लघुकथा एक पाठक के दृष्टिकोण से
उपन्यास, कहानी और लघुकथा तीनों के बीच कैसा संबंध है, यह मात्र एक पंक्ति से ही साफ हो जाता है-अनेक लघुकथायें मिलकर कहानी बनाती हैं और अनेक कहानियां मिलकर उपन्यास! इस एक पंक्ति से सबकुछ समझ आ जाता है कि लघुकथा का आकार, प्रकार, भाव, शिल्प और विषयवस्तु कैसी हो! उसका गठन कैसा हो!
सामान्य तौर पर लघुकथा अपने नाम के अनुरूप छोटी से छोटी होती है। कम से कम पंक्तियों में एक संदेश बाहर आता है। कम शब्दों में विशेष बात का कहना कठिन होता है, इसलिए सर्जक अपनी क्षमता के अनुरूप लघुकथा की परिभाषा से छेड़छाड़ करते हैं। जिसे जो अच्छा लगता है या फिर जैसा लिख पाता है, वह उसे ही परिभाषा मानता (मनवाता) है। परिश्रम की कमी ने भी लघुकथा की परिभाषा में बदलाव कर दिया है, तीक्ष्ण दृष्टि और भाषा में कमजोर पकड़ भी इसका महत्वपूर्ण कारण है। वैसे लघुकथा की परिभाषा को निर्धारित करना यानी उसे एक खांचे में फिट करके फैक्टरी का माल बनाना होगा। लघुकथायें दो-चार पंक्तियों में भी अपना असर छोड़ जाती हैं तो एक-दो पन्नों में भी वैसा ही मजा देती हैं। और आकार संबंधी यही फ्लैक्सीबिलिटी बने रहना भी आवश्यक है। एकरूपता नीरसता की जननी है। यह भौतिक स्वरूप की स्थूल परिभाषा है कि लघुकथा आकार में छोटी हो और उसके भीतर ज्यादा से ज्यादा घटनाओं का , दृश्यों का वर्णन हो तब तो अपना उद्देश्य पूर्ण कर लेती हैं साथ ही अपना नाम भी सार्थक करती हैं। लघुकथाओं का बारीक भौतिक विश्लेषण भी अति आवश्यक है जो स्थूल भौतिक स्वरूप को बनाये रखता है। इसके भीतर लघुकथा का शिल्प सौन्दर्य आता है।
हम लघुकथा क्यों लिखते हैं, क्यों पढ़ते हैं ? यह प्रश्न महत्वपूर्ण है। इसके भीतर घुसने का प्रयास करने पर हमें सारे जवाब मिलते जाते हैं। सबसे पहले हम यह सोचने समझने का प्रयास करते हैं कि हम लघुकथा क्यों पढ़ते हैं ? ’समय की कमी’ एक तात्कालिक उत्तर बनकर उभरता है। क्या यह सच्चाई है ? एक दृष्टिकोण सही बताता है परन्तु ये सरासर गलत सोच है। क्या कहानियां नहीं पढ़ी जा रही हैं ? क्या उपन्यास नहीं पढ़े जा रहे हैं ? या फिर आलेख नहीं पढ़े जाते हैं ? ऐसे तमाम प्रश्न किये जा सकते हैं। लघुकथा का अस्तित्व जिसे नहीं मानना होता है, वे ही ऐसा उत्तर देते हैं। लघुकथा अपने आप में एक स्वतंत्र विधा है, इसे कहानी की तरह विस्तार दिया जा सकता है परन्तु अपने आप में पूर्णता लिए हुए होती है। संभावना तो क्षणिका के कविता बनने और कविता के महाकाव्य बन जाने की भी होती है। संभावनायें अनंत हैं। पेट तो किसी भी चीज को खाने से भरता है तो क्या सारी चीजों को एक मान लिया जाये ? हम चाहें तो अन्य विधा की भी खोज कर सकते हैं। लघुकथा के समकक्ष है चुटकुला या हास्य लघुकथा।
खैर वर्गीकरण करके कुछ विशेष हासिल नहीं होना है। लघुकथा में मारक क्षमता हो, यह आवश्यक है।
हम लघुकथा इसलिए पढ़ते हैं क्योंकि कुछ ही पंक्तियों में परिवेश के भीतर की विसंगति लेखक के कौशल से प्रगट होती है यह वैशिष्टय ही होता है जो लघुकथा को लघुकथा बनाता है। उत्सुकता मानव का वह स्वभाव है जो उससे दुनिया के सारे काम करवा लेती है और यही उत्सुकता लघुकथा में प्रगट होती है। जब-जब हम उसमें रहस्य का उद्घाटन पाते हैं नयापन, नयी सोच, नये माप, यही तो लघुकथा को पढ़ने के लिए प्रेरित करते हैं। हम अपने पास उपलब्ध समय के अनुरूप रचना का आस्वादन करते हैं। यह अलग बात है, किसी भी रचना को पढ़कर उसे समाप्त कर लेना, अंत जान लेना हर कोई चाहता है इसलिए अपनी सामायिक उपलब्धता के आधार पर रचना पसंद, नापसंद करता है।
अब प्रश्न का दूसरा हिस्सा सामने आता है कि हम लघुकथा क्यों लिखते हैं ? यह हर किसी का निजी मामला है। कई लोग जरा सी बात को घण्टों बताकर भी खत्म नहीं करते और कोई एक ही लाइन में उसी बात को कह देता है। संप्रेषण दोनों में होता है, दोनों तरह से सुनकर समझने वाले भी अलग-अलग होते हैं। कुछेक तो दोनों तरीकों को पसंद करते हैं। हम लघुकथा इसलिए लिखते हैं क्योंकि हम सपाट तरीके से बात कहना जानते हैं।, कटु बोलना जानते हैं, वह कटु जो सच्चा होता है बगैर लाग लपेट वाला।
स्पष्ट कहना लट्ठमार भाषा में होता है परन्तु ऐसा कहना भी वक्त पड़ने पर जरूरी होता है। गोलमोल जवाब कई बार असरहीन हो जाते हैं। हमने देखा है कि चुगली करते वक्त व्यक्ति नाना प्रकार से एक ही बात कहकर घण्टों एक ही विषय पर कह सकता है, जिसके नाम की चुगली चल रही होती है उसके विभिन्न रूप, विभिन्न समय में घटी घटनायें, उसके विभिन्न संवाद, विचार का बारीकी से, अतिश्योक्ति से वर्णन होता है। यह निन्दा रस किसे पसंद नहीं आता है।
और यही चुगली वही सुन ले जिसकी की जा रही है तब; तब क्या होता है ? सीधे-सीधे आरोप लगने शुरू हो जाते हैं। रट्ट-फट्ट आरोप-प्रत्यारोप का दौर होता है। यूं महसूस होता है कि हर कोई ये सोचकर फटाफट बोल रहा है मानो मौका न चूक जाये। इस झगड़े में भी वही चुगली होती है परन्तु सीमित शब्दों में और तीक्ष्णता लिए हुये। लघुकथा में मारक क्षमता का होना अति आवश्यक है। वह तीक्ष्णता, कटुता, कठोरता ही इसे पहचान देती है। यही वह गुण है जो इसे लघुकथा बनाता है। यही तीखापन, चरपरापन लोगों को लघुकथा खोजकर पढ़ने के लिए प्रेरित करता है।
लघुकथा के विषय क्या हों, यह सोचना बहुत जरूरी है। जिस तरह भूखे को ही दाल-भात का स्वाद मिलेगा और भरे पेट वाले को तरह तरह के नवीन व्यंजन स्वादु लगेंगे। वैसे भी नवीनता की खोज दुनिया के विकास का कारण है, यह समझना, समझाना जरूरी नहीं है।
विसंगति का होना ही लघुकथा का मूल है। इस विसंगति के कई रूप हो सकते हैं। वैचारिक विसंगति, भौतिक विसंगति आदि। विसंगति से मिलता जुलता विषय है दुविधा, वैचारिक संघर्ष। ये घर्षण ही लघुकथा को उज्जवल बनाते हैं। दो घटनाओं के बीच तुलना का चित्रण, दो विचारों के तर्क का चित्रण, दोराहों पर ठिठकने का चित्रण, दिमाग के कुंद हो जाने की जकड़न का चित्रण ही लघुकथा है। एक ओर सीधे-सीधे चले जाना तो पूर्ण विराम है, अंत है…विचार का….सोच का। वैचारिक घर्षण का चित्रण लघुकथा को श्रेष्ठ बनाता है। अनंत विषय हमारे परिवेश में तैर रहे हैं, उन्हें पकड़कर उनमें देखिए कहां पर वैचारिक दोगलापन टकराता है, वहीं है लघुकथा! हम जहां स्वयं को असहज पाते हैं वहीं है लघुकथा! जहां हम अपने स्वार्थ के चलते सच को झूठ साबित करते हैं वहीं है लघुकथा! सच को झूठ साबित करना जरा कठिन होता है परन्तु झूठ को सच साबित करने का प्रयास जरूर ही ऐतिहासिक होता है। सच और झूठ के बीच के झगड़े सदा ही लघुकथा के विषय होते हैं। वैचारिक कुंठा से ग्रस्त व्यक्ति आकर्षण का केन्द्र होता है क्योंकि वह ऐसे कार्य करता है जिसे समाज में मान्यता नहीं होती है। इन विषयों के संदर्भों को ढूंढने के लिए व्यक्ति को बारीक दृष्टि का स्वामी बनना होगा। दूसरों की गलती ढूंढने वाले व्यक्ति ऐसे काम में अपनी श्रेष्ठता साबित कर सकते हैं। हम चाहें तो एक रचनाकार की रचनाओं से उसका व्यक्तित्व जान सकते हैं। लघुकथाकार वास्तव में एक अनुभवी, समाज द्वारा प्रताड़ित और खुली विचारधारा का स्वामी होगा। उसके निर्णय लेने की क्षमता अत्याधिक सक्रिय होगी। उसे समाज में (अपने सर्किल में) स्वीकार करना जरा कठिन होगा परन्तु उसकी श्रेष्ठता मजबूर करेगी कि उसे स्वीकार करो।
नैराश्य बांटने वाले विषयों पर न लिखा जाये तो अच्छा हो। समाज का वर्तमान दौर वैसे ही बड़ा कष्टप्रद है इसलिए सुकून के पलों की जरूरत है। हम यदि आधे भरे गिलास को आधा खाली गिलास समझकर देखेंगे तो शायद ही कभी संतुष्ट हो पायें। सरकारी नौकरी, दफ्तर, कर्मचारी, सिस्टम और जनता का सामना अनंत लघुकथाओं को जन्म देता है। राजनीति, नेता, चमचे, चुनाव और जनता के बीच अनंत संभवनायें हैं। परिवार में न जाने कितनी लघुकथायें दृष्टिगोचर होती हैं।
वैचारिक दोगलापन सरकारी नौकरी में ज्यादा अच्छे से दिखता है क्योंकि रिश्वतखोरी का अनाज ईमानदारी की शिक्षा देता है, ‘सदा सत्य की जीत होती है’ के नारे उछालता है। सरकारी नौकरी की चाहत और सरकारी उपक्रमों के लिए घृणा इस सदी का सबसे बड़ा दोगलापन है, सबसे बड़ा झूठ है जो हम सब की आंखों के सामने खेला जा रहा है। आरक्षण, राजाशाही, छुआछूत, ऊंचनीच, भेदभाव, झूठसच सब कुछ तो इस सरकारी कारखाने से निकलता है। बड़ा अफसर इतना बड़ा होता है कि वह पेशाब लगने पर भी अपनी केबिन के बाथरूम में जाता है। सरकारी नौकरी का घमण्ड यूं है कि व्यक्ति अन्य लोगों को जो सरकारी नौकरी नहीं करते हैं उन्हें अपना नौकर मानता है, नीच मानता है। सर्वाधिक वैचारिक प्रदूषण तो यहीं से निकलता है।
शिक्षा का मंदिर, शिक्षक और छात्र ये त्रिकोण भी लघुकथाओं के लिए कच्चा माल उपलब्ध कराता है। जो शिक्षक ले देकर शिक्षाकर्मी बने हैं वे किस तरह से अच्छी शिक्षा देकर भविष्य गढ़ेंगे ? ऐसी कमजोर शिक्षा व्यवस्था लागू करने के पीछे कौन लोग हैं ? क्या चाहते हैं ?
राजनीति की गंदगी में लोटते भ्रष्ट राजनेता और उनके चमचों की करनी अपने आप में ही लघुकथा भंडार है। हमें भी बस इसमें डुबकी मारकर कुछ मोती ढूंढने हैं।
नौकरी पेशा वर्ग और जनता के बीच खुल्लमखुल्ला गठबंधन है। कितना बड़ा दोगलापन है, देखें जरा- सरकार यानी, सरकारी कर्मचारी और नेता चुनाव से चुनी विधायिका। इसमें सरकारी कर्मचारी देश को लूट रहे हैं। घोर भ्रष्टाचार में डूबे हैं। अपने तुच्छ फायदे के लिए आम लोगों के जीवन का महत्वपूर्ण समय बरबाद कर रहे हैं। इसके बाद भी हम ऐसे भ्रष्टाचारियों को हटाने की बात करें तो उनके नातेदार ही विरोध में आगे आते हैं क्योंकि उनका स्वार्थ जुड़ा है। लाल विचारधारा तो धूप में सर पर टोकरी उठाकर मजदूरी करने वालों और एसी की हवा में टेबल कुर्सी तोड़ने वालों को समकक्ष रखकर आंदोलन करती है। ये बात अलग है कि मजदूर की मजदूरी कभी नहीं बढ़ती उन एसी वालों के अनुपात में। यही तो वैचारिक दोगलापन है। मार्क्सवाद वर्तमान का सबसे बड़ा वैचारिक दोगलापन है। वह साम्यवाद की आड़ में पूंजीवाद के फायदों को जीता है। पूंजीवाद का विरोध और पूंजीवाद से विकसित विकास के उत्पादों को आसानी से आत्मसात कर लेता है। एक ओर सबके लिए नौकरी चाहता है और दूसरी ओर नौकरी पैदा होने के कारकों को पूंजीवादी मानता है। शोषण के विरूद्ध शंखनाद करता है और सरकारी शोषण उसे नहीं दिखता है। सरकारी शोषण के दमन के लिए अपनी आवाज नहीं उठाता है। लाल झण्डा जनता के खून से रंगा है। अपने को जबरन स्थापित करने के लिए इसने न जाने कितना खून बहाया है।
इसी तरह शिक्षा के क्षेत्र में भी हम वैचारिक गतिरोध पाते हैं। जिस हिन्दी के कारण हम एक दूसरे से जुड़े हैं उसे ही बोली में बदला जा रहा है। शिक्षकों में अब अपने पेशे के प्रति समर्पण नहीं रहा है। अब वे नैतिकता से परे हैं। माता पिता अपने बच्चे को वही कराना चाहते हैं जो वे चाहते हैं। आदि, आदि।
विषय हमारे आसपास ही हैं, जरूरत है हमें उन्हें पहचानने की और उसे एक ऐसे सांचे में ढ़ालने की जिसमें उबाऊपन न हो, बासीपन न हो, भाषा चुटीली हो, तीक्ष्ण हो और जरा हटकर हो। व्यंग्यबाण चलते हों वैसी भाषा शैली सर्वथा उचित है। शिल्प कैसा हो, यह भी ध्यान दिया जाना चाहिए। वैसे एक बात ध्यान दें, हर व्यक्ति की भाषा शैली, परोसने की शैली भिन्न होती है इसलिए अन्य से अपनी तुलना न करें बल्कि अपनी स्वभाविक अभिव्यक्ति दें।
शिल्प यानी सजावट, किसी भी रचना को शाब्दिक रूप से उत्कृष्ठ बना सकती है। हम मुहावरों से, अलंकारो से और रोचक बिम्बों से अपनी लघुकथा सजा सकते हैं। पर ध्यान यह रखना है कि अनावश्यक बोझ सजावट के नाम पर न लादा जाये। अब हम कुछ उदाहरणों के माध्यम से समझने का प्रयास करते हैं।
लघुकथा की सामान्य या यूं कहें सर्वमान्य शैली है तुलनात्मक शैली (द्वंदात्मक शैली), किसी भी दो घटनाओं की तुलना करके कथा लिख देना; हमारे साहित्यकारों की पसंदीदा शैली है। ज्यादातर यहीं से शुरूआत होती है और इसे ही अपनाकर लेखन किया जाता है। इस शैली में वास्तव में द्वंद छिपा है, वैचारिक द्वंद। लेखक स्वयं समझने का प्रयास कर रहा होता है कि सच्चाई क्या है ? दो घटनाओं की तुलना में एक विचार के अर्थ को अनर्थ में बदलते दिखाने का काम है द्वंदात्मक शैली का। द्वंद भी दो तरह का होता है- मजबूरी से उत्पन्न और बेशर्मी से उत्पन्न! ये दोनों उदाहरणों से आप ही आप समझे जा सकते हैं।
व्यंग्यात्मक शैली-द्वंदात्मक शैली के बाद इस शैली का प्रयोग होता है। वैसे भी कटाक्ष करके अपनी बात कहना, संप्रेषण की दृष्टिकोण से ज्यादा सुगम होता है। ऐसी बात लोग तेजी से ग्रहण करते हैं। यहां व्यंग्य को हास्य में बदलने से रोकना होता है वरना लघुकथा चुटकुले में बदल जाती है, व्यंग्य के तीर भोथरे हो जाते हैं। देखिए कैसे-
‘‘हट्टी कट्टी तो लग रही हो। चलो घर के बर्तन मांज दो। पैसे देती हूं, खाना भी खिलाऊंगी।’’
‘‘पागल हो गई हो क्या बाई ? मैं ऊंचे कुल की तुम्हारे घर के जूठे बर्तन मांजूंगी ?’’
या फिर-
‘‘हट्टी कट्टी सुन्दर दिख रही हो। आज यहीं रूक जाओ, नये कपड़े और पैसे भी दूंगा।’’
‘‘पागल हो क्या ? मैं तुम्हे धंधेबाज औरत लगती हूं ?’’
या फिर-
‘‘हट्टी कट्टी तो लग रही हो। चलो घर के बर्तन मांज दो। पैसे देती हूं, खाना भी खिलाऊंगी।’’
‘‘पागल हो क्या बाई ? हाथ गंदे करने का काम कौन करेगा ?’’
या फिर-
‘‘हट्टी कट्टी तो लग रही हो। चलो घर के बर्तन मांज दो। पैसे देती हूं, खाना भी खिलाऊंगी।’’
‘‘पागल हो गई हो क्या बाई ? सब काम बाहर के लोग कर देंगे तो तुम क्या करोगी ?’’
देखा न आपने व्यंग्य को हास्य में बदलते! यह हास्य चुटकुले में भी बदल सकता है। यदि यही भिखारन कहे-
’’चलो हम दोनों भीख मांगते हैं तुम भी खाली और मैं खाली।’’
या फिर कहे-
‘‘एक बार मुझ जैसे भीख मांगने हाथ फैला कर देखो, पूरी जवानी और हट्टा-कट्टापन खत्म हो जायेगा।’’
इतने सारे अंत के साथ आप ही निर्णय लें कि कौन अंत मारक है और व्यंग्य की पराकाष्ठा है।
शिक्षात्मक शैली-यह शैली नये नवाड़ियों के कलम थामते ही निकलने वाली रचनाएं हैं। जब व्यक्ति हर किसी को शांति के साथ जीने का उपदेश देना चाहता है तब ऐसी ही रचनाएं जन्म लेती हैं। सीधे सपाट उपदेश देने वाली रचनाओं को लोग तेजी से पढ़कर तेजी से आगे बढ़ जाते हैं या यूं कहें कि ऐसी रचनाएं दिमाग को, मानव मन को चोट नहीं पहुंचाती हैं, अतिसाधारण श्रेणी की होती हैं ये रचनाएं। इनका संदेश होता है सदा सत्य बोलो, धोखा मत दो, प्यार से रहो, शिक्षा ग्रहण करो, शिक्षक महान आदि।
वह पढ़ना चाहती थी पर मां मर गई बचपन में, बाप दारूबाज था, शिक्षक ने फीस भरी। आज आई ए एस है सलाम शिक्षक।
कहानी है, विशिष्टता है परन्तु प्रस्तुतिकरण को दोष न दें, ये शिक्षात्मक शैली की कमी है।
सपाट शैली-घटना का हूबहू चित्र वह भी ब्लैक एण्ड व्हाइट रंगों से, पाठक पर शून्य असर डालता है और लेखक के खजाने में एक नया कांच का टुकड़ा जोड़ता है। जब तक घटना के वर्णन में तीखापन नहीं उभरेगा तब तक रचना असरकारी नहीं होगी। सपाट बयानी रचना को कमजोर करती है। देखें जरा-
‘‘राघव स्कूल जाना है। चलो उठो नौ बज गये।’’
‘‘मम्मी अच्छा नहीं लग रहा है।’’
’’जल्दी उठो, नखरा नहीं।’’ कहकर मम्मी ने उसकी चादर को खींचा तो उसके चेहरे पर हाथ लग गया। चेहरा तप रहा था। उसे तुरंत याद आया कि कल उसने बरसते पानी में ब्रेड लाने भेजा था।
यही अगर इस तरह से हो तो-
स्कूल का समय हो चुका था। मां डरते-डरते बच्चे को उठाने का प्रयास कर रही थी। उसने प्रेम से राघव के चेहरे को छुआ, वह तप रहा था। उसे खुद पर खीज हुई कि बरसते पानी में ब्रेड लेने राघव को क्यों भेजी, घर में पराठे ही बना लेती।
बोझिल शैली-इस शैली में लेखक अनावश्यक रूप से लघुकथा में उन घटनाओं को डाल देता है जिसका मूल कथा से कोई लेना देना नहीं होता है। लेखक कई बार (हमेशा) ये मानकर चलता है कि पाठक बेवकूफ है। शायद इसलिए वह घटनाओं को कुछ ज्यादा ही स्पष्ट करता है, उनमें तारतम्य स्थापित करने का बोझिल प्रयास करता है। पाठक निरा बेवकूफ नहीं है भैया! उसके पास भी दिमाग है, वह सोच सकता है कि सीढ़ियों से उतर कर ही कोई नीचे आयेगा या दरवाजे खोलकर ही बाहर निकल सकता है। कई बार एक ही बात बार-बार लिखी जाती है, जो पाठक को रचना न पढ़ने को पर मजबूर करती है। देखें जरा-
मैं आज कुछ ज्यादा ही बोरिंग महसूस कर रहा था। कुछ देर छत पर खड़ा होने के बाद नीचे घर की चौखट पर कुर्सी डालकर बैठ गया। तभी एक तंदुरूस्त और सुंदर सी औरत मेरे घर की चौखट के सामने आ खड़ी हुई। उसके कंधे पर एक पोटली थी। कपड़े उसके अच्छे और साफ सुथरे थे। मेरे चेहरे पर प्रश्नचिन्ह मढ़ा था। तभी उस औरत ने हाथ फैलाया और कहा-‘‘कुछ खाने को मिले भैया! इस भूखे तन को पालना है। दो दिनों से कुछ खाया नहीं है।’’
अब मेरे चौंकने की बारी थी। उसकी इन बातों से मैंने उसे गौर से देखा। वह कहीं से भी गरीब नज़र नहीं आ रही थी। अच्छी भली तंदुरूस्त औरत थी वह। मेरे मुंह से बेसाख़्ता निकल गया-‘‘हट्टी-कट्टी तो जवान औरत हो, यूं भीख मांग रही हो, शर्म नहीं आती ? काम करो कुछ। मेहनत की आदत डालो। यूं भीख मत मांगों।’’
’’कोई काम भी तो नहीं देता। इस जवान औरत की जवानी ही देखते हैं लोग। भूखा पेट नज़र नहीं आता है।’’ उस औरत ने अपना पेट उघाड़ कर दिखा दिया, साथ ही चेहरे पर बेचारगी ओढ़ ली।
मैं उसकी इस हरकत से अचकचा गया। खुद को संभालकर बोला-’’चलो घर के बर्तन मांज दो। मैं तुम्हें खाना और कपड़े सबकुछ देता हूं।’’ मेरे यूं कहते ही मानों बम फूट गया हो। क्या मैंने कुछ गलत कह दिया ? मैं उस औरत को रात बिताने तो नहीं कहा, जो वह तिलमिला कर बोली।
‘‘किसी भूखे को खाने नहीं दे सकते तो उसका मजाक मत उड़ाओ। उसका सम्मान तो बनाये रखो। मैं ऊंचे जात की औरत तुम्हारे घर के जूठे बर्तन मांजूं ? तुम्हें जरा भी शर्म है या नहीं ?’’ ऐसा कह कर वह पांव पटकती चली गई।
मैं सोच में पड़ गया कि मैंने क्या गलत कहा ? भीख मांगना सम्मान की बात है और बर्तन मांजना अपमान! मैं दरवाजे के भीतर जाकर सोफे में धंस गया।
दो पंक्तियों की लघुकथा को आधे पन्ने तक खींच कर लेखक क्या बताना चाह रहा है ? यहां पाठक परले दरजे का बेवकूफ है या फिर लेखक…!
कई लोग विषयानुसार भी लघुकथाओं को भी वर्गीकृत करते हैं जो कि मेरे दृष्टिकोण से अनुचित है। विषय तो दुनिया में अनंत हैं, कहां तक वर्गीकृत किया जा सकता है ? लेखन शैली के आधार पर उपरोक्त वर्गीकरण अपने आप में पूर्ण है।
इन शैलियों के अलावा एक शैली और होती है और वह है नकारात्मक शैली। इस तरह की शैली के लेखक मेरी नज़र में खुद ही हीन भावना से ग्रसित होते हैं इसलिए दुनिया को भी नकारात्मक दृष्टिकोण से ही देखते हैं। नकारात्मक शैली की सभी लघुकथाओं में और अन्य शैली की लघुकथाओं में एकरूपता नज़र आती है क्योंकि समस्त लघुकथाएं समाज का नकारात्मक पक्ष ही इंगित करती हैं, वही दिखाना चाहती हैं पर देखिए अंतर, कितना गंभीर अंतर होता है। नकारात्मक शैली की लघुकथाओं से समाज में भी नकारात्मकता फैलती है। देखें जरा-
वह दौड़ पड़ा, इतनी तेजी के बाद भी उसे लग रहा था कि उसे कोई पकड़ न ले। अपनी बस्ती से काफी दूर आ चुका था। फिर भी इस कदर डरा हुआ था मानों उसे पकड़ लेगा कोई न कोई आकर।
हांफता हुआ रूका था, एक साथ हर ओर देख रहा था। कितना अधिक सावधान था वह, तब भी डरा हुआ।
आखिर भाग क्यों रहा है वह ? कुछ पल शांति के साथ बिताने के बाद वह सोचा।
’’मेरे पिता ही तो हैं वो। क्या मेरी स्थिति इतनी खराब है कि उनके इलाज के लिए पैसे नहीं दे सकता ? बच्चों के उज्जवल भविष्य के लिए कितने पैसों की जरूरत होगी ? वैसे भी जब वो अपने गांव से मेरे पास रहने आये थे तो मैंने उन्हें कितने भारी मन से रखा था। मेरी पत्नी यानी उनकी बहू रोटी बना कर नहीं दे पा रही थी। पंद्रह दिनों के बाद का रिजर्वेशन था और वे आठ दिनों में ही चले गये थे। वो चले क्या गये थे, भगा दिये गये थे मेरे और अपनी बहू के द्वारा। उन्होंने मुझे पढ़ाया-लिखाया, नौकरी लगवा दी। मैं अपने गांव से दूर हूं और घर की पूरी जवाबदारियों से पूरी तरह दूर। उन्होंने गांव की जमीन और घर में भी मेरा हिस्सा मेरे नाम कर रखा है। तब क्यों मैं भाग रहा हूं ?‘‘
‘’बड़ी मुश्किल से कमाया है मैंने, मैं नहीं दूंगा पैसा! कोई कैसे ढूंढेगा मुझे। मैं तो निकल लिया हूं अपने घर से। मेरी वापसी तभी होगी जब सबकुछ निपट जायेगा।’’
अब आप ही सोचिये क्या इतनी नकारात्मकता फैलाकर क्या मिलेगा। माना कोई न कोई ऐसा ही होगा समाज में, पर क्या पूरा समाज ऐसा ही है ? क्या भारतीय समाज ऐसा है ? अपवाद स्वरूप दुनिया में क्या-क्या नहीं है, पर क्या समाज का सामान्य नियम ऐसा है ? समाज के लगभग हर परिवार ऐसी ही सोच रखते हैं ? इतनी नकारात्मकता परोस कर कहीं हम अपने दिशाहीन होते समाज को गलत दिशा पर तो नहीं हांक रहे हैं ?
जैसा कि मैंने पहले कहा व्यक्ति का व्यक्तित्व उसकी रचनाओं में साफ तौर पर झलकता है, चाहे हम इस बात को कितना भी नकार लें। वर्तमान में एक सोच समाज में महामारी की तरह फैली है कि हमें व्यक्ति के लेखन से उसका सम्मान करना चाहिए न कि उसके व्यक्तित्व को देखना चाहिए। कैसी दोहरी सोच है उन बुद्धिजीवियों की एक ओर उनका दावा है कि वो अपने साहित्य से समाज को बदलने में सक्षम हैं और दूसरी ओर खुद ही अपने साहित्य से अछूते हैं। अपनी नंगई को छिपाने के लिए पूरा संसार हमाम बनाने को आतुर विद्जन! हम यूं नकारात्मक तभी लिख सकते हैं जब हम खुद को जस्टीफाई कर रहें हों, जब हम उस तरह का जीवन जी रहे हों। हमारी केेवल लिखने के लिए ही ऐसा नहीं लिख सकते, जब तक हम भीतर से ऐसे न हों। हमने देखा कि लघुकथाएं हमारे जीवन के पलों की दास्तान हैं। हम किस तरह जीवन को देखना चाहते हैं किस तरह का जीवन बनाना चाहते हैं, यह खुद हम पर ही निर्भर होता है। नकारात्मक, सकारात्मक, बोझिल, सपाट कैसा हो जीवन ? लघुकथा के विभिन्न रंग हैं उन रंगों से जीवन रंगीन बने, यही कामना है।