भीतर से तोड़ देते और कांग्रेस कमजोर कर देते ?
नेहरू जी ने ऐसा कुछ नहीं किया और लेखक की व्यक्तिगत राय है कि उक्त परिस्थितियों में नेहरू ने सही फैसला लिया। जो जनाधार कांग्रेस को प्राप्त था उसी जनमत को समाजवाद की वैज्ञानिक प्रक्रिया से देश को भावी समय में ले जाना था -राजनीतिक-आर्थिक व सामाजिक रूप से स्वतंत्र और अधिक प्रबुद्ध, अत्याधिक सहनशील, उदार प्रजातांत्रिक देश!
एक शंका यहां उठ जानी चाहिए कि यदि नेहरू और सुभाष चाहते तो कांग्रेस को राइट-लेफ्ट दो फाड़ कर सकते थे ?
एक तरफ गांधी जी की शख्सियत तो दूसरी ओर नेहरू-सुभाष और अन्य युवा क्रांतिकारी ?
आवाम का क्या होता ? वह किस तरफ जाती ? भारत का स्वतंत्रता आंदोलन क्या कमजोर नहीं होता ? गरीबी से जूझ रहे करोड़ों किसान और कामगार अपनी मुक्ति के लिए कहां जाते ?