संशय-देवेन्द्र कुमार मिश्रा

संशय

एजेंट ‘बी’ के जूतों की आवाज उन्हें भी सुनाई न देती थी वे आखिर माने हुए जासूस ठहरे! वे बड़ी तेजी से सीढ़ियों पर चढ़ चीफ के चैम्बर की ओर जाने वाले चिकने फर्श पर चल रहे थे। उनके आने का संकेत चीफ को हो चुका था। लाल बत्ती जली-‘आने दो।’ हुकुम हुआ। गेट पर खड़े दरबान ने बड़े अदब से दरवाजा खोला, सलाम बजाया और तब तक झुका रहा जब तक वो भीतर पहुंच नहीं गये।
‘वेलकम!’ चीफ ने उनका स्वागत किया। चीफ के चेहरे पर मुस्कान, उत्सुकता और रौब, सब एक साथ झलक रहे थे। बैठने का इशारा हुआ। ‘थैक्स’ कहते हुए एजेंट ‘बी’ ने बड़ी नफासत से अपनी कुर्सी संभाली।
‘कैसा रहा आपरेशन…..?’-चीफ
‘ठीक रहा…… अपनी ओर से……।’-एजेंट ‘बी’
‘मतलब….?’-चीफ
‘मतलब शायद हमारा जो मिशन था वो पूरा ना हो पाये….।’-एजेंट ‘बी’
‘क्या बकते हो…?’-चीफ
‘जी…जनाब! बात ही कुछ ऐसी है, जनता नाराज जरूर है मगर तख्ता पलट अभी दूर की कौड़ी है।’-एजेंट ‘बी’
‘मुझसे पहेलियों में बात मत करो…खुलकर कहो…सीधी जुबान में।’-चीफ
‘मैं आपकी परेशानी समझ सकता हूं। बात ही कुछ ऐसी है। मसलन वहां अन्ना, रामदेव केजरीवाल विरोध कर रहे हैं…विद्रोह नहीं।‘-एजेंट
‘मगर रूपया गिरा है, भ्रष्टाचार, अपराध, हिन्दू-मुसलमान के बीच फसाद बढ़ते जा रहे हैं। अवाम में असंतोष है, आक्रोश है। भाषा, प्रांत, धर्म की दीवारें बढ़ती जा रही हैं। माफिया, नक्सलवाद, उल्फा सभी वहां सक्रिय हैं।’-चीफ
‘जी….जनाब!’-एजेंट
‘क्या वहां गुंडे, बदमाशों और भूख से लोगों का हाल बुरा नहीं…?’-चीफ
‘जी….जनाब! है….!-एजेंट
‘और क्या चाहिए! क्या जनता गृहयुद्ध नहीं करेगी?’-चीफ
‘नो…! शायद यही तो मैं समझाना चाह रहा हूं।’-एजेंट
‘अब समझने के लिए है ही क्या…।’-चीफ
‘बात यह है कि…….तमाम विसंगतियों के बाद भी ये उस तरह के लोग हैं जो शायद रात को लोरी सुनकर सोते हैं… पड़ोसी अपना सुख-दुख बांटते हैं। जरूरतों के लिए लोग उधार लेते देते हैं। फसाद और झगड़े के बाद भी लोग एक हो जाते हैं।’-एजेंट
‘असंभव! मगर यह कैसे मुमकिन है!’-चीफ का आश्चर्य बढ़ता जा रहा था। पानी का गिलास जो उसने घूंट मारने के लिए उठाया था, वह उसके हाथों में ही फंसा रहा।
‘मुमकिन तो नहीं है, मगर ये लोग हैं जो नामुमकिन को भी मुमकिन बनाते हैं। पता नहीं हजारों दुख, निराशा, अत्याचार के बाद भी, ये खुश, न जाने क्यों और कैसे हो जाते हैं।’-एजेंट

‘मसलन….?’-चीफ
‘मसलन ये क्रिकेट मैच जीतकर भी दुनिया के गम भुला देते हैं-वे सचिन में अपना भगवान खोजते हैं। इस साल अच्छी बारीश हुई, इस बात पर भी वे खुश हो सकते हैं। उनकी खुशी हजारों अन्याय, गम, शोषण पर भारी है। वे बड़े अजीब हैं-कल तक जिस धर्मगुरू के वे शिष्य थे, आंख मूंदकर उनकी बातें मानते थे आज पाखण्ड की पोल खुल जाने पर उसकी निन्दा करके वे सब खुश हैं। है न अजीब!’-एजेंट
‘समझा..! क्या वे लोग मुर्दा हैं या जिन्दादिल!’-चीफ
‘शायद दोनों या कुछ और…..कह नहीं सकता!’-एजेंट
‘तो यहां मिस्र या सीरिया जैसे हालात नहीं होने बाले!’-चीफ
‘मुझे तो मुमकिन नहीं लगता है। हमारा आपेशन सफल नहीं रहा।’-एजेंट
‘मुझे अब भी यकीन नहीं। उनके विश्वास, धैर्य, शांतिप्रियता का क्या हो सकता है-यह उनका कायरपन है या बहादुरी ….?‘-चीफ
‘नहीं जनाब…..! बात इससे कुछ बढ़कर है। उनके पास शायद कोई भगवान है-जो कभी भी अवतार ले सकता है। उनके तमाम दुखों को हर सकता है और यह भगवान हर घर में, अमीर-गरीब सबके भीतर मौजूद है……..और इससे बढ़कर उनके लिए ये दुनिया सिर्फ माया है…..एक स्वप्न…..!’-एजेंट
चीफ का सारा संशय जाता रहा। उनका ध्यान अब हाथों में फंसे पानी के गिलास पर गया।

देवेन्द्र कुमार मिश्रा
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