डॉ. किशोर अग्रवाल की कविताएं

बहुत दिन बाद

गर्द धुंध व कोहरे की उदासी से निकल कर
धूप नीचे तक उतर पायी।
जो पेड़ कंबल सा ओढे़
उदास खड़े थे सप्ताह भर से,
हवा बहने के साथ
धूप से अठखेलियां सी करने लगे।
मन में आया काश इनसे बतियाता
इनकी भाषा समझ में आती तो मन की कह पाता
इनके दर्द महसूस लेता।
क्या इनमें भी दर्प, आत्माभिमान, ईर्ष्या
व एक दूसरे को नीचा दिखाने के भाव होते होंगे?
ये आज जो नाचते दिख रहे हैं
सचमुच खुश हैं क्या?
इन्हें भी खुशी तो होती होगी।
ये सूखी चिपकी टहनियां
हटा देने का मन करता तो होगा।
ये जड़ों में बनी दीमक की बांबियां
परेशान तो करती होंगी।
मन किया कि इनके उत्सव में शामिल हो जाऊं
“सुहाना सफर और ये मौसम हंसीं“
की तर्ज पर झूमूं इनके साथ।
आकाश को अपनी शाखों से थामें एक गर्वीले पेड़
से मैंने पूछा तुम इस कचनार के पेड़ से
इतने ऊंचे हो
तुममें घमंड तो आता होगा ?
फुदकती गिलहरी रुककर मुझपर हंसने लगी।
पेड़ पर चिपकी बोगनवीलिया के
सुर्ख लाल फूलों को हिलाकर लता ने पूछा
तुम्हंे लगता है क्या ऐसा?
हरी घास सरसराकर लहराई
अमलतास व आर्कीड खिलखिलाए
गुड़हल और हरसिंगार के पौधों ने
गलबहियां डाल ली।
ताड़ व बाटलपाम अकड़ कर और ऊंचे उठ गये।
मुझे लगा
मैं जानता तो हूं इनके मन की बात
समझता भी हूं
भाषा और क्या करती है?
बॉटल ब्रश के पेड़ की एक लता
मेरे माथे पर उतर आई।
मैं आंखे बंद कर बुद्ध हो गया ।

मार्कशीट

बहुत पहले की बात है
स्कूल की पढाई, फिर कालेज की
लगन से किया करते थे
रिजल्ट अच्छा ही आता था
फिर मिलती थी मार्कशीटें
कितना पढ़ना था? क्या पढ़े ?
प्राप्तांकों से हमारा मूल्यांकन हो जाता था।

प्लास्टिक की फाइलों में
साल दर साल संजोकर रखी हैं वे तरतीबवार।
जिंदगी साथ-साथ बीती साल दर साल
पर उस तरह संजोकर न रखी गई
बिखरी-बिखरी बेतरतीब बिखरी रही जिंदगी।
बीत ही गई आखिरकार।

नौकरी चाकरी में और
आगे की पढ़ाई के लिये,
खींच लेता था अपनी मार्कशीट फाइल में से
फोटोकॉपी कराकर अटेस्ट कराता फिर,
लगा लेता मार्कशीट वापस फाइल में
बार बार देखता संतोष करता प्राप्तांकों पर
कड़क रहती थीं मार्कशीट तब।

बहुत बरस बाद उस दिन
मार्कशीटों की फाइल हाथ में आ गई
अलमारियां साफ करते करते।
समय बहुत बीत गया था इन्हें देखे हुए
जरूरत ही न पड़ी कभी ।
अजीब पीली सी पड़ गई है फाइल ।
जिसे कवर बनाया था वह ही पीला पड़ गया
मार्कशीट बाहर को खींची तो बह बीच से दरक गई
बस वापस सरका दी।
कुछ कुछ वैसे ही हो जाते हैं हम भी,
पीले पीले उदास से।
लगातार समय का आघात सहते,
बरस दर बरस पुराने होते जाते हैं।
पता भी नहीं चलता और जिल्द बिगड़ जाती है
भुरभुरे हो जाते हैं हम बाहर से व भीतर से भी
जिंदगी के हासिल दर्ज रहते हैं हम पर
पर उसकी अहमियत बस फाइल में लगी रह जाती है।

गुनगुनी धूप

आज भी धुंध व बदली है
किसी भीगे दिन की याद आ बैठी है
जैसे पेड़ के घोंसले से
पंछी का पर हवा में तिरता,
धीरे धीरे कोमलता से आ टिके
शर्ट के कांधे पे।
ऐसे ही एक बेसुध से दिन में
जब करने को कुछ सूझता न था
छुटकी ने कंबल ओढ़कर लेटने की सलाह दी
सारे लोग कंबलों में आ छुपे,
झिझक के साथ तुम भी।
बातें चल पड़ी
बच्चे अपने गेम खेलने लगे
किसी के बदन के नीचे से
हाथ परली तरफ निकाल कर दूसरी ओर चिकोटी काटना,
कान के पास फुसफुसाना,
कंबल खींचने जैसे खेल खेलते
कई जन तो सो ही गये
सचमुच में।
छोटी हमारे बीच से उठ
पाटी पर बैठ पैर हिलाने लगी
तब एकाएक
तुम्हारा सारा शरीर छू गया मुझे
गुनगुने गुलाबजल में गोता लगा लिया हो जैसे।
मखमल पर मलमल लपेट कर
गुनगुनी धूप को सजाया हो जैसे।
तुम्हारे रक्तिम कपोल और अरुणाभ होने लगे थे ।
बोलना हम दोनों ही चाहते थे,
पर कंठ खुद में ही उलझ गये थे।
तब तुमने उंगली से
मेरे माथे व गालों पर
अपने सारे भाव स्पर्श से लिख दिये
जिनमें गीत भी थे व झंकार भी
मौसम की खुशगवारियां थी
और पुरवा की सुहानी
शीतलता भी ।
वह अनकहे मंे कहा गया सब कुछ
सच
कितना मीठा मीठा था
कच्चे मक्के के सरकंडे को चूसकर
महसूस की गई मिठास सा
सुगंध व स्वादभरा।
आज भी बरसों बाद
थमे वक्त सा!
वह सब याद कर
एक थकी हारी मुस्कान आ जाती है
होठों पर
मन फिर से तहों करवटों
व सिलवटों में खोने लगता है।

डॉ० के के अग्रवाल
रिटायर्ड आई पी एस
।-37 वॉलफोर्ट सिटी
रिंगरोड न० 1 भाठागांव
पोस्ट-रायपुर-492013 छ.ग.
मो- 9425212340, 7000589738