डरा हुआ महानगर
सुबह की शोरगुल से वह जाग पड़ा था। अलसाई आंखों से उसने खिड़की के बाहर झांका। जो सारी रात खुली रह गईं थी और कोट की सिलवटें ठीक करने लगा। उसने सामने की बर्थ पर अखबार पढ़ रहे व्यक्ति से पूछा—कौन सा स्टेशन है।
जी, खड़गपुर। आज कुछ देर हो गई है।
उसने पास से गुजरते चाय वाले को आवाज लगाई। चाय के कुछ घूंट पीकर उसने प्याला लौटा दिया। चायवाले को देने के लिये उसने कोट की जेब में हाथ डाला। रेजगारी के साथ मधु का पत्र भी निकल आया था। जिसे उसने रात में पढ़कर जेब में डाल दिया था। पैसे उसने चाय वाले को दिये और पत्र फिर पढ़ने लगा।
’जब भी रायगढ़ तक आयंे तो कलकत्ते जरूर आना। कई वर्ष हो गये हैं तुमसे मिले हुये। कलकत्ता इन दिनों बहुत बदला हुआ है। लेकिन यहां की कुछ स्मृतियां मन पर ऐसी जमीं हैं कि लगता है जिनसे बिलगाव जीवन भर संभव नहीं होगा। अलबता तुम आओगे तो ताजी अवश्य हो उठेंगी। घर में नही आना तो अच्छा है। नहीं तो तुम प्रतीक्षा करते ऊब जाओगे आजकल रात में घर लौटने का मेरा कोई निश्चित समय नहीं रह गया हैं। वैसे भी मुझे मालूम है कि तुम घर पर रूकना नहीं चाहोगे। हावड़ा में ही किसी होटल में ठहर जाना। वहां से दस मिनट के अन्दर ही टेक्सी से रविन्द्र सारिनी तक पहुंच जाओगे। उसके पास ही हमारा दफ़्तर है। बड़ा सा लाल रंग को बोर्ड लगा हुआ है। पता लिख रही हूं। किसी से भी पूछोगे तो बता देगा। बस।’ वह अन्तर्दशीय लिफाफे को मोड़कर लिखे पते को पढ़ने लगा।
— मधु का दफ़्तर। आजकल वह नौकरी करने लगी है। न जाने उसकी थीसीस का क्या हुआ, हो सकता है पूरी हो गई हो। तीन साल के अंदर शायद वह उसका तीसरा अथवा चौथा पत्र था। जिसमें उसने कभी कुछ साफ नहीं लिखा। उसे इतना भर मालूम हुआ कि वह इन दिनों किसी दफ़्तर में सर्विस कर रही है।
बाम्बे हावड़ा रेल चलने लगी थी। शायद उसे इसी से लौटना पड़े अथवा एक दो दिन रह ले। बंगाल की सोंधी धरती से उठती महक नथुनों में समाने लगी थी। कलकता खड़गपुर से ही दरअसल शुरू हो जाता है, करीब डेढ़ दो घंटे का रास्ता और था। मेल के एक अथवा दो छोटे स्टापेज जीवन के इतने वर्षों का अंतराल कहीं सिमट गया था। सारे परिचितों के बीच उसे मधु भर का पत्र इस बीच मिलता रहा था। बाकी सबने परिचय का दामन उसके नागपुर जाते फाड़ दिये थे।
वह खिड़कियों से बाहर देखने लगा था। ठिगने खजूर के पेड़ सारे रास्ते खड़े थे। भागते गांवों के झांकती सामंतशाही के चिन्ह ताड़ के पत्तों अथव टीन से ढंकी झोपड़ियों के बीच एकाध बड़ी हवेली अब भी सर उठाये हुये थी। सिंग्नल न मिलने से टेªन किसी छोटे से कस्बे के पास रूक गई थी। वह बाहर की ओर देखने लगा था। छोटे छोटे पोखरों वाला गांव। पोखरांें पर आम अथवा पीपल की छांव थी। पोंखरों के पास बैठे लोग पान के पत्तों को तोड़कर टोकरियों में जमा रहे थे। एक बड़ी सी हवेली के बारजे पर खड़ी औरत अपनी लटों को संवार रही थी। शायद घर की मालकिन थी।
कालेज के दिनों में सोशल वर्क में कालेज की ओर से वह कई बार इस तरह के गांवों में आ चुका था। मधु ऐसी औरतों को देखकर जब वापस कैम्प लौटती तो शरत की किसी नायिका की तरह उसके सारे हाव-भाव की नकल किया करती थी। ‘बंगाल कभी नहीं बदलेगा मालूम, कभी नहीं। चाहे सारी दुनिया बदल जाये। यह हमेशा एक अजायबघर रहेगा।’ वह कहा करती थी। इन दिनों उसी मधु ने लिखा था
— यहां हर दिन, हर घंटे परिवर्तन हो रहा है। वह दूर दूर तक फैले छोटी-छोटी क्यारियों वाले खेतों को देखने लगा था। कोहनियों तक लटकती सूती कनियाहनें पहने भू-स्वामी जहां चहल-कदमी कर रहे थे। फटेहाल मजदूर, पोखरों से बह आये पानी को उलीच कर खेतों को सींच रहे थे। कहीं महुए के वृक्षों के नीचे झरे हुये फूल थे। वह सोचने लगा था–महुए के फूलों की महक जब कभी बदलेगी तभी यहां परिवर्तन होगा। शायद कोई सामयिक परिवर्तन होगा। जिसका मधु ने उल्लेख किया था।
टेªन चलने लगी थी। उसकी गति छोटे छोटे स्टेशनों के अस्तित्व को नकारती जा रही थी। नालपुर स्टेशन। गति कुछ धीमी होने पर उसने किनारे खड़े क्रांकीट के बोर्ड की ओर देखा। पंद्रह मील के करीब और रह गया था। करीब बीस मिनट की राह बच गई थी। संकराल, बस मील के करीब था। दूर फैक्टरियों से उठते धुयें उसे दिखने लगे थे।
हावड़ा तक पहुंचते हुये उसे लगा, इस बीच कुछ नये कलकत्ते के विस्तार को कुछ और बढ़ा दिया था। जिनका गाढ़ा सिलेटी धुंआ आकाश को रंग रहा था। स्टेशन के आसपास की इमारतों पर खून के रंग से रंगे विभिन्न पार्टियों के स्लोगन एवं नेताओं के चित्र बने थे। जिनमें कुछ देशी थे, कुछ विदेशी। सब कुछ हाल हुये ऐतिहासिक चुनाव प्रक्रिया को उद्बोधित कर रहे थे।
उसे स्टेशन पर भीड़ कुछ अधिक लगी थी। बाहर वह भीड़ को छीलता टेक्सी स्टेंड की ओर बढ़ गया था। रिक्शे में बैठना उसे कमी भी अच्छा न लगा था। सूखी हड्डियों वाले जुते हुये इंसान पर सवारी करते हुये उसे मन में ग्लानि हो जाया करती थी। टैक्सी स्टेंड के पीछे एक पुरानी बस्ती पड़ी थी। जिस पर मेले कुचेले कपड़े पहने बच्चे खेल रहे थे।
टेक्सी की प्रतीक्षा करते हुये वह सामने डगमगाती हुई हावड़ा पुल की ओर बढ़ती ट्राम को देखने लगा था। लदे हुये, गंुथे हुए लोग। स्टेंड पर एक पुलिस वाला टैक्सियों के लिये प्रतीक्षारत लोगों को क्यू में जमा रहा था। वह ऊब चुका था। टैक्सी की प्रतीक्षा में और पैदल ही चलने लगा था। स्टेशन से करीब तीन चार फर्लांग उसे पैदल चलना पड़ा था। अपनी अटेची हाथों में दबाये वह सामने कतारों में बने होटलों को देखता एक के अंदर चला गया था। मैनेजर के कमरे में पड़े रजिस्टर में खानापूर्ती कर सामने खड़े केयर टेकर के साथ वह कमरे की ओर बढ़ गया था।
खाना खाकर जब वह दोबारा होटल के बाहर निकला तब कलाई की घड़ी तीन बजा रही थी। सामने डोलता हुआ हावड़ा खड़ा था। उसने करीब से गुजरती एक टैक्सी को रूकवाकर उस पर बैठ गया। ‘रविन्द्र सारिनी’ टैक्सी अपनी गति पकड़ चुकी थी। हावड़ा पुल को पार करते हुये वह वहां पड़ी छोटी बड़ी नौकाओं को देखने लगा था।
’सर, रविन्द्र सारिनी के सामने ही रोक दूं कि पीछे की गेट की ओर ले चलूं।’ वहां भी फेयर लाई पीस की विशाल इमारत पार हो चुकी थी। फुटपाथ पर छोटा सा बाजार लगा हुआ था। टैक्सी रूक गई थी। उसने मीटर की ओर देखकर दो का एक नोट ड्राइवर के हाथों में थमा दिया था।
वह मधु के लिखे पत्र को हाथों में रखकर पास से गुजर रहे एक दफ़्तर के प्यून के मधु के दफ़्तर का पता पूछने लगा था। वह मधु के बताये लाल बोर्ड की ओर खोजती निगाहों से देखने लगा था। सामने चौराहें से चितपुर की ओर जाती ट्राम कुछ देर रूककर आगे बढ़ गई थी। वह दाहिने ओर की इमारत की ओर संकेत कर चला गया था। सामने भीड़ लगी हुई थी। वह करीब चला गया था।
दफ़्तर की इमारत का सामने वाला गेट बंद था। लोगों के हाथों में बड़े बड़े पोस्टर और बैनर पड़े हुये थे। जिसकी आड़ में दूर से दफ़्तर का बोर्ड नाम चीख पड़ा था। शायद हड़ताल हुई थी। दफ़्तर की इमारतों में ताला पड़ा हुआ था। पोस्टर पर लिखे स्लोगन्स को लोग तीखी आवाजों में दोहरा रहे थे। उसकी खोजी आंखों में मधु को ढूंढ निकाला था। हाथों में एक बड़ा सा पोस्टर लेकर मधु उसी तरह चिल्ला रही थी जिस तरह कालेज की स्ट्राइक के दिनों चीखा करती थी। वह उसके लापरवाही से बधे जूड़े और उसके तम-तमाये मुंह को दूर से देखता रहा था। फिर उसने करीब जाकर उसे आवाज दी थी-मधु। वह जैसे नशे से चौंकी थी।
‘तुम, तुम कब आये। मुझे, खबर क्यों न दी। कब तक रहोगे।’ उसे लगा वह तेजी से उसे निपटा देना चाह रही थी। कहां उसने सोचा था कि अपनी इस हालत में उसे सामने देखकर वह चौंकेगी। लेकिन उसने उसके चेहरे पर ऐसा कुछ न देखा।
‘कुछ घंटे बीते आया हूं। खाना खाकर सीधे, तुम्हारी और चला आ रहा हूं।’
’काफी दिनों में आये हो। कलकत्ते घूम लो। मैं तुमसे फिर मिल लूंगी। कहां रूके हो ?’ उसने होटल का नाम बता दिया था। भीड़ की आवाज कुछ अधिक तेज हो गई थी। उसने भीड़ की ओर देखा और उससे कहने लगी-‘तुम इस वक्त जाओ। अभी मैनेजर निकलने वाला है। भीड़ में कुछ भी हो जाने की संभावना है। शायद उसके पाले हुये गुंडे कुछ गड़बड़ी भी मचायें। मैं तुम से मिल लूंगी।’
‘शाम को आओगी- होटल की और तुम कि मैं ही घर पर तुमसे मिल लूं।’
‘घर पर मत जाना। मां और नानी मामा के पास गांव चली गई हैं। छोटा भाई चुनाव के कुछ दिन पहले गिरफ्तार हो गया है। इन दिनों मैं अकेली रह रही हूं। अभी शायद घेराव करना पड़े। रात में मीटिंग है। न जाने कितनी देर हो जाये। तुम देख रहे हो न व्यवस्था किस तरह हमें जकड़ती जा रही है। हमें इसे बदलना ही होगा मानस। नहीं तो आने वाली पीढ़ी हमें कभी माफ कर पायेगी ?’ वह भीड़ के सामने जा खड़ी हुई थी।
उसे और कुछ देखने की इच्छा नहीं हो रही थी। वह वापस होटल की ओर चलने लगा था। लोग दफ़्तरों से निकलने लगे थे। सड़क पर भीड़ कुछ अधिक बढ़ गई थी। एक बड़ी सी बिल्डिंग की दीवार पर हाल में किसी बड़े नेता की हत्या से हुये कलकत्ता बंद से सम्बंधित सूचनायें लिखी हुई थीं। एक इमारत की छत से लड़के पुलिस वैन पर पत्थर फेंक रहे थे। जो कुछ युवकों को बिठाकर ले जा रही थी। वैन रूक गई थी। टीयर गैस के फायर होने शुरू हो गये थे। कुछ ही देर में भीड़ से पटे रास्तें में ग्रैमयार्ड की खामोशी बिछ गई थी। दुकानों के फाटक बंद हो गये थे। वह दूर ‘शाहा टी’ स्टाल के अहाते में घुस गया था। बाहर सड़क से आती आवाजें अब भी आ रही थीं।
देखो भाग रहे हैं। पीछे से घेरो। भागने न पायें। दौड़ो। पुलिस वालों की तेज आवाजें सन्नाटें को तोड़ रही थीं। खोज और परेशानियों से भरे स्वर। शायद ऐसे ही किसी मौके पर मधु का छोटा भाई गिरफ्तार कर लिया गया होगा। आवाजंे आनी बंद हो गई थी। टी स्टाल में काम करने वाला लड़का गली के मुहाने तक देख आया था और बता रहा था– पेड़ और नानू बाबू में पढ़ने वाले लड़कों को पुलिस ने पकड़ लिया है। बाकी सब भाग गये हैं। वह उत्सुकता नहीं दबा पाया था और गली के मुहाने तक आकर झांकने लगा था। पुलिस वैन धीरे धीरे सरकने लगी थी। मिलिट्री की मशीनगनों से लैस अभी आई जीप उसके पीछे लग गई थी। दुकानें खुल गई। सड़क पर भीड़ फिर जमा हो गई थीं। वह चलते लोगों के चेहरे की ओर देखने लगा था। खिंचे, खिंचे आक्रोशित, भयभीत, क्रोधित। वह दूर बहुत दूर सीधी सड़क पर जाती मिलिट्री की जीप को हिकरात से घूरता रहता था। उसके मन में समाया भय अब घृणा में परिवर्तित हो रहा था।
–किसके लिये हैं ये मशीनगनें। कहां बनी हैं इनकी गोलियां। ये गोलियांे को बनाने वालों ने सोचा भी न होगा कि ये घर पर ही चलेंगी। और इन्हें चलाने वाले–। उसे लगा, गोलियों का परीक्षण किया जा रहा है ताकि शत्रु देशों के मुकाबलें में उनकी उपयोगिता सिद्ध हो सके। अमेरिका भी तो अपने शस्त्रों का परीक्षण किया करता है दूर वियतनाम में। अपनी भाषा में जिसे अमेरिकन वियतकांग कहा करते हैं। उनके किये अनुपरीक्षण से न जाने कितने जलचर प्रशांत की छाती में खून उगलते हैं। वह अधिक कुछ सोचना नहीं चाह रहा था। उसके सोचने की शक्ति लुप्त होनी लगी थी। वह एक पान की दुकान के सामने खड़ा हो गया था।
–एक सिगरेट देना। सिगरेट लेकर वह उसे पास के खम्बे में बंधी नारियल की जलती रस्सी की शेर से जलाया और लम्बे लम्बे कश लेने लगा। दिन भर में वह पहली सिगरेट पी रहा था। दुकान के पास ही एक ठेलेवाला, जो कुछ देर बीते अपना सामान उठा कर भाग गया था, अपना सामान फिर से जमा रहा था।
‘–इंदिरा की सरकार बनने वाली है। अजय मुखर्जी मुख्यमंत्री बन रहा है। सरकार कोई आये कोई जाये पर लोगों को दोनों समय का खाना तो दे।’ वह पास खड़े एक आदमी से बात कर रहा था। वह ठेले के किनारे खड़ा होकर धूप के चश्मे देखने लगा था।
–क्या दाम लोगे।
–जो भी दोगे बात से लूंगा। वैसे आठ रूपये का है।
–पांच रूपये में वे रहे हो।
–ले लो बाबू, कुछ तो बेचना ही है। आज सुबह ही कोई कोर्ट में ग्यारह रूपये का जुर्माना पटा कर आ रहा हूं, फुटपाथ पर दुकान लगाने के लिये। गरीबों की सरकार है। राष्ट्रपति का शासन है। इससे जुर्माना कम लिया है न नौकरी देते हैं और जो कमातें है उसमें भी टैक्स, जुर्माना, न जाने क्या लगा देते हैं। उसने पांच रूपये पर्स से निकालकर उसे दे दिये थे और चश्मे को आखिरी बार जांचने की दृष्टि से देखने लगा था। ‘कितने आदमी तो ले गये हैं।’ उसे अपने पीछे से फुसफुसाती हुई आवाज सुनाई पड़ी थी।
‘दो हैं। यह जमाना ही खराब है। बदमाशी कोई करता और पकड़ के किसी को ले जाते हैं। अब सारी रात बेचारे न सो पायेंगे—। कल आयेंगे। जमानत में।’
‘जमानत होगी तो जरूर आयेंगे। कहीं मां काली की कृपा हो गई तो बगैर जमानत के ही छूट जायेंगे।—हमेशा के लिये।’ खिसियाई डरी हुई हंसी उसे अपने कानों तक टकराती हुई लगा। वह दूसरे सिरे तक जलती सिगरेट को फेंककर आगे बढ़ गया था। अपनी दाहिनी ओर वाली फुटपाथ पर। पेट्रोलिंग करती सेना की हाफटन उसकी बांयी ओर से निकल गई थी। जब कोई गाड़ी उसे अपनी ओर आती दिखती तो वह और लोगों के साथ फुटपाथ के दूसरे किनारे की ओर सरक जाया करता था। गाड़ियों के निकल जाने पर वह लोगों के चेहरे की ओर देखने लगता था। जिन पर भय एवं शंका के निशान स्लाइड की तरह उभर कर लुप्त हो जाया करते थे। –दूसरे शहर मे अचानक कहीं दगती गोलियांे की गिरफ़्त में वह आ जाये तो लाश तक को कोई पूछने वाला न होगा। मधु शायद पता लगाने की कोशिश करे भी। लेकिन समय का उसे भी तो अभाव है। गाड़ियों के गुजर जाने पर कोई कह रहा था,—डर से व्यवस्था कब तक बनी रहेगी। अब और सब कुछ नहीं चलने वाला है। उसने कहने वाले की ओर देखना चाहा था। लेकिन इस बीच वह कहीं भीड़ में उभर कर गुम हो गया था।
हावड़ा के आने का अहसास उसे बंगाल सागर को भेदकर हुगली की राह आती तेज हवाओं ने ने करा दिया था। जो उस पर तेजी से गुजरती हुई आराकान की पहाड़ियों की ओर बढ़ गई थीं। पुल को उसने तेजी से पार किया था। पार करते हुये वह सोच रहा था—पुल के दोनों छोर पर कहां दो मशीनगनें लगा दी जावें तो हुगली में कूदने के अतिरिक्त कोई दूसरी राह नहीं है। पुल पार करने के बाद कुछ अंशों में वह सामान्य हो गया था। ट्रामों एवं बसों में लटके उन असंख्यक लोगों की तरह जो जलजला उठते ही दुबक जाते हैं और फिर निर्भीक होकर चलने लगते हैं। वह दूर से दिखने वाले हुगली में लंगर डाले स्टीमरों की ओर देखने लगा तो शांत निश्चय खड़े थे। तूफान से आने के पहले ही शांति—-।
सामने के बस स्टाफ में एक लड़का रजनीगंधा के हार बेच रहा था। उसने एक हार खरीद लिया। रजनीगंधा को देखकर उसे लगा था कि रात हो गई है। वह अपने इर्द-गिर्द फैली बिजली की रोशनी को देखने लगा था। एक कटकटाती ट्राम उसके पास से होकर कुछ आगे रूक गई थी। वह चौंक गया। रजनीगंधा के हार को वह उसी तरह जेब में ठूंसकर आगे बढ़ गया।
होटल तक पहुंचते हुये रात कुछ अधिक गाढ़ी हो गई थी। होटल के बीस खाटों वाले कामन रूम में दिन की शिफ्ट से काम करके आये लोगों को सोता देखता वह अपने कमरे की ओर बढ़ गया था। उसे लगा, अस्पताल के जनरल वार्ड में वह मरीजों को छोड़ आया है। महानगर के कई पीड़ित मरीज। अपने कमरे में पहुंचकर उसने बिजली आन किया और निढाल सा सोफे में जा गिरा था। रजनीगंधा के हार को पेंट की जेब से बाहर निकालकर उसने पलंग की ओर उछाल दिया था। दरवाजे पर थपकी सुनाई पड़ी और होटल का केयर टेकर कमरे के अंदर आकर फैन के स्वीच को आन कर दिया। उसे गर्मी का अहसास फैन के चलने के साथ ही हुआ था। फैन की कटर-कटर की आवाज कमरे में गूंजने लगी थी। उसने अपने बदन से शर्ट को बाहर निकालकर दीवार पर गड़े हेंगर पर टांग दिया।
‘साहब खाना अभी आयेगा कि बाद में।’ वह पलंग पर पड़े रजनीगंधा को देखकर मंद मंद मुस्कुरा रहा था।
‘ले आओ भाई भूख लगी है।’
‘अकेले साहब ?’ वह प्रश्नवाचक की तरह उसकी ओर देखने था।
‘फिर रजनीगंधा किसके लिये लाया है।’
’अपने लिये।’
उसे लगा कि उसने कुछ झूठ कहा है। मधु कभी रजनीगंधा के हार को कितना पसंद किया करती थी। उसे लगा, उसके अचेतन ने ही उससे रजनीगंधा खरीदवा लिया है। वह सोचने लगा था – आखिर वह यहां क्यों आया है। मधु से मिलने ? आखिर कौन सा रिश्ता है उससे। कुछ वर्षों की पहचान। कुछ दिनों की मित्रता। इतना ही होता तो क्या वह अपने व्यस्त क्षणों में उसके लिये कुछ समय न निकाल लेती। शायद उसने यही सब उसे दिखाने के लिये उसने बुलाया था कि उसके जाने के बाद भी वह कितना व्यस्त रह लेती है। वापस लौटता हुआ केयर टेकर फिर लौट आया था।
’साहब कुछ डिंªक्स लेगा ?’
’क्या पिलायेगा ?’
’जिन, ब्रांडी, व्हिस्की, बीयर, देशी और इर्म्पोटेंड सब है आप जो कहेगा।’
’ब्लड पिलायेगा ?’
’क्या साहब ?’ वह चौंक गया था।
’ब्लड, सड़कों और नालियों में बहने से अच्छा है कि उसे पी लिया जावे।’
’समझा साहब, आप रम की बात कर रहें हैं। असली थ्री एक्स रम है। एक दम खून के माफिक लाल।’
वह जब लौटा तो खाने की टेª के साथ रम की एक बोतल लेता आया था सामने टेबिल पर पड़ी जार से वह ग्लास में कुछ पानी डाल रहा था। कार्क खोलकर उसने ग्लास को तीन चौथाई के करीब भरा और मेरी और बढ़ाया। जब तक वह ग्लास पूरी हलक के नीचे नहीं उतार गया, वह उसे घूरता रहा था।
’क्या नाम है तुम्हारा ?’
’रेड्डी सर।’
’आंध्र के रहने वाले होगे। यहां कैसे आये ?’
’पेट के लिये सर।’ वह फिर जार से ग्लास में पानी डालकर उसके रम मिलाने लगा था। वह सामने पड़ी प्लेट से किसी जानवर की बोटियां काटने में लगा था। उसने ग्लास दूसरी दफा भर दिया था। इस बार शायद रम कुछ कम पिलाया था। रंग कुछ फीका सा लगा।
’रेड्डी इसका रंग फीका कैसे हो गया है ?’
’साहब आजकल आम आदमियांे का खून सफेद होता जा रहा है।’ उसने कहा। वह उसे नशे में समझने लगा था।
‘फिर बोतल का रंग इतना गाढ़ा क्यों है ?’ उसे लगा सचमुच रम कुछ कुछ असर करने लगा है।
’जमा हुआ खून है साहब। जी जमकर गाढ़ा हो जाता है।’
वह बाहर चला गया था। अपने सामने रखे ग्लास को उसने एक ही बार में खाली कर दिया था।
सब और परिवर्तन है। सिर्फ इस कमरे में कोई परिवर्तन नहीं था। जिसमे वह रह रहा था। उसे लगा, कमरे में टियर गैस का धुंआ फैल गया है। बिजली की रोशनी कमजोर होती जा रही है। कहीं आवाज उभर रही थी।
हमारा खून, हमारा खून—–। इन्हें बेकार मत बहाओ। नहीं तो कोलतार की सड़कों पर जमकर काली हो जायेंगी। नहीं, नहीं ये बेकार नहीं बहेंगी।
बोतल में बची सारी रम वह गटक गया। और आवाजें दूर हो गई थी। दू—–र बहुत दूर। एक बहुत बड़ा फासला आवाजों के और उसके बीच हो गया था।
मनुष्यता, मित्रता, पहचान, थिसिस तीन वर्षों में पूरी करने वाली मधु, रजनीगंधा सब कहीं दब गये थे। बची रह गई थीं। मशीनगनें, जली हुई बसें, टियरगनें, सेना की दौड़ती राहें, पोस्टर हाथों में ली हुई मधु का तमतमाया चेहरा, सड़कों पर जमा खून, डरे हुये चेहरे। टीयरगन की धुंध में सब कुछ खो गये थे।
दो चेहरे रह गये थे, खून पीने वाला का और दूसरा पिलाने वाले का।