अर्ध रात्रि का ज्ञान
पकने का समय कई दिनों से अब तक/लिखने का समय 8.00 पी.एम. से 12.35 ए.एम. दिनांक-17 अगस्त 2022
साहित्यमहल के स्तम्भ
लेखक-सनत सागर, संपादक बस्तर पाति, जगदलपुर, छ.ग.
रचना जी ने आते ही कहा-’मुझे जरा जल्दी है। सागर मुझे पहले पहले बुला लेना। घर में निमंत्रण रखा है भोजन का, मेहमान आये हुये हैं।’
सागर उनका मुंह ताकता रह गया। वह संकोचवश कह नहीं पाया कि हमारा प्रोग्राम तो कल ही तय हुआ था अगर आपने अपने घर में निमंत्रण रखा था तो हमारे साहित्यिक कार्यक्रम में अतिथि बनने की स्वीकृति ही क्यों दी।
उसे मालूम था कि रचना जी को अपनी बात कह कर जल्दी से घर भागना है। वैसे भी रचना जी का हमेशा की यही नौटंकी होती है कार्यक्रम में कभी समय से नहीं आती हैं और आते ही जल्दी भागने के जुगाड़ में लगी रहती हैं। और यदि अतिथि बना दो तो घंटों मंच पर बैठी रहेंगी।
तिस पर भी वो टोका टाकी करती रहेंगी कि वो ज्यादा बोल रहा है, उसको कम बोलने बोलो, उसको मत बोलने दो। यानी अपनी उपस्थिति दर्ज करवाती रहेंगी उंगली कर करके।
माइक पर अतिथि महोदय पिछले पंद्रह मिनट से बोल रहे थे। विषय था ’समाजिक कुरीतियों का कारण और निवारण’ और वे थे कि नदियों को आपस में जोड़ने से होने वाले नुकसान पर बोल रहे थे। मंच पर आसीन अन्य अतिथि भी शायद उनसे प्रेरणा लेकर अपने बोलने की प्रतीक्षा कर रहे थे।
आखिरकार नदी वाले अतिथि ने अपनी बात पूरी कर ही ली इस असंतोष के साथ कि अगर समय होता तो विस्तार से अपनी बात रखते। सागर ने अपनी घड़ी के टाइमर को देखा वो टाइमर उनके द्वारा लिये गये सीमित समय 29 मिनट को बता रहा था।
खैर! अब शालिनी जी ने अपना उद्बोधन रखा।
’मैं इस मंच से देख पा रही हूं राजेश जी को और महेश जी को। सत्येन्द्र जी जो उस कोने पर बैठे हैं मैं लेखन से बेहद प्रभावित हूं। खान साहब हमेशा चुपचाप बैठे रहते हैं परन्तु बेहद सुंदर गजल लिखते हैं……’’
यानी उस सभा में माजूद समस्त लोगों का नाम लेकर उनकी तारीफ करती हुई शालिनी जी ने लगभग तेरह मिनट इसमें ही गंवा दिये। तब आगे बोली।
’हां, तो आज का विषय चूंकि एक दिन पहले ही बताया गया है इसलिये मैं इस पर कुछ कह नहीं सकती। सागर ने मुझे मंच दिया, अतिथि बनाया इसलिये बहुत बहुत धन्यवाद।’ शालिनी जी पुनः अपनी कुर्सी पर बैठ गयीं। उनके पास बैठे अन्य अतिथि ने उनके अंगूठे का इशारा करके उनके बोलने की सफलता पर बधाई दी।
तभी श्रोताओं के बीच बैठे एक कवि ने अपनी छाती पर उंगली रखकर खुद को बुलाने का इशारा किया। संचालक सागर चुपचाप अपनी मुंडी झुकाये रख यूं जताया मानो उसने देखा ही नहीं। उस बेचारे की मजबूरी थी। वहां बैठे कवियों की भीड़ में हर कोई चाहता था कि जब तक भीड़ ज्यादा है अपनी सुनाओ और खिसक लो। आखिरी में वही दस बारह बुजुर्ग बचेंगे जिनके घर कोई काम नहीं है या फिर वो किसी के साथ लद कर आये हैं।
तभी मंच पर युवातुर्क महान कवि प्रस्तुत हुये और उन्होंने कहना शुरू किया।
’वैसे तो मैं ऐसे छोटे मोटे कार्यक्रमों में आता ही नहीं हूं। आज आ गया क्योंकि सागर ने पांच बार से ज्यादा बार मुझे घर आकर बुलाया। फिर यहां आकर देखा तो समझ आया कि कार्यक्रम कराना सागर के बस की बात नहीं है। बेवकूफों की तरह अतिथियों को बैठा दिया मंच पर। खैर, मैं अपनी कविता जल्दी से सुनाकर जाना चाहूंगा क्योंकि मेरे नामचीन साहित्यकार दोस्त हिमाचल प्रदेश से आये हुये हैं मेरा इंतजार कर रहे हैं बार बार उनका फोन आ रहा है।’
युवातुर्क के संबोधन से पूरा सदन एकाएक चुप हो गया।
खैर! उन्होंने अपनी कविता सुनाई। खास बात थी कि वो उस पत्रिका से कविता सुना रहे थे जिस पत्रिका के कवर पर उनकी फोटो बनी थी। और कविता पढ़ने के पहले उन्होंने कहा था कि मेरी ये कविता जन जन की जुबान पर है। उन्होंने अपनी कविता ’सरगी के पत्ते’ सुनाई जो लगभग हर मंच पर सुनाते थे।
सागर सोच रहा था एक ही कविता बरसों से सुनाते हुये भी खुद को ही याद नहीं है और इसी कविता को बता रहे हैं कि जन जन की जुबान पर है।
इन महाशय को बुलाते क्यों हैं सोच कर सागर अपने सर को धुन रहा था। दूसरों का मंच बिगाड़ना उनका हमेशा का शगल था।
उसकी सोच चल ही रही थी कि श्रोताओं के बीच बैठे उन्हीं कवि ने फिर अपनी छाती पर उंगली टिका कर इशारा किया खुद को बुलाने का। परन्तु सागर अपनी सूची के अनुसार उस कवि को बुलाया जो काव्यगोष्ठी ओर परिचर्चा में पहले से आकर बैठा था। जैसे ही उसने किसी दूसरे का नाम पुकारा वो छाती पर उंगली टिका कर इशारा करने वाले महाशय उठकर बाहर निकल गये। उनके चेहरे पर क्रोध झलक रहा था। सागर ने चैन की सांस ली।
तभी सामने बैठे वर्मा जी ने ’वाह एक बार और!’ कह कर उजड्ड सी कवयित्री की घटिया रचना पर प्रतिक्रिया देकर उस कवयित्री का मनोबल बढ़ाकर उसे दोबारा पढ़ने का मौका दिया। कुछ लोगों ने वरिष्ठ साहित्यकार माने जाने वाले वर्मा जी की ओर अचरज से देखा तो उनके हमउम्र कवि ने उनको आंखों ही आंखों में मुस्कुरा कर शाबासी दी।
तभी उनके साथ बैठे एक और महान कवि ने ’बहुत सुंदर’ कहकर उस कवयित्री की कविता पर कमेंट किया। लोग समझने की कोशिश में थे कि उन्होंने कविता पर कमेंट पास किया है या फिर कवयित्री पर। सागर ने उनको ध्यान से देखा वो शराब के नशे में थे, ऐसा महसूस हुआ।
सागर सोच रहा था कि अतिथियों को मंच पर आमंत्रित करते ही संध्या जी उठ कर चली गयीं थीं। वे मुख्य अतिथि मटेरियल थीं। उनको यदि किसी भी कार्यक्रम में मंच पर नहीं बैठाया जाता था तब वो भुनभुनाती हुईं घर चली जाती थीं।
रत्नेश जी हमेशा अपने उद्बोधन में ये जरूर बताते हैं कि उनके पिता से मिलने एक बार सूर्यकांत निराला जी आये थे। मतलब अगर आप निराला जी से मिले हैं तो आप भी निराला जी के समकक्ष हो गये। ये कैसी बात है, कैसा तर्क है भाई।
सागर का सर भन्नाने लगा। वह कार्यक्रम के समाप्त होते ही चाय पीने की योजना बनाने लगा।
आखिरकार कार्यक्रम समाप्त हुआ। और वह सभी को नमस्कार करके भवन के उस कमरे की सफाई में जुट गया।
आयोजक और मंच संचालक सागर जूठी प्लेंटों को उठाता हुआ सोच रहा था साहित्य के स्तम्भों के बारे में। साहित्य का भविष्य देखने की कोशिश कर रहा था। और उसकी आंखों में सिर्फ एक ही प्रश्न बार बार आकर तैर रहा था -क्या ऐसे ही साहित्य बचेगा ?