अंक-17-बहस-7-मानव बनाम प्रकृति

7-मानव बनाम प्रकृति

इस बौद्धिक सन्नाटे में मुझे प्रकृति और मानव के रिश्ते दिखाई दे रहे हैं। यह जितना सरल दिखता है, उतना है नहीं। लालच या हवस के कारण मानव किसकी क्षति पहुंचाता है -प्रकृति की या स्वयं की।
’’जब हम सवालों से सवाल कर कर के गहराई में जाते हैं तो प्रतीत होता है -वह क्षति स्वयं की ही होती है। पर जब अहंकार या मूर्खता या हवस की पट्टी हमें दुर्योधन के अतिरिक्त और के बारे में सोचने दे तब ना!’’
’’मनुष्य और प्रकृति के रिश्ते तब से हैं जब मानव पृथ्वी पर आया। शिव एक ऐसी अवधारणा भी है -भावना के साथ-साथ प्रकृति और पुरुष का रिश्ता कैसा हो। आद्यपुरुष है जो प्रकृति के साथ भौतिक, मानसिक और आत्मिक हर रिश्ते के आदर्श स्वरूप को दर्शाते हैं। शिव जितने आद्य हैं उतने ही अत्याधुनिक भी! वे अस्त्र-शस्त्र निर्माण और युद्ध कौशल में अद्वितीय हैं, उनका ज्ञान अनंत है -रहस्यमयी! मगर उनकी जीवनशैली निहायत सरल, प्रकृति से मेल रखती। कोई इत्र या फुलैल नहीं, भस्म ही उनकी विभूति है, श्रृंगार है। क्या यह मिथकीय चरित्र हमारी संस्कृति की व्याख्या नहीं करता ? यह बताता नहीं कि पुरुष या मानव सभ्यता को किस दिशा गमन करना चाहिए ? प्रकृति के साथ उसके रिश्ते कैसे होने चाहिए ?’’
’’जिस तरह शिव समाज का सक्रिय समूह पुरुषों को कुछ संकेत करते हैं उसी तरह उनकी भार्या स्त्री के आम चरित्र को दर्शाती है। स्त्री अथवा प्रकृति मानव को सद्भावनापूर्ण सहयोग के लिए तत्पर रहती है, वह अंगीकार करती है, वह स्वीकार है -मगर अतिक्रमण के लिए नहीं! मानव सभ्यता विकास के नाम पर प्राकृतिक जीवन शैली से अतिक्रमण अथवा बलात्कार नहीं कर सकता। यह बलात्कारी जब-जब हावी होते हैं प्रकृति नष्ट होती है। मानव जीवन, हमारी सभ्यता और अंततः हमें भोगनी पड़ती है। चाहे पत्थर के मकान हों चाहे मिट्टी या लकड़ी के तैयार किए जाएं -मानव जब तक सृजन भाव में रहेगा उसका उद्धार होगा। प्रकृति और पुरुष का संतुलन कायम रहेगा -अर्थात मानव व परिवेश संतुलित रहेंगे -शैव की स्थिति रहेगी। संतुलन बिगड़ेगा -तबाही होगी -हाहाकार भीतर-बाहर अवश्यंभावी है।’’
’’शिव ने गणेश का सिर क्यों काटा? क्योंकि गणेश तब मात्र प्रकृति के एकांगी उत्पन्न थे। विवाद और युद्ध हुए और अंततः शिव को गणेश का सर धड़ से अलग करना पड़ा, पुनः गज के सर से जीवनदान! अर्थात गणेश अब प्रकृति और पुरुष दोनों से सृजित हुए। संतुलन कायम रहा!’’
’’इस धरती पर प्रकृति बनाम मनुष्य में कौन बड़ा ? स्कूलों और कॉलेजों में पढ़ाई जाती थी। मनुष्य क्या हमारे परिवेश को छेड़ सकता है ? कौन बड़ा ? प्रकृति या परिवेश जिसमें पलकर मनुष्य जीवन जीता है -विकसित होता है। या फिर मनुष्य -जो अपने कौशल से प्रकृति को ही उलट सकता है ?’’
’’ये सवाल बहुत पुराने पड़ गए और आज इनका रूप अत्यंत घृणित हो चला है। क्या यह कहने की आवश्यकता है कि हमें क्या और कितना अपने परिवेश से रिश्ता बनाना चाहिए ? हमें मालिक बनना है, स्वामी ? मगर कैसा ? या दास ? मगर कैसा दास ?’’
’’जवाब सीधा सा है -संतुलन!’’
’’क्या हमें इतना पिछड़ा सिद्ध करना है कि साधारण सी महामारी प्लैग या मलेरिया से हजारों कालग्रस्त हो जाएं ?’’
’’या इतना मालिकाना दावा ठोंकना है कि धरती के हर कोने को नागासाकी और हिरोशिमा बना दी जाए जहां आने वाला आने वाली पीढ़ियां कैंसरग्रस्त पैदा हो ?’’
’’जी नहीं! उत्तर एक ही है -संतुलन!’’
’’जब गांधी जी चरखे की बात करते हैं तो वे इसी संतुलन की ओर इशारा करते हैं। आप चाहे तो संपूर्ण गांधीवाद को इसमें समेट कर रख लें।’’
’’जब मार्क्स उसी संतुलन की खोज में लेबर यूनियन, मैनेजमेंट की बात करते हैं तो वे भी उसी संतुलन की और अग्रेषित हो रहे होते हैं। और इस धरती को ’स्वयं’ के दीपक महात्मा बुद्ध ने तो साफ-साफ कहा -वीणा के तार इतना ढीला ना रखो कि उनसे आवाज ही ना आए और इतना ना कसो कि तार ही टूट जाए।’’
’’सिर्फ इसी सत्य की खातिर वे 12 वर्ष भटकते रहे ?’’
’’जाहिर है कि सत्य का मर्म बहुत गहरा है। यह वेद है। ब्रह्म वाक्य! अटल सत्य! मानव चाहे जहां पहुंच जाए वह इन सत्यों से विमुख होगा -उसकी क्षति होगी। जीवन-सत्य के प्रति उत्सुक समाज या व्यक्ति को निरंतर इन तथ्यों पर मनन करना चाहिए।’’
’’मनुष्य का प्रकृति को समझने, जानने की उत्सुकता, उतनी ही पुरानी है जितना स्वयं मनुष्य! आदि-मानव प्रकृति से भय खाता था। पहाड़ से भयभीत, पानी से भयभीत, बिजली-आंधी से भयभीत, आग से भयभीत!’’
’’जरा ठहरिये…….., विचार कीजिए…….. यह है मनुष्य मन पर उसके चित्त पर जाने कितने वर्षों तक राज करता रहा। हमारा चेतन-अवचेतन एक दुर्दम्य भय से भरा रहता होगा। फिर हमने घुटने टेक दिए। प्रकृति के इन रूपों में अपना भगवान ढूंढ लिया। भय ने भगवान पैदा किया -हमने प्रार्थना किए, जीवन के लिए इन के समक्ष गिड़गिड़ाया। वरुण देवता और जल के इंद्र देवता, अग्नि देवता….. और सूर्य, चंद्र तो देव थे ही।’’
’’कालांतर में मानव का भय स्वाभाविक हुआ और उसकी प्रार्थनाएं सुंदर विचारों में बदल गई, ऋचाओं में बदल गईं। वेदों का जन्म हुआ। प्रकृति के साथ मानव का संबंध कुछ रोमानी और सहज हुआ। मनुष्य प्रकृति और उसके विभिन्न रूपों और तत्वों को समझने लगा।’’
’’लेकिन इस समझ में ये समझ कब आई कि प्रकृति के तत्वों को समझते-समझते उन तत्वों पर अधिकार प्राप्त किया जाए ?’’
’’रामकथा में सीता को मुक्त करने खातिर लंका गमन में समुद्र मार्ग में अमोध बनकर आता है। राम द्वारा जलनिधि से प्रार्थना की जाती है कि वे वानर सेना हेतु मार्ग दें। समुद्र जो प्रकृति का ही हिस्सा है -अपने स्वरूप में स्थित रहने को विवश है। राम को क्रोध आता है और वे जल को सोख लेने वाले शस्त्र का संधान करते हैं।
जल देवता त्राहिमाम् करते प्रगट होते हैं -राम की इच्छा, उनके संकल्प के समक्ष समर्पित होते हैं और समुद्र-मार्ग का रास्ता तैयार होता है।’’
’’प्रकृति के तत्वों पर मानव विजय की प्राचीनतम कहानी लगती है। जल का स्वभाव ऐसा है कि उसमें पत्थर या भारी पदार्थ डूब जाए। मगर राम के पराक्रम से और नल और नील की सहायता से, उनके कौशल से तथा शेष समुद्र के सहयोग से सागर पर पुल/सेतु बनाए गए। प्रकृति के मूल स्वभाव कि अग्नि अपना वास्तविक रूप अर्थात दाह शक्ति भूल जाए, पवन अपना स्वरूप कण-कण में व्याप्त होने का और विरल होने का भाव भूल जाए, धरती अपनी उत्पादकता समाप्त कर दे, आकाश अपना विस्तार खो दे तो क्या बचेगा ? प्रकृति के तत्वों का अपने मूल स्वरुप में स्थित होना ही हमारे अस्तित्व की गारंटी है।’’
‘‘राम का प्रसंग अपवाद है। राम अति मानव हैं और प्रकृति के तत्वों से परे हैं। राम का उद्देश्य भी कोई लंका के सोना खदान के लिए नहीं था, ना ही धन संपत्ति लूट कर लाना। वहां आदर्श था -हम सभी जानते हैं, अतः उनके उद्देश्य में प्रकृति ने भी साथ दिया। यहां मानव-कर्म प्रकृति का मास्टर साबित होता है। पर मनुष्य और प्रकृति का संतुलन नहीं बिगड़ता। उद्देश्य में आदर्श है, मर्यादा है।’’
’’प्रकृति को वश में करने का महाभारत में कई-कई प्रसंग आते हैं। अगर कृष्ण के चमत्कारों को छोड़ दें तो सबसे सुंदर उदाहरण ऋषि दुर्वासा हैं जिन्होंने प्रकृति के तत्व को अधीन करने की शक्ति प्राप्त की थी। वरदान स्वरूप प्रसन्न होकर कुंती को उसकी कौमार्य अवस्था में ही वो मंत्र दिया कि जिस देवता का मंत्रोच्चारण का आह्वान करेगी -उससे संतान की प्राप्ति होगी। बाल जिज्ञासावश कुंती ने आकाश में सूर्य देव को ही ध्यान कर मंत्र पढ़ लिया और कर्ण की उत्पत्ति हुई।’’
’’परिणाम क्या हुआ ?’’
’’प्रकृति विरुद्ध कुंती ने कर्ण को अपने कान से जन्म दिया। कुमार अवस्था में पुत्र की माता होने के कारण लोक लाज के डर से करण का त्याग करना पड़ा। दरअसल, कर्ण का समस्त जीवन प्रकृति के तत्व से असंतुलित तरीके से प्राप्त वरदान का लेखा-जोखा प्रस्तुत करता है।’’
’’देखा जाए तो मंत्र या अन्य शक्ति से प्रकृति के प्रतिनिधि तत्वों अथवा देवताओं को अधीन कर सृजनरत होना मनुष्य की विजय है। पर, इसकी अपनी शर्ते हैं, इनके अपने दिशा-निर्देश हैं -क्या आज का मानव इन दिशा-निर्देशों को समझता है ?’’
’’सभी कौरव असामान्य तरीके से आज के टेस्ट ट्यूब देवी की तरह जन्मे थे -यह भी तरीका प्राकृतिक नहीं था। यह प्रकरण भी मानव का प्रकृति पर विजय चिन्हित करता है। सवाल सिर्फ यही है -क्या वहां आदर्श या मर्यादा स्थापित है ? मनुष्य क्यों प्रकृति पर विजय प्राप्त करना चाहता है ? उसका उद्देश्य ?’’
’’शिव द्वारा मृत गणेश को जीवित करना, कुरुक्षेत्र युद्ध में जयद्रथ वध के समय सूर्य के अस्त होने का भ्रम रचना, किंकर्तव्यविमूढ़ कश्मकश से जूझ रहे अर्जुन के मन का संशय खत्म करने के लिए कर्म की व्याख्या (गीता) करते हुए समय को स्थिर कर देना, काल के प्रवाह को कृष्ण द्वारा रोकना, ये सब मानव द्वारा प्रकृति के ऊपर विजय के सुंदर उदाहरण हैं। पर, मानव और संसार के बीच संतुलन कायम है।’’
’’जब दुर्योधन द्वारा पांडवों को 1 इंच जमीन भी देने से इनकार किया गया तब जंगल साफ कर पांडवों ने खांडवप्रस्थ नामक नगर बसाया था। प्रसंग इसलिए भी रोचक है क्योंकि हालांकि जंगल आबाद करना पांडवों की मजबूरी थी -फिर भी यहां पूर्व में बसे प्राणियों को विस्थापित होना पड़ा था। अर्जुन द्वारा अग्नि वर्षा से उस जंगल के नाग प्रजाति नष्ट हो गयी -कालांतर में नाग वंश के विनाश के लिए अर्जुन को जवाबदार मानते हुए नागवंशी राजा तक्षक ने महाभारत युद्ध में अर्जुन से बदला लेना चाहा। कृष्ण के प्रताप से तक्षक सफल नहीं हो सके। तब भी, तक्षक के वंशज पांडव वंश के दुश्मन हो गए।’’
’’वर्तमान समय में अमेरिकनों द्वारा रेड इंडियंस विस्थापित करना कुछ ऐसा ही है। ज्ञात हो कि रेड इंडियंस पर हुए अत्याचार के कारण अमेरिकन हॉलीवुड स्टार मेथड स्कूल के अभिनेता मार्लिन ब्रेंडों ने आस्कर ठुकरा दिया था! जब सभ्यता को धरती के स्वर्ग कम पड़ जाते हैं तो आततायी अर्थात विकसित मानव अपना अस्तित्व फैलाता है -प्रकृति पर विजय हासिल करता है और निश्चित ही यह मानव संस्कृति सभ्यता का रुख द्वन्द उत्पन्न करता है। सभ्यता की लड़ाई चाहे पांडवों का हो या नागवंश का, चाहे रेड इंडियंस का, चाहे विकसित आधुनिक मानव द्वारा जंगलों को आबाद करने की रही हो -इन सारे कर्मों में प्रकृति की स्थिरता प्रभावित होती है। संतुलन बिगड़ता है। यह विस्थापन है। इसके अपने गम और दर्द हैं। यह और कुछ नहीं, प्रकृति के संतुलन से सीधा विचलन है। और यह विचलन और भी दुखदाई है जब मानवीय हवस के कारण एक नहीं, दो नहीं सौ घड़े भी कम पड़ जाते हैं। आज आधुनिक मानव चांद खरीद रहा है। वहां भी जमीन मापी जा रही है।’’
’’पराकाष्ठा मानव मूर्खता की या मानवीय बौद्धिकता की ?’’