अर्ध रात्रि का ज्ञान
पकने का समय कई दिनों से अब तक/लिखने का समय 8.00 पी.एम. से 12.35 ए.एम. दिनांक-5 जुलाई 2021
कहीं हमारा लेखन समाज का बंटाधार तो नहीं कर रहा है ?
लेखक-सनत सागर, संपादक बस्तर पाति, जगदलपुर, छ.ग.
आखिर वह वक्त आ ही गया जब उसके हाथों में घर पर बने पकवान पहुंच चुके थे। यूं टूट पड़ा उनपर मानों सदियों से भूखा प्यासा पड़ा रहा हो। तभी अचानक उसके हाथ की ही ठोकर से थाली जमीन पर तेज आवाज के साथ गिर गयी।
आवाज के साथ उसकी सुगंधित सपनों वाली नींद भी टूट गयी। वह चौंक उठा, न तो उसके पास मिठाइयां थीं न ही नमकीन। बल्कि उसकी बगल में चमड़े सी खिंचने वाली सूखी रोटियों के टुकड़े बिखरे पड़े थे।
वह एक नजर उसको देखकर बाहर की ओर देखने लगा। बाहर तेज आवाज में बजते संगीत के साथ मिठाइयों के सुगंधित भभके भी आ रहे थे।
अपनी तेज भूख को मारकर उसने उन चमड़े समान टुकड़ों को उठाकर पानी की कटोरी में डुबो डुबो कर निगलने की कोशिश करने लगा।
’बुढ़ापे में ये दांत टूट जाते हैं और आंते बहुत कुछ मांगने लगती हैं। मैंने क्यों नहीं जवानी में खुद को सीमित आवश्यकताओं में ढालने की आदत क्यों नहीं डाली।’ अपनी हलक से वह अंतिम सूखी रोटी के टुकड़े को उतारता हुआ सोकर बड़बड़ाने लगा।
दृश्य -2
’बाबा अब वो नहीं आयेगा। यहां जो भी आता है वो किसी न किसी को चुपचाप छोड़कर ही जाने आता है।’ उस बुजुर्ग की आंखों का इंतजार पढ़कर जिसने दिलासा दी थी वह स्वयं ही उसकी उम्र का था। भले ही उसने संबोधन में उसे बाबा कहा था।
’ये वृद्धाश्रम है यहां पर किसी को बताकर लाया जायेगा तो वो क्यों आयेगा।’ उसने पास आकर फिर से दिलासा दी। ’आओ, आ जाओ मिलकर चाय पीयेंगे। हम कौन सा इन लौंड़ों के भरोसे हैं। ये वृद्धाश्रम हमारी देखभाल के लिये हैं। और सुनो ये मत भूलो कि बुढ़ापा सिर्फ तुमको ही आया है। उन धक्के मार कर भगाने वालों को भी आयेगा।
दृश्य-3
सास चुपचाप खाना खा रही थी। बहू अपने पति को भी खाना परोस रही थी। पति अचरज से भरा सोच ज्यादा रहा था, खाना कम खा रहा था। उसे विश्वास ही नहीं हो रहा था कि उसकी मां इस कदर चुप्पी के साथ खाना खा भी सकती है। वह लगातार कनखियों से उसे देख रहा था। मां के चेहरे को देखते देखते वह उसके बांये हाथ की ओर देखा। बड़ा सा फफोला नजर आ रहा था। वह झटके से उठ खड़ा हुआ और मां के पास पहुंच कर उसका हाथ हौले से अपनी ओर खींचा। मां रो पड़ी। बहू चुपचाप खाने के बर्तन रितो रही थी एकदम चुपचाप निर्लिप्त भाव से।
दृश्य समाप्त।
उपरोक्त तीन लघुकथाओं या कहानी के दृश्यों में हमने देखा कि पारिवारिक हिंसा के शिकार बुजुर्ग हुये हैं। और इन दृश्यों से ये भी साबित होता है कि युवा वर्ग बुजुर्गो पर इस तरह की हिंसा करके जाने क्यों यह मान लिया है कि वो अमृत पान करके इस धरा पर आये हैं।
वास्तव इस प्रकार के लेखन से हम अपने समाज को क्या दे रहे हैं इस पर कभी हमने विचार भी किया है ? हमारे लेखन का समाज पर प्रभाव पड़ता है ये तो हम मानते ही हैं। उपरोक्त उदाहरणों के माध्यम से वर्तमान लेखन की प्रवृत्ति बताने की कोशिश की है मैंने। इस तरह के लेखन से समाज में किस तरह के परिवर्तन होगें ? विचार करें।
वर्तमान में लेखन के संबंध में कहा जाता है, समझाया जाता है कि हमें हमारे समाज की विदू्रपताएं समाज के सामने लानी चाहिये। हमें हमारे समाज की विसंगतियां बतानी चाहिये। यहां तक तो किसी भी साहित्यकार को किसी समाज हितैषी को परेशानी नहीं होगी। परनतु इससे आगे जो कहा जाता है वह अवांछनीय है। हमें समाज की विसंगतियों को सामने लाकर पाठकों के सामने रखना चाहिये और पाठक से अपेक्षा रखनी चाहिये कि वह उन विसंगतियों का हल खोजे, समस्याओं का निराकरण करे। यानी कि कविता, कहानी या अन्य किसी विधा (बल्कि सभी विधाओं में) में समस्या चौक पर रखी जाये और हल पाठक खोजे। यहां तक कि जन मानस के मन को बदलने में एकदम से सक्षम फिल्मों में भी समस्रूओं का हल नहीं दिखाना पसंद किया जाता है बल्कि दर्शक के पल्ले बांध दिया जाता है।
वास्तव में क्या ऐसी रचनाएं समाज को सही दिशा दे पाती हैं ? समाज के यूं विद्रूपता प्रदर्शन से समाज के लोग ये नहीं मानकर चलते हैं कि आज समाज में ऐसा होना आम बात है। इसलिये हमारे द्वारा भी ऐसा किया जाना किसी भी प्रकार से गलत नहीं है। बलिक समाज में इस बात की स्वीकृति है। लगातार इस तरह के लेखन से पाठक के अवचचेतन मन में ऐसी नकारात्मक सोच नहीं बैठते जाती होगी ? क्या वह भी इन कपोल काल्पनिक या कुछ लोगों के सच को चित्रित करती रचनाओं से प्रेरण लेकर अपने घर में अपने परविर में और अपने समाज में उसी तरह का आचरण नहीं करने लगता होगा।
प्रश्न ज्वलंत है। इस तरह के लेखन को किसने प्रोत्साहित किया आप विचार करें पल भर में जान जायेगे। क्या हमारे समाज को ऐसे साहित्य की आवश्यकता है ?
तो क्या हम प्रवचननुमा लेखन करें। जिसमें बड़ो का सम्मान कीजिये सदैव सत्य कहिए, माता पिता की सेवा करना धर्म है, आदि। इसमें किसी भी प्रकार की शंका नहीं है कि यही जीवन का सत्य है परन्तु ठेठ यही लिखना संतों का काम है। एक साहित्यकार का काम है व्यवहारिक कठिनाइयों को लेकर नैतिकता को स्थापित करने का प्रयास करना। क्योंकि वह अपने परिवार के साथ रहकर, दुनिया के तमाम दुखों को झेलकर ही आगे आता है।
उपरोक्त तीन दृश्य कुछ यूं लिखे जाये कि समाज पर उनका नकारात्मक प्रभाव न पड़े। आइये काशिश करते हैं।
दृश्य-1
आखिर वह वक्त आ ही गया जब उसके हाथों में घर पर बने पकवान पहुंच चुके थे। यूं टूट पड़ा उनपर मानों सदियों से भूखा प्यासा पड़ा रहा हो। तभी अचानक उसके हाथ की ही ठोकर से थाली जमीन पर तेज आवाज के साथ गिर गयी।
आवाज के साथ उसकी सुगंधित सपनों वाली नींद भी टूट गयी। वह चौंक उठा, न तो उसके पास मिठाइयां थीं न ही नमकीन। बल्कि उसकी बगल में चमड़े सी खिंचने वाली सूखी रोटियों के टुकड़े बिखरे पड़े थे।
वह एक नजर उसको देखकर बाहर की ओर देखने लगा। बाहर तेज आवाज में बजते संगीत के साथ मिठाइयों के सुगंधित भभके भी आ रहे थे।
अपनी तेज भूख को मारकर उसने उन चमड़े समान टुकड़ों को उठाकर पानी की कटोरी में डुबो डुबो कर निगलने की कोशिश करने लगा।
’बुढ़ापे में ये दांत टूट जाते हैं और आंते बहुत कुछ मांगने लगती हैं। मैंने क्यों नहीं जवानी में खुद को सीमित आवश्यकताओं में ढालने की आदत क्यों नहीं डाली।’ अपनी हलक से वह अंतिम सूखी रोटी के टुकड़े को उतारता हुआ सोकर बड़बड़ाने लगा।
रमेश पसीने से तरबतर अपने बिस्तर में पड़ा था। अपने पिता की स्थिति का यूं दृश्य आंखों में तैरते ही वह बेचैन हो उठा। अब वह शहर की इन खोलियों में नहीं रहेगा। वापस अपने गांव जाकर अपने पिता की देखभाल करेगा। जिस पिता ने पेट काट काट उसे बड़ा किया वह उसी पिता का पेट बुढ़ापे में कटने न देगा।
उसने अपने मोबाइल की घड़ी को देखा सुबह के तीन बजे थे। अपना सामान पेक करने लगा।
दृश्य -2
’बाबा अब वो नहीं आयेगा। यहां जो भी आता है वो किसी न किसी को चुपचाप छोड़कर ही जाने आता है।’ उस बुजुर्ग की आंखों का इंतजार पढ़कर जिसने दिलासा दी थी वह स्वयं ही उसकी उम्र का था। भले ही उसने संबोधन में उसे बाबा कहा था।
’ये वृद्धाश्रम है यहां पर किसी को बताकर लाया जायेगा तो वो क्यों आयेगा।’ उसने पास आकर फिर से दिलासा दी। ’आओ, आ जाओ मिलकर चाय पीयेंगे। हम कौन सा इन लौंड़ों के भरोसे हैं। ये वृद्धाश्रम हमारी देखभाल के लिये हैं। और सुनो ये मत भूलो कि बुढ़ापा सिर्फ तुमको ही आया है। उन धक्के मार कर भगाने वालों को भी आयेगा।
बाबा ने उसे देखकर मुस्कुराया और धीरे से कहा, ’वह आयेगा जरूर आयेगा वापस। बल्कि एक दो घंटे में ही आयेगा। देख लेना तुम। जितना मैं बेचैन हूं उससे वो कहीं ज्यादा बेचैन होगा।’ कुछ पल रूक कर बोला, ’मैंने उसे कभी भी हॉस्टल में नहीं पढ़ाया, न ही कभी अपने से दूर करने का कोई काम किया। उसे मैंने हमेशा ही अपने से जोड़कर रखा है वो मुझसे किसी भी हालत में अलग नहीं रह पायेगा।’
’बाबा! तो आपका बेटा आपको यहां छोड़कर ही क्यों गया, जब आपने इतने ऊंचे संस्कार दिये थे ?’ हंसकर वृद्धाश्रम के पुराने रहवासी ने मजाक उड़ाया।
प्रत्युत्तर में बाबा ने उसे देखकर मुस्कुराया फिर धीरे से बोला, ’ये दुनिया है। इस दुनिया में तरह तरह के कर्म होते हैं। वह भी एक कर्म का हिस्सा बन गया है। बहकावे में आया है परन्तु मेरा बिछोह उसे कुछ देर में ही सच्चाई समझा देगा।’
बाबा की कही बातें वृद्धाश्रम के पूर्व रहवासी को बार बार हथौड़े की तरह चोटिल कर रही थीं।
दृश्य-3
सास चुपचाप खाना खा रही थी। बहू अपने पति को भी खाना परोस रही थी। पति अचरज से भरा सोच ज्यादा रहा था, खाना कम खा रहा था। उसे विश्वास ही नहीं हो रहा था कि उसकी मां इस कदर चुप्पी के साथ खाना खा भी सकती है। वह लगातार कनखियों से उसे देख रहा था। मां के चेहरे को देखते देखते वह उसके बांये हाथ की ओर देखा। बड़ा सा फफोला नजर आ रहा था। वह झटके से उठ खड़ा हुआ और मां के पास पहुंच कर उसका हाथ हौले से अपनी ओर खींचा। मां रो पड़ी। बहू चुपचाप खाने के बर्तन रितो रही थी एकदम चुपचाप निर्लिप्त भाव से।
’तुमने मेरी मां को जलाया है। मैं जब घर में नहीं रहता हूं तब तुम उस पर अत्याचार करती हो। उसे डरा धमका कर रखती हो। जानती हो तुम कि ये सब तुम क्यों करती हो ? क्योंकि तुम्हारी मां के साथ शायद ऐसा ही हो रहा है। तुम एक बात सोचो और जीवन उतारो, अगर तुम अपनी सास के साथ अच्छा करोगी तो तुम्हारी मां की बहू यानी तुम्हारी भाभी तुम्हें देखकर अत्याचार बंद नहीं कर देगी ?’
वॉश बेसिन पर धड़ाधड़ चलते हाथ अचानक रूक गये।