भूमि अधिग्रहण की सार्थकता
वर्तमान की माया सभी लाचार है परवश हैं। लाचारी का आलम यूं है कि कोई चाहकर भी अपनी मर्जी का काम कर नहीं पा रहा है जबकि यह दौर व्यक्तिगत स्वतंत्रता का परम भक्त है। प्रत्येक जिह्वा पर इस स्वतंत्रता के नारे बुलंद हैं। और परवशता की तूती ऐसी बोल रही है कि जैसी नीतियां बने उनके अनुसार चला जाय, बगैर चूं चपड़ के।
विज्ञान का एकाधिकार पूरे सिस्टम को अपने अनुसार चला रहा है। इसके बेजा, जरूरी कब्जे का कोई विषय नहीं है। पुराने हुनर आज तक अपनी उपयोगिता बनाये रखे हैं और विज्ञान के नित नये आविष्कार दस पांच साल में बदलाव के साथ उनसे जुड़े रोजगार वालों को भी समय के साथ दौड़ा रहे हैं। विज्ञान की चकाचौंध से सारा संसार चुंधियाया हुआ है। मजबूरी की मौज में हर कोई घूमना/झूलना चाहता है। बगैर आगा पीछे सोचे इस यज्ञ में स्वयं को समिधा बनाकर आहुति डाल रहे हैं।
विज्ञान की यानी आधुनिक जीवन शैली की आपूर्ति के लिए प्रकृति का दोहन भी उसी तेजी से हो रहा है खदानों से अयस्क निकाले जो रहे हैं उनमें से कुछ उपयोग किये जा रहे हैं तो कुछ भविष्य के लिए धनी देशों द्वारा डम्प किये जा रहे हैं। झाड़-पेड़, नदी-नाले, पहाड़-मैदान, तालाब-कुएँ कुछ भी तो नहीं बचा है इस ‘विकास’ (विनाश) से। इस भयावह स्थिति में सांसारिक मनोरंजन के साधन यूं विकसित कर दिये हैं कि लोग यह मानने लगे हैं कि यही जीवन है।
इस कदर फैले हुए इस जुमले के चलते पक्ष-विपक्ष के अपने तर्क कुतर्क स्थापित हो गये हैं। वर्तमान की क्रांति सबके लिए मूलभूत, रोटी कपड़ा और मकान नहीं मिला है परन्तु, मोबाइल केमरा, संगीत, फिल्में, वाई-फाई, बोतलबंद पानी, स्नेक्स आदि का जुगाड़ हो ही गया है। इन आभासी खुशियों के चलते जीवन के मायने बदल गये हैं। खेती किसानी, बढ़ईगिरी, लोहारी, राजमिस्त्री आदि ओछे काम घोषित हो गये हैं अघोषित रूप से। इन बदले हए मायनों में तारतम्य कैसे स्थापित हो, बड़ा सा प्रश्न चिन्ह मुंह बाये खड़ा है।
औद्योगिकीकरण और शहरी करण ने जमीन की आवश्यकता को सुरसा के मंुह की तरह अपना रूप धर लिया है। इनकी आपूर्ति के लिए वनों की कटाई, पहाड़ो की छंटाई, तालाबों की पटाई, खेतों की पटाई का काम जोरों से चल रहा है। बड़े बांधों ने हजारों हेक्टेयर जमीन लील ली है तो लोगों ने नदियों के किनारों तक मकान बना लिये। जहां मल्टीस्टोरी के निर्माण से आकाश छूने पर मजबूर हैं तो रईसों और रसूखदारों ने फार्म हाउस और पैसों के इनमें इनवेेस्टमेंट के लिए जमीनों का कब्जा रखा है। वर्तमान के सम्बन्ध में मेरा हमेशा का विचार कि बीमारी की जगह लक्षण का उपचार बड़ी कमजोरी है। भले ही इस कमजोरी के पीछे अफसर नेता ठेकेदार की मजबूरी हो, देखें जरा।
शहरीकरण के चलते शहर का लगभग एक तिहाई भाग सड़क मंे खप जाता है। तो हम ग्राम विकास की बातें क्यों नहीं करते जहां कम आबादी पैदल और संकरी गलियों में भी चल सकती है। न तो पेट्रोल, डीजल की खपत होगी न ही जमीन का विनाश।
एक व्यक्ति के पास सौ-पचास मकान हैं। सैकड़ो प्लॉट हैं वो किस काम के। सरकार ऐसा सिस्टम प्राथमिकता से क्यों नहीं बनाती कि कोई भी 2000 फीट से ज्यादा जगह न खरीद सके। खाली पड़े प्लॉट और मकान प्रकृति के विकृत दोहन के परिचायक नहीं है ?
शहरो में एक बाथरूम के बराबर जगह में परिवार रहते हैं। जितनी जगह में एक कार रखी जाती है उतनी जगह में परिवार रहते है। सरकार कार, जीप आदि प्रायवेट वाहनों का उत्पादन क्यों करती है ? देश में दस लाख कारंे है तो प्रति कार 50 स्केयर फीट के हिसाब से 5 करोड़ स्केयर फीट जगह अपने रखने के लिए उपयोग करती हैं। उसके हजार गुना उनके चलने, आगे-पीछे करने, दायें-बायें प्रवेश करने आदि में, कार गैरेज, कार शोरूम, कार फैक्ट्री आदि में जगह लगती है। किसी कार वाले से यह चर्चा करें वह आपको तुरंत पागल घोषित कर देगा। लाखों करोड़ों के रोजगार की दुहाई देकर अपनी सुविधा पर कुदृष्टि डालने की तुरंत ही सजा देगा।
सार्वजनिक परिवहन सिस्टम को क्यों नहीं मजबूत करते हैं ? कुल मिलाकर भूमि के उपयोग पर कड़ाई से नजर रखी जाये और उनकी सही ढंग से उपयोगिता बनी रहे यह एजेण्डा होना चाहिए, न कि सरकार (चलाने वाले नेता, अफसर, ठेकेदार) एक ओर जनता की हितैषी बन अस्पताल और मुफ्त दवा का प्रोपेगेण्डा रचे और दूसरी और शराब, गुटका, गुडाखु, गांजा बेचने/बनाने का लाइसेन्स भी जारी करें। यह तो वह पहलू है जहां ‘‘तिकड़ी’’ अपनी पेटी भरने के लिए अंधे होने का नाटक कर रही है, यदि हम बीमारी के बजाय लक्षणों का इलाज करने पर मजबूर हैं तब क्या करें ? उद्योग लगाना मजबूरी है, सड़क बनाना मजबूरी है शहर बसाना मजबूरी है। अस्पताल, स्कूल, कालेज, काम्पलेक्स, मल्टीफ्लेक्स, फ्लैट आदि की मजबूरी के चलते क्या किया जाय ?
बड़े बांध और पहाड़ों का कटाव जलवायु परिवर्तन का कारण बना गया है, वनों का विनाश तो पहले ही अवर्षा से सामना करवा चुका है। धरती के भीतर का पानी और खनिज तेल निकालना भूकंप का कारण हो चुका है। सबकुछ जानते हुए भी इस आग के कुंए में कूदकर रोमांचित होना मजबूरी है। वक्त की इस मांग के चलते वैचारिक परिवर्तन भी जरूरी हो गया है। हम एक ओर पुरानी जीवन शैली और तकनीक के पुरोधा बने रहना चाहते हैं तो दूसरी ओर वैज्ञानिक ‘‘मजा’’ मारने के लिए मरे जा रहे हैं। क्या हो ऐसा जिससे संतुलन बना रहे ?
वर्तमान में सबसे बड़ा विरोध भूमि अधिग्रहण का है। न तो किसी को बड़े बांधों से परहेज है न ही उद्योगों से, चौड़ी चिकनी सड़क सपना हैं तो 24 घण्टे बिजली और बिजली से चलने वाले उपकरणों की दरकार है। जमीन के बिना ये कैसे संभव हो ? न तो आपके बच्चों के पढ़ने के लिए बड़े कैम्पस वाला स्कूल/कालेज बन पायेगा जहां हरियाली क्रिकेट/ फुटबाल के मैदान भी हों, और न ही आपके घर से निकले कूड़े का डम्प स्टेशन बन पायेगा।
जंगल का कटाव अब काफी कम हो गया है क्योंकि वे बचे ही कम हैं। पहाड़ों का दोहन वहां रहने और छोटे बांधों के निर्माण के लिए हो रहा है। नदियां नालों में बदल गई हैं। किनारों तक बने मकान अपना कचरा डाल इन नाले रूपी नदियों को नाली में बदलने की कोशिश में लगे हैं। शहरों के विस्तारीकरण के चलते, शहरों से लगे गांव अब उस शहर के मुहल्ले बनते जा रहे हैं। इस स्थिति में दो ही रास्ते बचते हैं या तो हम पुरानी जीवन शैली अपना लें और इस विकास का पूर्ण रूप से बहिष्कार करें या फिर बीच का रास्ता निकाल कर परिस्थिति का योजनाबद्ध ढंग से सामना करें। समझौते की इस तस्वीर के दृश्य एकदम स्पष्ट हैं। नदियों का संरक्षण हो। दोनों किनारों से 100 मीटर की दूरी तक खुली जगह होनी चाहिए जहां वृक्षारोपण किया जाय। गंदे पानी, कचरे के दोहन के संयंत्र हों। कार जीप आदि का उत्पादन सीमित हो और टैक्स उनके मूल्य का कई गुना हो। किसी की मौज मस्ती के लिए अन्य लोग कम से कम अपना पैसा तो न लगायें।
इस भूमि अधिग्रहण में मुख्य मुद्दा है किसानों की जमीन का अधिग्रहण! हम किसानों कें हितैषी (सच्चे) आंख मूंदकर इस अधिग्रहण का विरोध कर रहे हैं। उनका कहना है कि खेत न हों तो भविष्य में अनाज की पूर्ति किस तरह होगी ? हितैषी (सच्चे) वर्तमान की आवश्यकताओं को समझते हुए ये कैसा राग आलाप रहे हैं ? वे खेती किसानी को आधुनिक बनाने की बात नहीं करते, खेती को उद्योग का दर्जा देने की बातें नहीं करते। वर्षा आधारित खेती को नहर आधारित खेती में बदलने की वकालत नहीं करते, छोटे छोटे खेतों को बड़े चक में बदलने की सोच नहीं बनाते, उत्पादित अनाज के भंडारण की अच्छी व्यवस्था की बात नहीं करते। खेती में मशीनीकरण के हिमायती नहीं बनते। ये तमाम मुद्दे उन्हें आंदोलित नहीं करते हैं। सदियों से इन्हीं गरीब किसानों की छाती पर पैर रखकर आगे बढ़ने वाला शोषक वर्ग अब रूप बदलकर ‘बौद्धिक जगत’ बनकर आ गया है। यदि इन हितैषियों ने खेती के आधुनिकीकरण पर तीस चालीस साल पहले काम किया होता तो आज इस तरह युद्ध नहीं लड़ना पड़ता। मात्र खाद और कीटनाशक से त्वरित लाभ वाली तकनीक अपनाई थी जो आज तक चल रही है।
खेती किसानी से प्राप्त आय को टैक्स फ्री करना भी खेती के पिछड़े बने रहने का बड़ा कारण है। बगैर उत्पादन किये ही तिकड़ी ने अपने काले पैसे को सफेद किया है। उन्हें न तो उत्पादन से मतलब न ही आधुनिकीकरण से। वो क्यों आधुनिकीकरण करेंगे ? इनके कारण कृषि उत्पाद के सही आंकड़ों का आज तक पता नहीं चल रहा है।
वर्तमान में जितनी जगह में खेती होती हैं उतनी ही जगह में आधुनिक खेती की जाये तो पूरे विश्व को अनाज दिया जा सकता है। फिलहाल तो आसमानी आशीर्वाद खेती करवाता है, देश के कुछ क्षेत्र ही आज तीन फसलें लेते हैं।
खेती को उद्योग में बदला जाय। दो तीन गांवों की पूरी जमीन को बड़े चक में बदला जाए, वहां के लोगांे को खेती के रकबे के अनुसार शेयर दिये जायें, ड्रीप तकनीक, वहीं उनके लिए भण्डारण की व्यवस्था, वहीं खरीदी और बहुत से पहलू हैं इन पर सुधार के जो कम जगह से ज्यादा उत्पादन करने पर सहायक हो सकते हैं। किसान हितैषी इन पर दृष्टि पात करें।
भूजल स्रोतों और नहरों का युक्तिपूर्ण, दीर्घ समय की योजनाओं से उपयोग किया जाय। अभी स्थानीय आवश्यकताओं पर आधारित योजनायें बनती हैं उन्हे बड़े स्तर की योजनाओं में बदलकर दीर्घकलीन फायदा उठाया जा सकता है।
खेती किसानी पर इतनी बहस इसलिए क्योंकि इसी जमीन को आधार बनाकर झूठे आन्दोलनों से लगातार माहौल बिगाड़ा जा रहा है। आश्चर्यजनक बात हैं कि बुद्धिजीवी खेती बचाने के लिए जीजान से जुटे हैं पर किसानों की हालत पर जरा भी चर्चा नहीं होती है- उनका एकमात्र तर्क होता हैं कि भविष्य में अनाज की आपूर्ति कैसे होगी और किसान भूमिहीन हो जायेगा। दोनों का उत्तर है आधुनिक खेती से उपज बढ़ाई जाय और किसानों को रहने के लायक जगह दी जाय, बड़े चक वाली खेती में शेयर दिये जायें। काम करने वालों को मजदूरी रोजी के हिसाब से दी जाय। मैनेजमेन्ट में प्रत्येक परिवार को रोटेशन के आधार पर पद मिले। हर छह माह में पद बदलें जायें। प्रत्येक परिवार के सदस्य को काम करना आवश्यक हो।
अभी तो बीज, खाद, बिजली, पानी, कीटनाशक, कर्ज आदि में सब्सीडी बांट-बांट किसानों को वर्षा पर निर्भर रहने को प्रेरित किया जाता है। हर क्वालिटी की उपज को खरीदने की बाध्यता ने किसानों को क्वालिटी उगाने की सोच से हटा दिया। सरकार का सहारा, प्रत्येक कार्य के लिए, भस्मासुर के हाथ की तरह होता है। जमीनी स्तर की योजनाओं से खेत और खेत के रखवालों की परिस्थिति सुधारी जाय।
वर्तमान भूमि के योजनाबद्ध उपयोग की मांग करता है। अगर आज सचेत होकर योजनाएं न बनाई जायें तो भविष्य मुश्किल हो जायेगा। न तो औद्योगिकीरण रोका जा सकता है न ही खेतों में उपजे अनाज के बिना किया जा सकता है। खेतों की जमीन का पूर्ण दोहन, विकास के उत्पादों की पूर्ति के लिए विशेष औद्योगिक क्षेत्र और शुद्ध हवा के लिए वनों का होना, वर्तमान की मांग है। ये तीनों चीजें देश के सभी प्रदेशों में समान रूप से फैली होनी चाहिए जिससे भविष्य में अनुत्पादक प्रदेश मात्र मजदूर बनाने की फैक्ट्री न बनें।
इस देश में वैचारिक आजादी का अर्थ किसी भी बात का विरोध हो चुका है। नक्सलवाद- सड़क, अस्पताल, स्कूल का विरोध करता है। बुद्धिजीवी वनों को बचाने के लिए लगा है। बड़े बांधों के विरोधी, उद्योगों के विरोधी। राजनीति का विपक्षी दल हमेशा विरोध की तलवार भांजता रहता है।
यही बुद्धिजीवी वर्ग विकास के सारे फायदों में बराबरी हिस्सा भी चाहता है/अजीब विरोधाभास है। विरोधियों के द्वारा विरोध किया जाना कई मामलों में उचित हो परन्तु उपाय बताना भी तो उनका फर्ज होना चाहिए। विकास क्षेत्र विशेष पर केन्द्रीत न हो बस यह ध्यान रखा जाय।
बस्तर पाति फीचर्स