कहानी
वस्ल –ए– यार
एक नौजवान सा आदमी कहीं जा रहा था. काम की तलाश में, पैसा कमाने. रास्ते में जंगल पड़ा. पैसे और नौकरी के लालच में वह हर मुसीबत पार कर जाने को तैयार था, इस जंगल को भी. डर को अपने से दूर भगाया, दौलत का नशा, घने जंगल से वो क्या डरता. आगे बढ़ता गया. बढ़ता गया. जंगल का राजा शेर उसके पीछे पड़ा था. शेर हालाकि भूखा नहीं था, अभी -अभी उसने हिरण, भैसे, बकरी का भक्षण किया था, मगर इन्सान देखा तो मन ही मन कहा, अहा! आज तो पार्टी का मज़ा है, समझ लो! पूरा मांस मै खाऊंगा, मेरा जूठा भेड़िये और लोमड़ी. उनका नास्ता! आज जायका बदल ही लिया जाये.
शेर खांटी पूंजीवादी सोचवाला जानवर था, औरों को टुकड़े फेंकना और खुद मलाई मारना उसकी फितरत थी.
इन्सान हालाकि आधुनिक अजेंडावाला प्रबुद्ध प्राणी था, मगर जैसे ही शेर की आहट मिली, अपना सारा ज्ञान भूल गया. ठहर कर इंक़लाब करने, ललकारने या समता के सिद्धांत या प्राकृतिक न्याय की बातें पेलना भूल गया. गाँड़ फटी यहां से भाग निकलो. वह तेज़- तेज़ चलने लगा. शेर भी चालाक था, सब समझ गया. उसे तो जश्न और पार्टी के ख्वाब आने लग गए थे. उसने तो यहाँ तक सोच लिया था कि पहले साले का भेजा खाऊंगा, वहां बहुत से मसाले पड़े हैं. पूरब-पश्चिम, सारी दुनिया का ज्ञान! इसका रक्त जो सबसे दूषित है, भेड़िये और लोमड़ी को भेंट करूँगा. शकल-सूरत से तो शाकाहारी लगता है, इसका स्वाद ही अलग होता है – सोचते हुए शेर अब बेकाबू हो चला, उसके मुंह से लार टपकने लगा. पूरा बत्तीसी निकाल के उसपर झपट्टा मारा. मगर वो आदमी भी कम नहीं था, आज का ब्रांडेड, ऊपर से सोशलिस्ट और भीतर से कैपिटलिस्ट मिक्स वर्जन, एकदम चाइना ब्रांडेड था. सामने ही एक खाई था, उसमे उसने छलांग लगा दी. दरअसल वो एक अँधा कुवां था. कभी-कभी अंधापन भी दृष्टिवालों को बचा लेता है. राह दिखा देता है.
उस अंधे कूप में ऊपर से वृक्षों की लताएं नीचे तक फैली थी. वो आदमी पेड़ की शाख के सहारे लटक गया. ऊपर, लालची शेर अपनी जुबां में आ रहे लार को नियंत्रित नहीं कर पा रहा था…., जीभ निकालकर मुंह फाड़ता, अपने तीखे और मज़बूत दांतों का दीदार उस मानव को कराता. मज़बूरी थी, शेर छलांग नहीं मार सकता था. होशियार था, अपना नफा-नुक्सान सब समझता था, एक इन्सान के चक्कर में उसका लाखों का नुकसान हो जायेगा. बच्चू जायेगा कहाँ! आज नहीं कल, तेरे भेजे को फ्राई कर नाश्ता करूँगा ही. हे हे हे…!
वो आदमी कितनी देर लटका रह सकता था, सोचा चलो नीचे आराम फरमाएं. जब शेर चला जायेगा तब लताओं के सहारे ऊपर आ जाऊंगा. पर, जैसे ही नीचे देखा, एक विशाल सर्प फन निकाले उसकी प्रतीक्षा में तैनात था. आ जा…जनम- जनम की प्यास आज मिटा लूँ.., ऐसा डसूंगा कि अपनी साँसे तक गईं नहीं पाओगे. कम आन डियर…
बेचारा इन्सान…!
बहुत देर हो गया, आदमी को भूख प्यास लगने लगी. हाल बेहाल हो चला था. कब तक लटका रहे, लताओं के सहारे. तभी ऊपर से मीठा सा रस टपका. आदमी ने नज़र उठाकर देखा- अहा! शहद के छत्ते! वहीं से शहद टपक रहे हैं. मिटा लो अपनी प्यास! थोड़ी देर के लिए ही, वह ऊपर और नीचे के खतरनाक मंज़र को भूल गया और शहद के मीठे स्वाद में खो गया.
आज हमारे विश्व की सभ्यता-संस्कृति , हमारी ज़िन्दगी कुछ ऐसे ही अंधे कुएं में अटकी पड़ी है. हाँ, उसे मीठे स्वाद में भुलाने का प्रयास हो रहा है. मगर कब तक..?
कब तक? कब तक मानव उन लताओं के सहारे और टपकते शहद के भरोसे जीवित रह पायेगा..? मानव पढा-लिखा, ब्रांडेड संस्था का अति आधुनिक उत्तर-मानव था. प्रगतिशील था. अतः खुद के बचाव में जुट गया.
सबसे पहले जो उसकी बाहें लटके-लटके बेहाल थी, कुछ सोचना था, क्रिएटिव. अब उसने ये किया कि लताओं और बरगद, पीपल की शाखों को अपने कमर के इर्द गिर्द लपेट लिया, रस्सी की भांति. फिर जोड़ जुगाड़ कर उसे सीढ़ीनुमा बनाया, ताकि उसपर बैठा जा सके. हाथों को आराम मिले. उसने वैसा ही किया. अब उसने बड़े आराम से पसर कर, कुत्ते कि भांति जुबां बाहर निकाल कर शहद का मज़ा लेने लगा. शहद की एक बून्द इधर- उधर न टपके.., सब उसके मुंह में…!
ऐसा मौसम पहले आया नहीं, ऐसा बादल पहले कभी बरसा नहीं… जीवन भी क्या खूब रोमांस है! मन में लगे आग से…
ये सब देखकर शेर झन्ना तो रहा था, मगर करता भी क्या! वह भी लार टपकाये प्रतीक्षा करने लगा. बैठे बैठे वह बोर हो गया.., शेर लम्बी-लम्बी जम्भाइयाँ लेने लगा. अब तो उसे सचमुच की भूख लगने लगी थी. क्या मंज़र था कि शिकारी जो भूख से बेहाल था और उसका भोजन जो सामने ही था, साला गुलछर्रे उड़ा रहा था. वह भी नीचे फन काढ़े सांप और ऊपर दांत दिखाते शेर के बीच!
साला खाई में गिरकर भी नहीं गिरा. मज़े में स्वाद ले रहा है. शेर ये सब सोच कर झुंझला रहा था.
तभी कुछ भेड़ियों की झुण्ड वहाँ आ पहुंची. साले भेड़िये तो भेड़िये ही ठहरे, सब समझ गए. क्या माज़रा था. अच्छा! तो शेर भाई अकेले अकेले शिकार को चपेट लेना चाहते हैं..!
अरे नहीं! शेर ने स्पष्टीकरण दिया, मैंने तो सोच रखा है, साले का भेजा मैं खाऊंगा और तुम सब को इसका नमकीन खून भेंट करूँगा. मज़ा आएगा.. !
‘अब साले का खून कितना नमकीन है या यूरिया मिला ज़हर.., यह तो खाने पर ही पता चलेगा. ‘ – एक बुजुर्ग भेड़िये ने अपना विचार रखा.
एक आधुनिक सोचवाले भेड़िये ने बुजुर्ग भेड़िये के कान में कुछ कहा. शेर को जम्भाई आ रही थी, वैसे भी चुगली-चाटी उसके स्वभाव में नहीं था. शेर जो ठहरा. इधर भेड़ियों के बीच इस बात की गुंटूर गों हो रही थी कि क्यों न मिलकर शेर को भगा दिया जाए. फिर क्या इस मानव की हड्डियां, क्या खून, क्या मांस और क्या भेजा! सब हमारा!
विचार नेक था. भेड़ियों की आँखे चमक गयीं.
इधर मानुष जीभ बाहर कर निरंतर टपकते शहद के आनंद में डूबा था. इतना असली माल तो सिर्फ जंगल में ही मिल सकता था. उस भेनचोद को तो सिर्फ पैकेट का माल उड़ाने की आदत थी. ब्रांडेड.
तभी एक इंग्लिश मिज़ाज़ वाले भेड़िये ने कहा, देरी किस बात की…, इस साले शेर के माँ-भैण चोद देते हैं…. भैण के लुड़े…!
ठीक उसी वक़्त जब सभी भेड़िये अटैक का मूड बना रहे थे, शेर को जोर की जंभाई आई, और यूं उसने अपना मुंह फाडा कि उसके सारे दांत गरजते-चमकते बादल सरीखा चमक उठे! सालों की गाँड़ फट गयी. सारे भेड़िये चार क़दम पीछे हो लिए, एक तो वहीं मूत दिया, सुरर्र…!
फिर उस इंग्लिश भेड़िये ने अपने फौज का मोरल बूस्ट किया – कम आन…, टूट पड़ते हैं न…!
सबने एक दूसरे का चेहरा देखा. डर से फटे साले वार करें तो किधर से, और पहले कौन…? सामने कौन, बाज़ू कौन…, आजु कौन…, पीछे कौन…!
गुंटूर गुं जारी था. आजु-बाज़ू और पछाड़े वार के लिए सब तैयार थे, फ्रंट से शेर को कौन ललकारे.. ?
सवाल यहीं अटका पड़ा था.
उधर इन्सान अपनी भूख-प्यास मिटा, आराम से पैर पसारे , लताओं पे लटक कर ऊंघ रहा था. बीच बीच में साले का नाक सायरन बजाता. संगीत प्रेमी था भैंचो..!
अंदर सांप अब भी फन फाड़े सावधान की मुद्रा में कुंडली मारे बैठा था. आ नीचे, कि अपनी ज़हरीली कीस्सेज से , मतलब चुम्बनों से नवाज़ता हूँ. उसे न इन्सान की हड्डी में दिलचस्पी थी, न उसके रक्त में, न भेजा में. वह तो अपनी रक्षा में तैनात था. सदियों पुराना सम्बन्ध था, बेचारा खुद को बचाने में तैनात , क्या भरोसा इंसान का…! कोई भरोसा नहीं, जो अपनी चीज़ की माँ भैण करता है, उसका क्या भरोसा. मादरजात उसका ज़हर तक बेच खायेगा. चमड़ी का चप्पल बनाकर रौंद डालेगा…., और कुछ नहीं तो चीनियों की तरह ब्रैकफास्ट कर डालेगा. कहने का साला मानव है…! साले ये इतने भांति-भांति के हैं के असली-नकली में पहचान कैसे हो…! प्रेमी है या व्यापारी …? या के, क्रिप्टो करेंसी का दलाल..!
तभी लोमड़ियों का दल वहाँ पहुंचा. क्या माज़रा है, सब के सब उस अंधे कुएं की और नज़रे किये बैठे हैं.
‘अरे वाह! एक स्मार्ट लौंडा.. , इन्सान है. चिकना है. क्यों बे बिन मुंछे…, डेट पर चलेगा…? – एक लोमड़िया जो अभी-अभी पार्लर से फेसिअल करवाकर आयी थी, अपनी जुल्फें लहरा के अदा से बोली.
दूसरे भेड़िये ने आपत्ति की- ‘तुम्हे कैसे पता के वो तुम्हे पसंद करेगा.., वो मुझे भी पसंद कर सकता है..!’
‘चल जा! अपना मुंह आईने में देखा है!’- लोमड़ी ने बड़ी अदा से अपनी दोनों दांत बाहर निकाल लिए. थोबड़े के सामने जुल्फें लटका ली, ठीक कुएं में उन लटकती लताओं जैसी…!
‘इतना घमंड मत कर, गोरा रंग दो दिन में ढल जाएगा. ये चिकना तो मेरा…! – भेड़िये ने अपनी पसंद पर मुहर लगा दी.
भेड़ियों के बीच आक्रमण करने की योजना ग़ुम हो गयी. बात का रुख दूसरी और मुड़ चला था. पुराने खयालात के भेड़िये और लोमड़े सोच रहे थे कि न जाने इन नौजवानों को क्या हो गया है, न रक्त की बात करते हैं, न मांस की…, साला ये ज़माना ही फ्री-सेक्सुअलिटी का है. कोई बंधन ही नहीं. गैरत- बेगैरत का सवाल ही नहीं. अख़लाक़ी हक़ीक़त ही बदल गयी लगता है.
ऊपर सभी जानवर सोच रहे थे – ये कैसा मानव प्रजाति है ! सामने , आगे और पीछे इसके सर पर मौत मंडरा रही है और ये भैंचो खर्राटे मार रहा है | पहले का मानव ऐसा नहीं था| ये तो नया मानुष है.
तब तक जंगली भैंसो का झुण्ड भी आ गया था | मानव के इस अदा पर मुग्ध हो उसने कहा – ये तो म्यूजियम आइटम है | ऐसा जिसे खोजने पर भी न मिले | छा गए….., मेरी जान!
‘ऐ छिछोरे ! सुनो …, ये अपुन का, बोले तो आइटम है , अपन इसके साथ डेट करेगा …!’ – लोमड़िया लहरा रही थी |
‘क्या कहा …. मुझे छिछोरा कहा! …. बद्तमीज़ …. मै छिछोरा और तू..? तू कब से स्मार्ट हो गई , बेगैरत लोमड़ी की औलादों…!’ – भैंसे को गुस्सा आ रहा था | गुर्राया और अपनी भोथरी सींगें मिट्टी में खुरचने लगा|
‘ कूल डाउन …! इंसानो की तरह लड़ने की जर्रूरत नहीं |’ – यंग भेड़िये ने कहा | हम सब मिलकर फैसला करेंगे इस आइटम का करना क्या है!
शेर इन सब की बातें सुन रहा था | मन ही मन मुस्कराया | कुकुर के भोंकने, आपस की तू- तू – मैं –मैं-खें- खें की शोर- गुल से जंगल के सभी पशु पक्षी उधर हो लिए | जब जंगल का राजा ही जहाँ उपस्थित हो तो मंत्री और संत्री कब तक पीछे रहते |बात आग की तरह जंगल में फैल गई.
ऊंट, हाथी, गधा, घोडा, चीता, बिल्ली ,मयूर ,केंचुए, कछुए सब चल पड़े| मानो खुदा का पैगाम मिल गया हो| मानो ईश्वर प्रकट हो गए हों | एक इंसान जंगल में फंस गया है, अब उसका करना क्या है , ये फैसला अभी बाकी था | इंसान जब से प्रगति के रस्ते चला है , तब से जंगल ,जमीं और जानवर से रिश्ता ख़राब होता गया है |उसकी जगह मादरजात ने जबर और जुल्म को अपना हथियार और साथी बनाया | उसी बात को लेकर जंगल में आग लगी थी, यह मॉडर्न मानव है कैसा..! सुना तो सभी ने है मगर आज देखने -निहारने की बारी थी |
नीचे अँधा कुआ ,ऊपर मौत ! उसके बीच झूलता इंसान ! शहद का स्वाद लेता ! कान में कुछ आधुनिक कनटोप जैसा पहना ….. संगीत में डूबा …!
सब दंग थे !
ऊपर पेड़ पर बैठा बन्दर ने खें- खें किया , सुनो! सुनो! मेरी बात भी सुनो..!
सबने अपनी गर्दन ऊपर की! उसके हाथ में अख़बार के बण्डल थे | आँखों में चश्मा चढ़ाया और कहने लगा| सुनो साथियो …,
एक समय जंगल में क्या हुआ कि एक नारियल धम्म से ज़मीन पर गिरा | वही पर एक खरगोश मजे में गाजर खा रहा था | वह जायके का मज़ा ले ही रहा था कि अचानक इस धम्म ने उसकी तन्द्रा तोड़ दी | वह बेतहाशा भगा , भागता गया | कुछ दूर तक वह भागता रहा, रास्ते में एक दढ़ियल बोका मिला, हैरान होकर पूछा – क्यों ज़नाब , कहां भाग रहे हो…| सर पर पाँव रखकर..! खरहे ने भागते- भागते कहा, तुम भी भागो …. आसमान फटककर गिरनेवाला है| अब क्या था, बकरे ने अपनी दाढ़ी सहलाई और ज़मीन पर झाड़ू मारते वह भी भाग चला|
फिर भैंसा मिला , दोनों को भागते देखा| वही सवाल किआ , कहां भाग रहे हो विद्वानों .., जवाब मिला, तू भी भाग महापंडित …आस्मां फटने वाला है , अभी गिरा की तभी.., भागो…!
फिर तो जो भी मिला, गधा, भैंसा, शेर, भेड़िया…लोमड़…., कुकुर..! सब बेतहाशा भाग चले…, आस्मां गिरा ही गिरा, धरती फटी ही फटी ..! जान बचाओ और भागो…!
जंगल के सारे जानवर बस भाग रहे थे, बेतहासा.
आखिर एक कौवे ने भी उन् सभी को भागते देखा और पूछा, भाईजान! आस्मां फटकर गिर रहा है.., यह तो ठीक है, मगर कहां…! और भागकर जा कहां रहे हो..!
सब बगुलाभगत एक दूसरे को देखने लगे| हां यार ! हमने तो ये जाना ही नहीं, कहां फटकर आस्मां गिरा और हम कहां भागकर छिपने वाले हैं| इस दौड़ रेस में कछुआ सबसे पीछे था| उसके आगे केचुआ.. उसके आगे सांप….सब एक दूसरे का मुँह देखने लगे| बता भाई तू बता …. मेरे को क्या पता …मोर भाग रहा था इसलिए हम भी आगे भागे… मोर पूछा , वो बोला कि मैना भाग रही थी इसलिए हम भाग रहे थे, मैना ने भी वही जवाब दिया कि जब ताकतवर चीता भी भाग ही रहा था तभी उसे देखकर हम भाग रहे थे….., और चीता इसलिए छलांग मारे हुए था क्योंकि उसका बाप शेर दुम दबाकर पीछे से छोड़ते हुए भागे जा रहा था..
फि– र…..फि — र…दढ़ियल बकरा तक बात पहुंची कि आखिर हम सब भाग क्यों रहे हैं| आस्मां फटकर गिरा कहां है! खरहे ने आखिर में बताया वहां जहाँ वो गाजर खा रहा था| चलो देखते हैं, आस्मां कैसा होता है और धरती कितनी धंसी पड़ी है|
सब के सब वापस लौटे| खरहा आगे, उसके पीछे दढ़ियल बोका, फिर भैंसा…!
फिर माजरा स्पष्ट हुआ, वहां तो एक नारियल का टुकड़ा गिरा था, यह उसकी आवाज़ थी| न कोई आसमान न ही धरती! सब सलामत थे.
बन्दर रुका| नीचे सबकी और देखा| फिर मानव की ओर…!
उसने कहा – ‘हम सब तो सच जान लिए , ओर वहीँ ठहर गए, जहाँ थे| मगर इंसान ? आज इंसान भाग रहा है … कहाँ? नहीं मालूम| क्यों ..? इस चोदू को ये भी नहीं पता, भैंचो !
‘दोस्तों’! – बन्दर ने अपनी बात आगे बढ़ाई – ‘दोस्तों! आज वक़्त आ गया है कि ये इंसान जो सबका फैसला करता है , हम आज उसका हिसाब करे| शेर महाराज आज्ञा दे कि उसपर अभी के अभी न्यायलय गठित की जाये और इस पर आरोप पेश किया जाये – देखें फैसला किसके पक्ष में होता है|
इल्जाम यही है कि इंसान क्यों भाग रहा है, कुछ होश है उस मादरजात को..?
‘अदालत की कार्यवाही शुरू की जाये.’ — शेर ने हुकुम दिया |
कुकुर मियां प्रतिवादी की ओर से अपना, मतलब बचाव पक्ष से दलील करेंगे, और सदियों पुराने कछुआ महाराज, वेद- पुराण ज्ञानी, आप मानव के विरुद्ध वाद/ पेटिशन दायर करेंगे और मुक़ददमे कि प्रक्रिया पूरी करेंगे. जनता को भी अपना ओपिनियन रखने का अधिकार है | ये अदालत जनअदालत है, न्याय से बढ़कर दूसरा धर्म नहीं|
शेर ने हुक्म सुनाया |
गवाह बकबंदर हाज़िर हो…, गवाह भूल-भुल्लैया हाज़िर हो…, गवाह हलवाचोर हाज़िर हो…, गवाह भालू भगन्दर, गवाह नामकीनबाई हाज़िर- नाज़ीर हो…, सारे रसीले- रसीलिया हाज़िर हों… , आरोपी इन्सान कैद में बा-क़ायदा गड्डे में हाज़िर है…
बन्दर ने न्यायधीश की कुर्सी पकड़ी | एक हाथ में हथोड़ा | उसके पीछे लगा गांधीजी की तस्वीर – सत्यमेव जयते ! यानी सत्य की ही जीत होती है | वादी कछुआ और प्रतिवादी कुकुर मोर्चे पर तैनात हुए | गवाहों को तैयार किया गया | फिर प्रश्न आया कि इन आरोपों को बतौर सबूत , यानि पुलिस रिपोर्ट कौन पेश करेगा ? कोई एक ही एजेंसी इस पे काम कर सकती थी, मगर यही तय हुआ कि इस प्रकरण में विवेचना अधिकारी हर वो प्राणी है, जिसने भी मानव के करतूतों को भोगा या देखा है | सभी को वाद प्रस्तुत करने का अधिकार होगा. या फिर, वे अपना कोई प्रितिनिधि चुन ले.
तो? कार्यवाही शुरू करें…., सबसे पहले किसकी रिपोर्ट पेश की जाये? तय हुआ की चूंकि इंसान अपनी संस्कृति- मर्यादा भूल गए है, मगर हम जानवर नहीं | सबसे पहले मिटटी में रेंगनेवाले छोटे से छोटे प्राणियों , केंचुए, जोंक, घोंघे को मौका दिए जाये | कमज़ोर और छोटे प्राणियों की सुनता कौन है| जब मानव ही इस संस्कार को भूल गया, मगर सच तो सच है | वह परित्यक्त है, हाशिये पर है इसका ये मतलब नहीं की वो नगण्य हो गया है | याद कीजिये महाभारत के पांडवो को, जब भी विचार – विमर्श होता सबसे पहले या तो द्रौपदी को बोलने का अधिकार दिए जाता जाता था फिर सबसे छोटे भाई सहदेव को| युदिष्ठिर सबसे अंत में अपना मत अभिव्यक्त करते ! यही तो सच्चा जनमत है, प्रजा का तंत्र है! तो केंचुए , घोंघे ….कृपया आगे आइये और अपनी गवाही दीजिये |
केंचुए ने पहले आंसू गिराया | घोंघा घे- घे किआ| अदालत ने फटकार लगाई, हमे पता है, तुम्हे बहुत भुगतना पड़ा है , मानवीय कर्मो से, मगर यह अदालत है, न्याय की पीठ ! रोना धोना बंद करो और अपनी बात बतौर साक्षः पेश करो | लूलू लोमड़ी आप समस्त बयान, साक्षय और बहस मुबाहिसों को अभिलिखित करेंगी |
‘जी हुज़ूर ..!’- लूलू लोमड़ी ने सर झुकाया | कलम – दवात और कागज़ लेकर बैठ गई |
मैं घोंघा और मैं केंचुआ …..रूबरू गवाहान बाकायदा यह बयान अपने होशो हवाश में अभिलेखित करता हूँ कि मानव जब से प्रगतिशील हुआ है, जब से विज्ञान इसके सर पर हावी होता गया है , जब से यह आधुनिक और उत्तर आधुनिक बनता गया है, तब से हमारी दुर्गति बढ़ती जा रही है | हमे बचाये प्रभु!
अदालत की कार्यवाही प्रारम्भ हो चुकी थी | सब बड़े ध्यान से बातें सुन रहे थे |
किसी को कुछ कहना है, याद रहे, यह जनता की अदालत है| सबको बारी-बारी से सुना जायेगा|
केंचुए – घोंघे के समर्थन में चूहा उठा और इस बयान के समर्थन में कहने लगा – सौ फिसदी सही मेरी जान…! अपुन सपोर्ट करता है| साला मेरा भोजन भी ख़राब हो गया| अब वो टेस्ट नहीं रहा … सालो ने रसायन की झाड़ियां लगा दी है, देखिये मैंने जीवन में शराब की एक बूँद नहीं पी, मगर मेरा लिवर ख़राब हो चला! कब तक इन कंटामिनटेड फसलों और पानी को पचाता रहूँ !
घोडा भी उठकर हिनहिनाया – प्रस्तुत है एक रिपोर्ट- हम सब जानते हैं कि मानव विकास और पर्यावरण आपस में जुड़े हुए हैं , मगर मानव विकास प्रकृति की सम्पन्नता पर निर्भर है, न कि प्रकृति को नस्ट कर. मालूम है आज विश्व की अर्थव्यवस्था में १.२ अरब नौकरियां सीधे प्रकृति से जुडी हैं | धरती को बचाना कोई एक इकाई या चंद सेंटीमीटर का काम नहीं. इसे मिटटी , जल ,पौधा , वायु, जानवर, मानव , हर स्तर पर केंद्रित करना होगा | तभी कुछ सकारात्मक संभव हो पायेगा| कौवे , गौरैया , एवं अन्य पक्षी एक स्वर में कहने लगे – हमें कौन भोजन देता है, ये मिटटी, पौधे….फल ,फूल, मिटटी के हज़ारो बैक्टीरिया , इत्यादि …, हम अपना दाना -पानी वही ढूंढते हैं| हम कहां जाये जब मिटटी-पानी ही दूषित और अनुत्पादक हो चला |
ऊंट उठ खड़ा हुआ और कहने लगे – ‘अरे श्रीमान! जब पौधे नहीं, मिटटी में घास- फूस नहीं, जीवाणु नहीं, तो बहता जल जायेगा कहां| जल तो सरपट सतह से भागकर बह जाता है | पेड़- पौधे हों तो उन्हें रोके और जलस्तर सुधरे | यहाँ तो तकनीक है, जहाँ ५ फ़ीट पर पानी का स्रोत मिला करता था, अब ५० फ़ीट में भी नसीब नहीं! कहीं – कहीं तो ५० फ़ीट तक जलदेव का पता- अता नहीं| उफ़! न जाने क्या हो… सोचकर ही मेरी बीपी बढ़ गई…. मैं ठहरा पहले से कमज़ोर दिलवाला…!’
प्रश्न ये भी है – जिराफ ने अपनी गर्दन ऊपर की – ‘कि क्या प्रकृति स्वयं है| और यदि ये स्वयं है यानि यह अपनी देख – रेख स्वयं कर सकती है तो किस हद तक? ये मानव तो उसकी माँ-बहन एक करते जा रहा है , ऐसे में प्रकृति के स्वयंभू रह पाने की कहां गुंजायश ?’
‘बजा फ़रमाया’ | – इस बार गधा ढेंचूआ रहा था – ‘ये साले इंसान अपनी इकॉनामी को बचाने के लिए रात दिन एक किये है, मगर परिस्थितिकी नहीं | उलटे इकॉसिस्टम का सब ले लिया बहनचोदों ने!’
‘ये लो! एकदम सही !’ – घोड़े ने समर्थन किया – ‘अजी ये चाहते हैं की शीशे की दिवार खड़ी कर दें , हाथों हाथ कार बेच दे , अन्न बिना रसायन उगे नहीं ….,नदिया , पोखर , तालाब , कुए बचा नहीं पा रहे रहे हैं , बाँध बनाये जा रहे हैं – मगर ये सब किसके लिए …… भैणदे पुड्डी….?
‘प्रकृति की ऒर लौटकर सरल जीवन बिताने के बजाय …..उसी को नष्ट करना चाहते हैं|’ – ऊंट
‘कुछ तो ऐसे चोदू हैं कि भैण दे लौड़े स्पेस ट्रेवल के ख्वाब देखने लगे हैं | चाँद ऒर मंगल तो दूर नहीं रहा!’ – हाथी ने भी अपनी सूंढ़ उठाई | फिर तो चिंपांज़ी, चीता, बन्दर, भेड़, गिरगिट .और छिपकली और जिराफ और बाघ और बकरी , सब के सब उठ खड़े हुए |
‘हज़ारो सालों से हम पृथ्वी पर रहते आ रहे हैं, मगर पिछले ५० साल में जो वैज्ञानिक पुरुष ने काम किया है, वैसा सत्यानाशी मनुष्य इस धरती पर कभी नहीं हुआ |’
‘अब देखिये , ईधन की समस्या ….., महंगाई …., जलवायु परिवर्तन …… सब सामने उठ खड़े हुए हैं , सुरसा का मुँह अब भूखा नहीं है , वह बढ़ता और मुँह फाड़ता मुँह सवालों का है….,और स्वार्थी इंसान है कि बरोबर …. कान में तेल डाले … सालों को पता नहीं कि ये सिर्फ कोई सवाल नहीं , उनका अस्तित्व मिटाने वाली हकीकत है|’ – दूसरा
‘ताश के महल है इनकी दुनिया, चंद लालचियों का चोर- बाजार …… सट्टेबाज़ों की दुनिया…..क्रिप्टो मैंन… मादरचोद …!!!
‘माननीय न्यायाधीश महोदय ! आपके समक्ष समस्त गवाहों के बीच ये कहना चाहूंगा कि क्या एक करेंसी जो कि अमेरिकन डॉलर है, पूरी दुनिया ( लगभग ९०% व्यापार, कर्ज इत्यादि लेन- देन) पर छाया हुआ है, क्या इस करेंसी प्रणाली को चावल, धान और गेहूँ की बालियों में किसानो के ऋण, उनकी आशाएं, फटे पाँव, उनकी रात की नींद और दिन के स्वपन, धुप और पसीने, परिश्र्म और त्याग, भूखे पेट का श्रम , भूख और प्यास का मूल्य है कुछ …? ये कैसी दुनिया है जो ८० प्रतिशत श्रम के मूल्य को पहचानती तक नहीं, मानव को मानव स्वीकार ही नहीं करती, हां, उनके छोटे से जेब में मोबाइल, वीडियो, टीवी, कंप्यूटर थमा कर हर पल उनका जेब काट रही है | उनके साधनों पर ऐशगाह खड़ी होनेवाली यह अति आधुनिक सभ्यता , वास्तव में कब्र के ऊपर कैबरे संस्कृति की दुहाई देती है ….. छी: …., मुझे तो सोचते हुए घिन आ रही है…|’ – बैल ने गहरी आवाज़ में अपने कथन प्रस्तुत किये |
‘छी : छी : ! मुझे तो सुनकर ही उलटी आ रही है…, सवेरे कितना बढ़िया नाश्ता लिया है हमने|’ – एक लोमड़ी बोली|
‘आक थू…..,थू ..थू … है रे इन्सान!’ – बकरे ने खखारा!
‘जीविका और जीवन ! मानों मनुष्य इस आदर्श को भूल ही गया है| वे भी क्या दिन थे जब मेरे दादा-बाबा इंसानों के साथ मिलकर रोजी कमाया करते थे | हम मानव के आदि मित्र थे| सहचर| उनकी संपत्ति भी और परिवार के सदस्य भी | आज मानव का जीवन मॉल , सट्टा, सेंसेक्स , पब और कैबरे में सिमट गया है |’ – कुत्ता रोते हुए भोंका.
‘दुःख इस बात का नहीं, दुःख और आश्चर्य इस बात का है कि इंसानों को अपनी गुलामी का अहसास नहीं| कमरे में कैद मानव खुश है| वह संम्पन्न है| उसे कोई कमी नहीं|’ – गिरगिट ने गर्दन उठाकर अपनी बात कही |
‘ मनुष्य दोराहे पर नहीं , चौराहे पर खड़ा है | समुद्र की सीमा घटाकर जमीं आबाद करे , ईधन निकाले , जंगल काटे या आबाद करे, जाए तो जाए कहां, प्रकृति ने अपना गुस्सा दिखाना शुरू कर दिया है, गैस, कोयला, तेल, और इधर बढ़ता कार्बन…! वित्तीय नीतियां तेल बेचने गयी , फ़ेडरल रिज़र्व ब्याज बढ़ाता है तो मार्किट ढीला पड़ जाता है, यानी कम उत्पादन,यानि लो अर्थव्यवस्था…..जिस अर्थव्यवस्था पर इन् अमीरों को इतना घमंड है, उसकी नसें ढीली पड़ती जा रही है| मनुष्य ….चोदू साला….फिर भी सवाल नहीं करता….गुलामो का सम्राट !’ – हाथी ने सूड़ हिलाया |
‘ भालू आया भालू आया , डुग – डुग – डुग- डुग डुगडुगाड़िया बजाया….|’ – एक नौजवान भालू समूह से निकलकर जज साहब के सामने उपस्थित हुआ – ‘माननीय न्यायालय महोदय ! मै सबसे सुन्दर और चिकना भालू बा, नौजवान बा, मुझे भी कुछ कहना बा, इजाजत दी जाये बा |’
‘इजाजत दी जाती है |’ – न्यायाधीश महोदय ने कहा – ‘शायद आप न्यायालय की कार्यवाही में प्रारम्भ से उपस्थित नहीं थे, वरना आपको, अपना अभिमत रखने के लिए मेरे आदेश की आवश्यकता नहीं थी|’
‘ये महान गरिमा बा इस न्याय परिसर की …!’ – नौजवान भालू विनम्रता से झुक गया!
‘कहिये | प्रोसीड..|’ – बन्दर न्यायाधीश ने चश्मा लगाया , और स्टेनो राइटर लोमड़ी की ओर इशारा किया – आगे बढे..?
लोमड़िया ने अंगड़ाई ली! अपनी ऊँगली चटकाई | कहने लगी – ‘हुज़ूर…! वैसे तो मेरी उंगलियां और कमर थक गयी है, पर मुश्किलें ये है कि हमारे कलम की स्याही खत्म हो चली…!’ – लोमड़ी इतना कह अपना कमर सीधी करने लगी | जुल्फों पे हाथ फेरा | लिपस्टिक से होठ लाल किये|
‘हँ…..|’ – न्यायाधीश महोदय ने हुक्म दिया , शेर की ओर देखा | शेर ने हाथी की ओर | हाथी ने अपना हाथ उठा लिया, अब हम मानव के मित्र नहीं| घोड़ों और बकरियों को पता है कि गेर की मिटटी कहां मिलेंगे , जिससे लेखन कार्य किया जा सके | बसंत दूर था , पलाश के फूल उगे नहीं थे , तकनीक पर मानवों का अधिकार था, पर मानव तो मशीन हो चला था , लेखनी और स्याही और कागज़ से उसका नाता खतम था| यह बात कुकुरों ने बताया, जिसे मानव के घर में जगह तो थी, पर उनके दिलों में नहीं |
‘हूँ…|’ – न्यायाधीश महोदय का चेहरा गंभीर हो चला | मुद्रा चिंतनीय | फिर उन्होंने वादी अभिभाषक श्रीमान कछुआ की तरफ प्रश्न भरी निगाहों से देखा |
‘इजाजत हो तो कुछ अर्ज़ करू…?’ – उन्होंने कहा |
‘प्लीज़ …!’ – न्यायाधीश महोदय ने इशारा किया, ‘कहिये…प्रोसीड..|’
‘क्यों न हम वेदो की और लौट चले..|’ – कछुआ महोदय ने अपना प्रस्ताव रखा.
‘मतलब ?!’ – चारो और से मानो सवाल उठ खड़े हुए |
‘मतलब ये कि …., आगे उन्होंने कहा, ‘अब हम तथ्यों को सिर्फ लेखबद्ध या अभिलिखित ही नहीं करेंगे , बल्कि तथ्यों के सहारे सत्य तक पहुंचेंगे ,यानी हम सारी बातों को अपना उपनिवेश बनाएंगे, अर्थात अपने भीतर एक तथ्यों , सत्यो की बस्ती ! उसे ही वेदांत या उपनिषद कहा गया है | अर्थात अपने कक्ष में, अपने पास बैठना | अपने भीतर| अपने गुरु के पास शिष्य बनकर | यानी अपनी आत्मा के करीब …. समस्त तथ्यों -तर्कों समीक्षाओं , दृष्टांतों ,उदाहरणों अपवादों, मान्यताओं ,सिद्धांतो ,नियमों , उपनियमों के रस्ते होते हुए सिर्फ सत्य तक ! सिर्फ एक सत्य | एक वचन | सत्य -जिसकी जीत असंदिग्ध है| जिसकी सत्ता स्वयंसिद्ध है| जिसे किसी विज्ञापन की आवश्यकता नहीं| जिस सत्य को किसी वकालत की आवश्यकता नहीं| जिस सत्य की सत्ता सर्वोपरि है| जिसकी सत्ता ही इस माननीय अदालत की गरिमा है| राजस का सर्वोच्च धर्म – सत्य की स्थापना | ना कि धर्म या संस्कारों की स्थापना | सत्य ही स्वयं है| सत्य ही शिव है और सुन्दर है| संपूर्ण ब्रम्हांड जिसपर स्थित है!’
‘अपने निकट जाना…उपनिषद् बसाना |’
वरिष्ठ अभिभाषक और इस प्रकरण में वादी अभिभाषक कछुआ महोदय की बात से ख़ामोशी छा गयी | प्रतीत हुआ जैसे सत्य स्वयं ही प्रगट हो उठा था| पेड़ों के पत्ते , झुका हुआ पहाड़, लम्बे घने वृक्ष और ऊँचे ऊँचे ताड़ के पेड़ , सब के सब सत्य -कथन सुन खामोश हो चले थे | सारे जानवर और पक्षी खामोश|
कितनी गहरी बात निकलकर आई थी, जिस कला को मानव भूल चुका है, उसे पशु-पक्षियों द्वारा स्मरण कराया जा रहा है| ये मादरजात तो उपनिवेश बसाने का मतलब ही बदल डाले| गुलाम बनाओ उनकी संपत्ति और स्वतंत्रता हड़प लो…यही मायने रह गया है उपनिवेश का| जबकि हमारे वेद और उपनिषद धरे रह गए हैं | सच हाशिये पर , झुठ का महल जिंदाबाद!
सच कोई अभिलिखित करने की चीज़ तो है नहीं , सच तो जीने की चीज़ है| हमारे अस्तित्व का आधार …., मगर हमारी सभ्यता सच को प्रकाशनों में ढूंढती है, पेंगुइन ,मैकमिलन ….पनमेरिका…अरबो…- खरबो शब्दों के अम्बार …., इनका सच डॉलर का..! ये है आधुनिक सभयता का चेहरा ….खनकते सिक्के..!
जज साहब ने अभिभाषक कछुए की बात को स्वीकार किया और कहा – ‘सच’ यदि हमारे दिलो दिमाग पर राज नहीं करता तो वह हमारी भूल होगी , सच की नहीं | जो स्वतः सिद्ध है, उसे सिद्ध करने की आवश्यकता ही नहीं | और उसकी सत्ता स्वाभिक है, जिसकी जगह है हमारे दिलो में ….न कि थोक पुस्तकों में या लायब्रारियों में !’
‘कार्यवाही आगे बढ़ाई जाये,आगे कोई लेखन या अपलेखन की जरुरत नहीं | यदि सत्याग्रह का भाव नहीं तो लाखों लाइब्ररिया बेकार हैं| प्लीज ,प्रोसीड ..! ‘ – न्यायाधीश महोदय ने इशारा किया.
फिर तो बहस -मुबाहिशों का वो दौर चला की बंद होने का नाम न ले! पक्ष- विपक्ष ,वादी-प्रतिवादी और जिरह , बयां कथन , तथ्यों और साक्षियों , गवाहों का सिलसिला थमने का नाम नहीं ले रही थीं |
इधर – मानव झुले पे आराम कुर्सी की तरह बड़े ठाट में कान में थोपा पहने पॉप – म्यूजिक का स्वाद मार रहा था| भूख लगती तो अपनी जुबान निकाल लेता – शहद की बूंदे टपक पड़ती | बेगैरत प्राणी …!
इधर, उसी मानव पर हज़ारों सवाल पर सवाल दागे जा रहे थे ,मगर उन सवालों का एक ही जवाब था इस लोमड़ी की औलाद का – चुप्पी ! ये वो चुप्पी नहीं थी कि हज़ार सवालों पे वो चुप रहे कि सवालों की आबरू बची रहे, नहीं ये सवालों के आबरू बचानेवाली चुप्पी नहीं थी! ये चुप्पी शर्मनाक थी…, बे -गैरत हरकतों की ख़ामोशी , असत्य का जश्न जीनेवाली ख़ामोशी , सम्पूर्णः सृष्टि का विनाश करने वाली चुप्पी थी| बस एक चीज़ कहीं नहीं थी , वह थी इनकी आबरू ! बेशर्म औलादों ने शर्म को भी शर्मसार किया! निरीह प्राणियों को मारा ही नहीं उनके कब्र पर जश्न भी मनाया | उनकी हड्डियां , खून और मांस तक बेच डाले| जानवरों की अंतड़ियों को निकालकर पैकेटबंद किया और भरे बाजार में बेच डाला !
न जाने कब तक भरी सभा में द्रौपदी बेआबरू होती रहेगी | चीरहरण जारी है ! सभाये मौन! बेशर्मो की आंखें फटी- फटी खनकती थी, सामर्थ गुलाम बना लिए गए थे, जो स्वतंत्र हो सकते थे उन्हें नमक के भाव ने खरीद लिया था| सच ने नहीं, सत्ता ने पितामहों और द्रोनों को बाँध लिया था|
यही मानुष है,अपने घर की लक्ष्मी को नंगा करनेवाला!
हे मानव! तू अपना कुरुक्षेत्र स्वयं ही बुलाता है! तू अपनी स्त्रियों को बेवा स्वयं ही बनाता है! तू अपनी ख़ुशी स्वयं ही अपने हाथों घोटता है | तू स्वयं ही अपनी कबरगाह खोद डालता है | हे मानुष ! तू स्वयं ही हंता है! तू सचमुच का व्यभिचारी है, तुझे शाप मिलनी चाहिए कि तू किसी सर्पिणी के गर्भ से जन्म ले, ताकि वह भूखी स्वयं के अंडे खा जाए …, क्यूंकि तू वही है | इसलिए यही तेरी नियति हो| तू जो है, तू वही प्राप्त करे ! यह अटल है, तू जायेगा उसी माँ के पेट में जिससे तू निकला है| ताकि तू वहाँ अपना वास्तविक खाता- बही देख सके!
समय बदला ! ऋतू चक्र अपने पहिये पे बराबर घूम रहा था, मानवो के करतूत ने कहीं बाढ़ लाइ तो कही सूखा | पृथ्वी में सूखा विस्तृत् हुआ| कहीं खूब ठण्ड तो कही भीषण गर्मी | हीट वेव बसंत में ही चलने लगे! गर्मी में अनावश्यक वर्षा और वर्षा के समय सूखा | समुद्र बढ़ चले| समुद्री किनारे के शहर तबाह हो चले | बड़े-बड़े शहरों को दूर- दराज से पानी सप्लाई करना पड़ रहा था| वैसे हरियाली नगण्य हो चले जो जल पर आश्रित थे| क्षुद्र पौधों से थोड़ी हरियाली बची थी, मगर उनके अपने नफा-नुक्सान थे| अमीर देश बस तकनीक की दुहाई दे रहे थे! कोई अपनी सुविधा कार्बन-भोग- जीवन कम नहीं करना चाह रहा था | पशु-पक्षी जाते कहाँ , मनुष्य इनके इलाके तो पहले से कब्ज़ा जमा चुका था| अफ्रीकन, लैटिन अमेरिकन देश जंगलों का सफाया कर रही थी, पशुओं के लिए चारा तैयार कर रहे थे और उनका बीफ अमेरिकन खा रहे थे! मानो अमेरिकन और अमीर लोग साक्षात् मीट-बीफ नहीं जंगल ही खा रहे थे | कुए डकर रहे थे | बीमारियां चारो और फैली थी मगर अन्धो के लिए आँख क्या , बहरों के लिए कान क्या…,शर्म बेच खाया मनुष्य स्पेस में अपना भविष्य तलाश रहा था|
ऐसी तकनीक खोजे जा रहे थे जिनसे ५०० हज़ार सालों तक स्पेस में गुब्बारे सैर करते फिरेंगे और ‘कुछ चुनिंदे अमीरज़ादे अपनी सुविधाओं के साथ अपना भोग विलास और गडमस्ती पैंट खोलो उतारो खेलेंगे! अंधे!
हालंकि असलियत मानव की नियति उस कुए में फंसे , झूल रहे मानव की तरह थी, जिसपर सिर्फ इल्जाम लगाए जा रहे थे , और जिसके प्रति उस हरामखोर ने शर्मिंदगी भरी चुप्पी साध ली थी|
‘वस्ले-कुल है सजा है मैखाना…चल मेरे दिल खुला है मैखाना…..|’ – अचानक इस अनंत सी दिखती वाद- प्रतिवाद के बीच गधे श्रीमान शेरा – शायरी फरमाने लगे|
‘अबे ! क्या हुआ इसे…!’ – सभी भौचक्क थे!
ज़नाब गधा इत्मीनान में था, बड़ी खुशफहमी सा ख्याल था शायद उनके पास, मुश्किलों से मिला है मयखाना, कैसे छोड़ दू मयखाना…!
जब शेर को नागवार गुजरने लगा तो कड़क आवाज़ में बोले – ‘अबे ये क्या है.., हैं …! होश में तो हो पापे…!’
गधे ने खूब कहा – ‘ जी! बा- होश हूँ , बेहोश तो तब था…|’
‘अबे खुलकर कह, पहेलियाँ न बुझा ….|’ – चीते ने दांत दिखाया |
‘साकी पीला दे….पीला दे….उनकी आँखों को देखा और शराब पीनी सीख ली ….|’ – गधे को खुमारी चढ़ी थी|
‘तू चुप बैठता है के एक ढाई किलो वाला लगाऊ….!’- भालू भगन्दर ने अपना भारी-भरकम मुक्का दिखाया |
गधे ने जवाब दिया – ‘ इस दिल में अभी और भी ज़ख्मों की जगह है…|’
चारो ऒर से ठहाके लगने लगे | क्या बात, क्या बात ,गधे मियां को ज़रूर सुरूर चढ़ गया है|
‘वस्ले कुल है सजा है मैखाना ,
चल मेरे दिल खुला है मैखाना |’
थोड़ी देर क लिए लोग भूल गए कि यहाँ अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ी जा रही थी| अचानक गधे की शायरी ने तो मिज़ाज़ ही बदल दिया | आँखों से शराब छलकने लगे , इश्क़ के तूफां को बाहों में जकड़ने की ख्वाइश होने लगी| सुनाई देने लगी वो धड़कनें कि हमारा दिल है या तुम्हारा …., तुम मेरे पास होते तो कोई दूसरा नहीं होता…., दिल है कि ढूंढने लगा फुर्सत के रात-दिन..!
सभी खो गए ..! वाह….! क्या आवाज़ ! क्या लफ्ज़! क्या कशिश हैं इन शब्दों में…! नूरे -यार का दीदार हुआ दिल और भी शराब का तलबगार हुआ| ज्यों- ज्यों शराब भीतर उतरने लगी , चारो ओर की दुनिया ओझल होती गयी..!
सबके होश खो गए | सब नशे में! गधे ने जाने कैसी तान छेड़ी कि जंग की अदालत शायरों के मुशायरे और मस्तीखोरों के मयखाने ,वस्ले – जहान , वस्ले मेहबूब और न जाने क्या क्या हो गया!
सब के सब सो गए ,लगभग बेहोश , तभी न्यायाधीश महोदय ने हरकत की, आर्डर आर्डर ….! जाग…..जाग….जाग दर्दे – इश्क़ जाग..! दिल को यूँ न बेक़रार कर जाग! जाग!
सब जग पड़े |
हैं ….!
हैं …! ई का हो गया था हमरा मथवा कहाँ घूम गया था’ – बकरे ने आश्चर्य किया|
‘तुमको इश्क़ हो गया था!’ – भालू ने समझाया |
‘का बकते हो… हम तो खाली खाते खुजाते और बत्ती बुझाते हैं , औरो कुछ आता ही नहीं ..|’ – बकरा
‘चुप करो ….जो हुआ अच्छा हुआ|’ – हाथी ब्रो ने कहा , ‘दर्दे इश्क़ को ज़िंदा रखो मगर पहले जंग-इ-इश्क़ ..! समझे..?
‘अरे हां..| पहले दिल की आग फिर दिल का सुकून …| – बिल्ली बोली|
‘गधे भाई वन्स मोर ,वो मयखाना वाला शेर …. खुला है मैखाना , सजा है मयखाना …चल मेरे दिल..|’ – लोमड़ी अपनी झुल्फे लटकाते हुए बड़ी नज़ाकत से फरमाइश की |
‘खामोश ..!’ – भैंसे ने चेतावनी दी|
‘ कौवा गांड का मलाई खा गया और तुम्हे पता नहीं … संभल जाओ ,यह न्यायपीठ है|’ – ऊंट ने फटकार लगाईं |
‘आर्डर…..आर्डर..! – जज साहब ने कहा – ‘ हम देख चुके कि मैदाने जंग में मैदाने इश्क़ की फितरत बड़ी हसीं होती है| जब चीज़ें दुर्लभ हो उसकी ख्वाइशें भी उतनी ही सघन और शिद्दत सी हो जाती है, इसलिए जंग पर अड़े हुए सिपाही अपनी मेहबूबा को बड़े गहरे से याद करते हैं |
न जाने मौत कब आ जाये ,जी ले, चंद पल सुकून -इश्क़ के| खो जा अपने मेहबूब में| परन्तु..|’ – जज महोदय ने आगे कहा – ‘इश्क़ हमें कमज़ोर नहीं मजबूत रखे…, ताकि हम जोशो -खरोश से जीवन-लड़ाई लड़ सकें | खो न जाएँ …..
सिर्फ फूलों की खुश्बूं और गुलदस्तों का प्यार हमारी सोच , हमारी शायरी में न हो| हमारी कविता हो इश्क़ का चेहरा शीतल जो जीवन के संग्राम में आग पैदा कर दे | एक चिंगारी ,जो जंगल ख़ाक कर दे| वरना कविता फूलों की, गुलदस्तों की खुशबुओं की डिक्शनरी बनकर रह जाएगी |
इसमें कोई शक नहीं कि कुछ लालचियों को छोड़कर मानव फ्रेंड्बूक और व्हाट्सप्प की कृतिम खुशबू (बदबू) में खो सा गया है| बेहोश है| खुमारी में है| जो स्वयं उठ नहीं सकता वो क्या जग को उठाएगा |
ताश के महल लुभावने हैं , मगर याद रहे ,वो हमारा मयखना नहीं| हमारा कब्र है वह! हम सब की मौत?
गधे मियां ने चंद शायरी कर यह बता दिया कि कविता और शायरी जहां हमें जगा सकती है, हमें सुला भी सकती है | यह क्रन्तिकारी हो सकती है और प्रति-क्रन्तिकारी भी| इसलिए सावधान !
अब वक़्त आ गया है फैसले का….! यह जन अदालत है, आप सब अपने-अपने फैसले सुनाये ! हम सभी के विचार सुनकर ही अंतिम निर्णय देंगे|’
जज साहब ने अपनी बात ख़तम की|
सभी पशु-पक्षियों के बीच काना -फुसी होने लगी |
हाथी ने एक सवाल किया, हुज़ूर – इज़ाज़त हो तो कुछ अर्ज़ करू..!
‘इजाजत है|’
‘हुज़ूर..! इस बहस – मुबाहिशों में मानव पक्ष के पक्षकार कुकुर महाराज ने तो अपना प्रतिवाद रखा ही नहीं| हुज़ूर यह कैसा न्याय…, आरोपी चाहे जितना भी घिनौना और शर्मसार हो, उसका पक्ष तो सुनना ही होगा |’
‘हूँ…! बिलकुल सही ..|’ – जज साहब ने कहा | प्रतिवादी पक्षकार कुकुर मियां की ओर इशारा किया – ‘कहिये …आपको क्या कहना है …|’
‘हुज़ूर…|’ – कुकुर मियां ने उत्तर दिया – ‘ देखिये जनाब! हमारा मानव आज भी अपने ऊपर लगाए समस्त आरोपों से बेखबर अपनी आंखे बंद किये, कान में ठोपा लगाए अपनी मस्ती में बेहोश है| आखिर मै कैसे उसकी वकालत करूँ …, उसके पास तो सिर्फ एक ही तर्क है – मानव की तरक्की ! वह प्रगति पथ पर है| बस, मुझे तो इतना ही पता है| और पता है उसके संगीत की दुनिया – भीगे होंठ तेरे सूखा दिल मेरा…. मेरे साथ कभी रात गुजार… पलंग पे ..! देखिये, क्या आलम है…., साले को कोई खबर तक नहीं…!’
‘हूँ …|’ – बहुत सही कहा | मगर हम तो फैसला सुनाएंगे | हम अपने कर्तव्य से पीछे नहीं हट सकते | आखिर ये दुनिया मानवों की नहीं हम सब की है| प्रोसीड…!’ जज साहब ने हुकुम किया. जंगल में फिर से काना फुसी प्रारम्भ हो गई|
जब सबने खूब मशविरा कर लिया और अपने-अपने तर्कों के साथ अपना अभिमत और फैसला जज साहब के समक्ष रखा | जज साहब ये देखकर हैरान थे कि जंगल के राजा अब भी इंसान के भेजे में दिलचस्पी रखे थे, शाही कुक भालू भोंकवा से फ्राई और रोस्टेड में भेजे का नाश्ता |
वैसे ही लोमड़ी और भेड़िये को मानव के हड्डी और उसके खून में दिलचस्पी थी| स्टेनो लोमड़ी तो उस चिकने के साथ डेटिंग पर जाने की ख्वाइश रखे थी | वही भैंस और बैल मानव से हल जुतवा कर नदी के रेत और पोखरों – तालाबों के गाद साफ़ कराने पर विचार कर रहे थे| पक्षियों की राय थी कि मानव से घास पैदा किये जाएँ और सुबह शाम वो पौधे को पानी पटाये|
विचार एक नहीं थे, हालाँकि सबकी अपनी -अपनी सच्चाई थी| हाथी- भाई मौन थे | सबके विचार जान लेने के बाद जज साहब ने हाथी से पूछा कि उनकी राय क्या है| हाथी के विचार में था कि कुछ भी फैसला करने के पहले अंतिम बयान के तौर पर आरोपी या कथित मुल्जिम मानव के कथन सुन लेनी चाहिए , यही सच्ची न्याय की प्रक्रिया है|
सही, बिलकुल सही! मानव की सुन ले , भले ही वह हम सबका स्वतः सिद्ध अपराधी था|
पर ,सवाल उठा कि मानव ने तो अपने आरोपों को सुना ही नहीं, उसके कान बंद है, गीले होंठ ,प्यासे दिलवाला गाना सुन रहे है, आँखे भी बंद | न सुनना न देखना..!
‘यह उसकी समस्या है…, उसका कथन तो लेना पड़ेगा |’
हाथी भाई ने सूंढ़ लम्बी की और लताओं समेत इंसान को ऊपर खाई से बाहर निकाल दिया |
जैसे ही मानव ऊपर सतह पर आया, सिपाही चिम्पांज़ी ने उसके कान में एक तगड़ा झन्नाटा दिया – मादरचोद …, तुझे फांसी हो रही है और तू है कि नीचे गांड शहद में डाले पड़ा है| ये ले….,और ले …. बीस साल का तजुर्बा है, बिहार का ठोला बा ,लाल टोपी…, गाड़ियों मारेंगे पैसो नहीं देंगे! भोसड़ी के नाती…
इंसान का वॉकमेन दूर जा गिरा….,उसने आंखे खोली .., सब देखा ,,, भय से कांपता …! कहाँ आ गया ..! सब के सब खूंखार … उसके खून के प्यासे ..! अब तो गया बचा जान..!
उसके भीगे होंठ , सारी भूख- प्यास और रात के पलंगवाले सपने टूट गए | जानवर , पशु-पक्षी, लताएं , पौधे ….. प्रकृति समग्र रूप से उसपर इस तरह हमला कर सकती थी, ऐसा उसने सोचा भी नहीं था |
प्रतिवादी पक्ष यानी मानव पक्ष की ओर से वकालत कर रहा कुकुर ने संछेप में उसके विरुद्ध अब तक लगाए अभियोग पत्र पढ़ा | सुनाया | समझाया | फिर पूछा –
‘बताईये.., आप अपना पक्ष रखे , हे मानव !’
‘ इसे हे मानव! से सम्बोधित न करें, ये हमारा, इस प्लेनेट का सबसे हार्ड कोर क्रिमिनल है…!’- वादी अभिभाषक कछुवा महाराज ने आपत्ति की.
‘जी, क्षमा चाहता हूँ…’ – कुकुर जी ने खेद व्यक्त किया.
‘बताइये …’- वादी पक्ष की ओर से श्रीमान कछुआ ने पूछा – ‘आप किस तरह उस नष्ट होती धरती को बचाएंगे …?’
मानव पहले तो खखारा | थूका | फिर थूक घोंटा | अब उसका दिल प्यासा नहीं, चूतिये का गला प्यासा और सूखा था | हलक में हलचल लाने का प्रयास किया –
‘हुज़ूर …, अर्ज ये है कि ये तो सब हमारी अति आधुनिक, उत्तर आधुनिकता है| मानवों ने सर्च कर लिया है, मेरा मतलब रिसर्च की कि इस धरती को बस गन ही बचा सकते हैं, ना की तिनका | क्यूंकि गनों के साथ गोलियां होती हैं, गनों को विभिन्न तरीके से बनाया जाता है, अंततः बारूद और बुलेट संस्कृति हमारे जीडीपी को नयी ऊंचाई देंगे | गनें एक दूसरे पर चलेगी , मौते होंगी , कब्रगाह आबाद होंगे , कफ़न के सौदे होंगे , ज़मीन महँगी …. इस तरह एक नयी क्रन्तिकारी अर्थव्यवस्था हमारी हर मुश्किल हल कर देगी |
ज़मीन के नीचे क़ब्रें होंगी , ऊपर हाईवे और हाईवे के ऊपर ऐशगाह …! मनुष्य इस संस्कृति से ज़मीन पर नहीं , आस्मां पर जीना सीख लेगा |
वाह …! मरहबा…! क्या खूब …! माशI अल्ला…! खुदा कसम ..! लूट लिए यार ..! मार डाला …! ले लिया सस्ते में माल रस्ते का..! जीउ……जीउ ….. छा गए …! जाओ बढ़ा के… खाओ खईनी ठोंक के ..!
चारों ओर से सदाएं उठने लगी| सब हतप्रद थे| जज साहब के साथ – साथ सभी गश खाकर औंधे मुँह गिर रहे थे | गधे राम तो पीठ के बल लोटपोट हो रहे थे | मानव के इस बयान को सुनकर कोई लोटपोट हो रहा था, कोई रो रहा था , कोई कहीं गुम हो रहा था, तो कोई बेहोश..!
मानुष के इस अत्याधुनिक विचार ने सबका मन मोह लिया था | लोमड़ी तो उसके गले से जा लिपटी …!
निर्णय? फैसला?
न्यायाधीश महोदय ऐसे मोड़ पर खड़े थे जहां दो-राह नहीं, ति-राह नहीं ,चौ-राह नहीं, न जाने कितनी राहें उन्हें दिखने लगी थी|
अनिर्णय की स्तिथि थी| जिस मानव को इस प्लेनेट को बचाना था, वो तो सत्यानाशी था! निर्णय हो तो भी क्या हो…|
तभी सांप भी अंधे कूप से बाहर आ गया | ‘श्रीमान’ ! उसने जजसाहब से कहा – ‘मैं सारी कार्यवाही का साक्षी हूँ, मैं सब कुछ देख रहा हूँ | कुछ अर्ज़ करना चाहता हूँ …?
‘अवश्य’ …! अवश्य..!’ – जज साहब ने कहा – ‘समस्त कार्यवाही में आपकी ओर से या आपकी प्रजाति की ओर से एक भी बयान नहीं दर्ज किये गए हैं | प्लीज… कहिये…|’
‘श्रीमान!’ – सर्प ने अपना फन उठाया – ‘वैसे तो सनातन से हम और हमारी प्रजाति न सिर्फ मानवों की बल्कि अधिकांश जीवों के प्रति शत्रुतापूर्ण व्यव्हार रहा है| हम ऐसे प्राणी हैं जिसका इस जगत में कोई मित्र नहीं , बस, एक शिव का आश्रय है , जिनके लिय विष क्या और अमृत क्या| खैर …, मैं ये कह रहा था कि आज से ये सिद्ध हुआ है कि मैं या मेरी प्रजाति नहीं , ये मानव इस जगत के साथ-साथ खुद का भी घोर शत्रु है| आज यह सिद्ध हो गया |’
‘आप कहना क्या चाहते है..?’ – जज साहब ने टोका|
‘ हुज़ूर …, अर्ज़ है के इस मानव के मस्तिष्क में जहाँ मणि होनी चाहिए वहां मवाद भर गया है|’ – सांप
‘ तो …, इसमें हम क्या कर सकते हैं , यही तो रोना है…|’ – कछुआ ने अपनी स्तिथि स्पष्ट की |
‘तो, मैं सोचता हूँ अपनी मणि इसके हवाले कर दूँ , ताकि यह ठीक-ठीक सोच सके | ठीक-ठीक देख सके | ठीक-ठीक सुन सके | अपने पाँव से सही रास्ते चल सके…|’
‘बहुत खूब …. विचार अच्छा है…!’ – किसी ने कहा |
‘इसके मवाद का क्या होगा …?’- किसी ने प्रश्न किया|
‘मणि होगी तो मवाद नहीं और मवाद होगी तो मणि नहीं |’ – सांप ने स्पष्ट किया|
‘क्या यही इसका दंड है…!? – चारो ओर से एक सवाल उठा|
‘शायद हां…!’
‘तो क्या यही सबका फैसला है..?’
‘हां..,एक अवसर दिया जाये …|’
‘दिया जाये …. दिया जाये…!’ – चारो ओर से आवाज़ उठने लगी – ‘अवसर दिया जाय …!’
‘ जीवन प्रकाश है, मणि है , अँधेरा नहीं ..!
और फैसला हो गया!
मानव को कहा गया की वो सांप से मणि हासिल कर ले | सांप अपना मणि धरती पर रखकर दो कदम पीछे हट गया | मानव फिर भी मणि के पास जाने से डर रहा था|
‘घबराओ मत!’ ‘सांप ने कहा – ‘ मेरे मुँह में विष है मेरे दिल में नहीं!’
मानव डरते हुए ही सही , मणि हाथ में ले लिया |
धीरे-धीरे उसे सब कुछ समझ में आने लगा | उसके सामने कई-कई रास्ते थे , मगर जैसे-जैसे मणि का प्रभाव उसके मस्तिष्क पर होता गया उसके सामने से एक-एक कर रास्ते हटते गए| और अंत में सिर्फ एक रास्ता बचा , वह रास्ता था उसकी वापसी का!
वापसी उसके घर की ओर …!
वापसी उसकी मिटटी की ओर..|
वापसी जैसे श्री रामजी अयोध्या लौटे थे!
वापसी जैसे नचिकेता मृत्यु के देवता के दरबार से मुक्ति ज्ञान लेकर लौटा था…!
वापसी जैसे हनुमानजी संजीवनी लेकर लौटे थे…!
वापसी जैसे महावीर अपनी इन्द्रियों को जीतकर लौटे …!
वापसी जैसे गौतम ने की थी बुद्ध बनकर ….!
वह लौट रहा था| पीछे से आवाज़ आयी …. ठहर..!
ठहर जा..!
‘तुम कौन..?’ – मानव ने पूछा | मगर कोई चेहरा नज़र नहीं आया! फिर सुनाई पड़ा – ‘ठहर जा..! मैं फेसबुक, ट्विटर …. इंटरनेट…, ए-आई, सोशल मीडिया के रंगीन जंगल…! डिजिटल करेंसी….. डिजिटल अर्थव्यवस्था… एक रंगीन आभासी दुनिया…!’
‘मैं तो ठहर गया, मगर तू कब ठहेरगा, आभासी मानव ?
‘लो, मैं भी ठहर गया…|’ फिर मानव ने देखा , एक नहीं कई – कई चेहरे …,सबके सिर्फ चेहरे दिखते …. माथे से मवाद बहता|
‘ तुम कौन , अंगुलिमाल तो नहीं..|’ – मानव ने आश्चर्य से पूछा!
‘हां भी ओर नहीं भी…| पर, क़त्ल ही मेरा पेशा है|’
‘पर तुम हो कौन?’
अश्वसथामा .., मवाद से भरा अश्वसथामा …! मणि खोने की सजा आज भी भोग रहा हूँ |’
‘अपनी नियति स्वीकार करो …और वही ठहरो , जहाँ हो..|’ – मानव अब तक बुद्ध बन गया था|
मानव को प्रतीत हुआ उसके फैसले से सारे प्राणी झूमने नाचने लगे थे | धरती कांपने लगी थी | ज़ोर की आवाज़ आई – कब तक सोते रहोगे ? दिन चढ़ आया है …!
उसकी पत्नी उसे झकझोर रही थी – उठो जी, ऐ जी चाय तैयार है जी …|
उसकी आंख खुली | अरे वाह ! वह तो अपने घर, अपने ही बिस्तर पर मौजूद है | न जाने कबसे वो सोया पड़ा था – सदियां बीत गयी मानो! वो बिस्तर से उठा ! हाथ-मुँह धोया |
हाँ …! वो आज ही तो जगा है, आज ही तो वस्ल -ए- यार हुआ है, अब तक तो हिज़्र पर था|
वह अपने आप में कुछ बड़बड़ा रहा था |
बिलासपुर छ. ग.