कफ़न के बहाने

कफ़न के बहाने

मुंशी प्रेमचंद की बहुचर्चित और कालजयी कहानी ‘कफ़न’ घीसू और माधव नामक पात्रों की कहानी है। इस कहानी को पढ़ना और विचारना, इन दोनां स्थितियों में मन की स्थिति विचारणीय है। जब हम कहानी ‘कफ़न’ को पढ़ते जाते हैं तब मन दया, घृणा से भर जाता है घीसू माधव के प्रति क्रोध बढ़ता ही जाता है। इधर बीवी मरने को है और वे दोनों अपने खाने के लिए और सोने के लिए व्यवस्था में लगे हैं। उनके जितना घोर स्वार्थी और घृणित व्यक्तित्व हो ही नहीं सकता। मरी बीवी को कफ़न ओढ़ाने के लिए समाज के सामने रो-रोकर अपनी विपन्नता और लाचारी का दोहन करते हुए नजर आते हैं और उससे उपजी दया से प्राप्त पैसों से खाना और पीना करते हैं, इस स्थिति तक पहुंचते हुए वे पूर्ण रूप से घृणा के पात्र हो जाते हैं। वाकई में समाज के वाशिंदों का यह पहलू घोर चिंताजनक और आपत्तिजनक है, समाज कुछ नियमों के तहत ही सही ढंग से चलता है। जिसमें कर्तव्य और अधिकार दोनां ही आते हैं, जीवन के अपने कर्तव्यों का पालन कर आदर्श जन ही बनना होता है।
लगातार गरीबी में रहना और गरीब बने रहना, दो अलग बातें जरूर हैं परन्तु भोगना एक ही प्रकार से पड़ता है, आधे पेट खाना, कभी-कभी भूखे रहना, अपनी आवश्यताओं को सीमित बनाये रखना, ये सभी तो समान रूप से दोनों प्रकार के गरीबों पर लागू होते हैं। हमने अपने जीवन में दो प्रकार की परिघटनाओं को देखा है और समझा भी है. लगातार बूंद बूंद पानी पड़ने पर भी घड़ा भर जाता है और थोड़ा-थोड़ा कर्ज भी करजा बनकर सर पर सवार हो जाता है। इन दो चीजों को लोग भूख से जोड़कर क्यों नहीं देखते हैं? भूख का व्यवहार भी तो ठीक इसी प्रकार है। वह भी तो धीरे-धीरे बढ़कर आग बन जाती है। भरे पेट दिमाग से चलने वाला शरीर, पेट खाली होते ही पेट की आग सा हरहराने लगाता है। उस आग में पंचेन्द्रियां मात्र एक ही काम की ओर दौड़ लपक उठती हैं। खाना न खाना और थोड़ा-थोड़ा खाना ये दोनों परिस्थितियां बड़ी अंतरविरोधी है। खाना न खाने पर भूख ठहर जाती है; और थोड़ा-थोड़ा मिलने पर खाने से भूख भड़कती जाती है। भूख का यह गणित नहीं, यह तो भूख का भौतिक और रासायनिक परिवर्तन है। शरीर के इस परिवर्तन को जानबूझकर अनदेखा करना और तिरस्कृत करना, उच्च आदर्श की उम्मीद रखना, यह संभव है क्या ? सांसारिक विषमताओं में आदर्श तभी स्थापित होते हैं जब पेट भरा है। उसके पहले सारे आदर्श ढकोसलों की श्रेणी में आते हैं।
घीसू माधव की बातचीत में आया प्रसंग कि ‘मरने के बाद कफन को तो जल ही जाना है।’ और ‘समाज के लोग कफन भी और पिछला हिसाब नही पूछेंगे’, ये दो वक्तव्य गहरी बातें हैं जो समाज का विदू्रप चेहरा ही दिखाती है। वह विदू्रपता जो भद्रता का आवरण ओढ़कर सभ्यता बनी हुई है। सामाजिक कुरीतियां इस कदर फैली हैं कि व्यक्ति के मरने के बाद लोग चाहे तो लाखां भी खर्च करे तो कम हो जाये। व्यक्ति का मरना यदि बिस्तर पर हो गया हो तो बिस्तर, चादर, तकिया फेंक देना तो कुछ हद तक तर्कसंगत लगता है परन्तु ऐसा न हो तब भी उसके बिस्तर, चादर, तकिया, जूते, चप्पल, बर्तन, कपडे़, घड़ी, चश्मा सबकुछ फेंक दिया जाता है। कफ़न के नाम पर मस्तक पर लोग, रिश्तेदार कपड़े डालते हैं। नई शाल, रेशम का कपड़ा, नये वस्त्र पहनकर लाश को जला दिया जाता है। कई स्थानों पर कांसे की थाली, लोटा हल्का सा तोड़कर फेंका जाता है। देश के अलग-अलग स्थानों पर इस प्रकार की अनेक कुप्रथायें चल रही हैं, कफन तो प्रतीक है जिसे तो मरने के बाद जल ही जाना है।
व्यक्ति के मरने के पहले वह इस गति में रह रहा है उस पर दिल का पसीजना बहुत कम लोगों में पाया जाता है। वह खाना खाता है, नहीं खाता है, चिथडे़ लपेटे रहता है, ठण्ड में ठिठुरता है आदि बातें देखते समझते रहने के बाद भी लोग अनजान बने रहते हैं, समाज अनजान रहता है, रिश्तेदार अनजान बने रहते हैं। जीते जी जिन चीजों से व्यक्ति अपना कुछ वक्त अच्छा गुजार सकता है उन्हें, उसके मरने के बाद फेंक फांककर जलाकर नष्टकर दिया जाता है। कितना विरोधाभास है सभ्य बन जाने में! गरीब के पास एक जोड़ी कपड़े का होना और भी बड़ी बात है तो फिर कफन/दफ़न में कपड़ां को किस मुश्किल से जलाया जाता होगा।
घीसू माधव का मरनी के बाद मिले पैसों से बरसों से इकठ्ठी हुई भूख मिटाना क्या गलत हो सकता है? या फिर उस भूख को वैसे ही बनी रहने देना और किसी के काम आ सकने वाली चीज को नष्ट कर देना सही हो सकता है? लोगों का यह कहकर समाज में सभ्य बने रहना कि बेचारा जीते जी तो दुख पाया ही जरा भी सुख न मिला, और मरने के बाद भी कफ़न
नसीब न हुआ, क्या उचित है? जो समाज किसी के मरने पर बढ़-चढ़कर कफ़न-दफ़न करता है वह पहले इतना निष्ठुर क्यों बना रहता है। मरने के बाद की संवेदनहीनता का क्या निहितार्थ हो सकता है। मरनी के बाद आये लोगों का उंगलियां चाट चाटकर खाना या फिर वहां की बेकार व्यवस्था पर भड़ास निकालना सभ्यता कैसे हो सकती है ? यह कैसा दोहरा चरित्र है समाज का! हम लिखने पढ़ने वाले बौद्धिक जुगाली के कर्ता धर्ता कभी गरीब बनकर क्यों नहीं सोचते हैं ? गरीबी की कल्पना से भी भयभीत हो जाने वाला व्यक्ति कभी भी गरीबी का वास्तविक वर्णन नहीं कर सकता है। मजबूर भूख को एकत्र कर पेट की जलती भट्टी पर आदर्श कैसे टिकते हैं, ये सोचना महत्वपूर्ण है। महत्वपूर्ण तो है भरे पेट का आदर्श जो गरीबी से ऊपर पाया जाता है। उन विभिन्न आदर्शों पर कौन दृष्टि मारे? गरीबों के सर, कंधे, पीठ और दोनां हाथां से आदर्शो से ठसाठस भरी बोरियां थमाना और उसके बाद उनसे दौड़ में प्रथम आने की उम्मीद-घोर निराशाजनक व्यवहार है यह।
शराब के कारण आने वाली गरीबी और गरीबी में शराब पीना, जरा इस पर विचार किया जाय। घीसू माधव आलसी नंबर एक है। यहां पर पुनः भूख के रासायनिक और भौतिक परिवर्तनों पर नजर डालें। पहले घीसू माधव के मन में घुसकर उनके दृष्टिकोण से। लगातार गरीबी झेलते रहना और अपने आप की नियति वही मान लेना, भूख के ज्वालामुखी बनने की तरह, क्या ऐसा संभव है ? नहीं बिल्कुल भी नहीं, जैसे भूख का ज्वालामुखी मौका मिलते ही जला देता है वैसे ही इस गरीबी, लाचारी, मजदूरी आदि को लगातार झेलते रहना भी मौका ताड़ कर बांध तोड़ ही देता है। इस बांध को मजबूती मिलती है नशे से, नशा इस वास्तविक सच्चाई को आभासी में बदल देता है। वे स्वयं को मुक्त मान लेते हैं इन कठिनाइयों से।
भूख के रासायनिक एवं भौतिक परिवर्तनों पर अब हम अपनी सोच से विचार करें तो पाते हैं कि उन्हें तो धूप, ठण्ड, बरसा झेलते हुए आदत हो गई है। इन प्राकृतिक प्रहारों के वे आदी हो गये हैं। फिर क्यों वे शराब पीते है ? शराब पीने का बहाना ढूंढते हैं। नशे के लिए ही तो कमाते हैं। नशा छोड़ दें तो उनके हालत सुधर जाये। गरीब बने रहने में उनका फायदा है तो वे क्यों मेहनत करें ?
कौन सा मजदूर होगा जो मजदूरी करके इतना कमा लिया हो जो एक व्यापारी को टक्कर दे, या नौकरी करने वाले को टक्कर देता हो ? मजूदरी में हर तरह की मजदूरी शामिल है चाहे वह बोझा ढोना, खुदाई करना, राजमिस्त्री, बढ़ई, बिजली मिस्त्री, ड्राइवर, रिक्शा चालक आदि कुछ भी हो। ये सारे एकदम गरीब नहीं हैं यह बात एकदम सही है पर क्या ये ‘बेईमान’ बने बिना जीवन जी सकते है? क्या ऐसा संभव है? उदाहरण देना जरूरी है तब ही समझ पायेंगे। बढ़ई का उदाहरण लें। वो अच्छा खासा कमा रहा था, उसके बेटे की तबीयत अचानक खराब हुई, उसने पड़ोसी से पांच हजार उधार लिए। जल्दी ही बेटा ठीक हो गया। थोड़े पैसे चुकाया कि काम कम हो गया, अब वह पहले पेट भरे या पैसा चुकाये ? बेचारा बेईमान हो गया! एक दिन आंधी तूफान सा आया, पास का पेड़ गिर गया। उसने सोचा चलो कुछ लकड़ी उठा लाऊं पाटा बेलन कुछ बनाकर बेच दूंगा, कुछ कमाई हो जाये तो पैसा भी चुका दूंगा। लकड़ी उठाकर उसने तैयार कर लिये पाटा बेलन, तब निगम और वन विभाग वाले जागे और उसके यहां बनाये हुए पाटे और बेलन उठा ले गये। थोड़ा बहुत खर्चा भी करना पड़ा। अब उस ‘‘चोर’’ का क्या किया जाये क्योंकि वो ‘बेईमान’ तो चोर भी हो चुका है।
एक मजदूर अपनी रोजी से पेट पाल सकता है कपड़े और मकान कौन देगा ? यदि वह थोड़ी मोड़ी उधारी लेकर, कपड़ा और मकान का जुगाड़ करता है तो वह पैसे कैसे चुकाये ? वह पैसे लेते वक्त सोचता है कि ज्यादा मेहनत करके चुका दूंगा पर कुछ न कुछ खर्चे आ ही जाते हैं जैसे कि दुख बीमारी, दुर्घटना। वह फंदे में उलझता जाता है। वह बेईमान बनता जाता है। इस स्थिति को जानते बूझते हुए भी समाज का संपन्न वर्ग उन्हें बेईमान और डकैत साबित कर ही देता है। गरीब को गरीब बने रहने पर होने वाला फायदा वही लोग देखते हैं जो सामंती व्यवस्था में विश्वास रखते हैं। अपने अधीन सेवकों की फौज हो और वे सदा गरीब हों जिससे दबे होंगे। वो चाहे जैसा उनसे काम करवा सके।
नशे के कारण गरीबी और गरीबी के कारण नशा ये दो बिन्दु नजर आते हैं परन्तु ये एक ही बिन्दु हैं जो एक दूसरे में समाहित है या एक के ऊपर दूसरा धरा है। घीसू और माधव घर के भीतर तड़पती प्रसूता को तड़पने देने का पाप जरूर करते हैं पर उनके हाथ में क्या था जो वे कुछ पाते है ? वैद्य/दाई उनके घर आने से रहे, उन्हें तो पैसे चाहिए और जिस बात से वे अपराधी सिद्ध किये गये कफ़न के पैसे उड़ाकर तो उनका पहले पेट भर खाना सही था और शराब पीना इसलिए जरूरी था कि दुनिया की गाली जो सुननी थी। ऐसा इसलिए है कि अतिरेक पूर्ण परिस्थितियां गढ़ी गईं हैं। भूख अपनी जगह अटल है उसे दुनिया की कोई भी परिस्थिति हिला भी नहीं सकती है।