आदरणीय संपादक महोदय नमस्कार
आपकी पत्रिका मिली पढ़कर संतुष्टि हुई कि लीक पर ही नहीं चला जा रहा है। बल्कि मौलिक लेखन पर ध्यान दिया जा रहा है। वरना आजकल वही घिसीपिटी रचनाओं को शब्द बदल कर लिख दिया जाता है। न तो उसमें चिंतन होता है न ही कोई रस। ऐसी रचनाएं लिखकर मानो लेखक पाठकों पर अहसान कर रहा हो। इस दौर में सबसे ज्यादा प्रचलित है भारतीय संस्कारों पर उठते प्रश्न। भारतीय जीवन पद्धति पर कटाक्ष। भारतीय जीवन आधार को हिलाने की नाकाम कोशिश। हर दूसरी कविता राम को गरियायेगी या फिर रावण के लिए आंसू बहायेगी। इस प्रकार का लेखन आजकल फैशन हो गया है। जबकि ये गलत है, वास्तविकता से परे। एक ओर रामायण और महाभारत को मिथक बताते हैं और दूसरी ओर उसके आधार पर देश में उस वक्त से शोषण की कहानी को ढूंढ कर सबको सुनाते हैं। अजीब महौल है आजकल।
आपकी पत्रिका में बहस कॉलम के माध्यम से साहित्य की बारीकियां शानदार ढंग से समझायी जा रही हैं। पिछले अंक में बहस कॉलम के अंतर्गत गांधीवाद और मार्क्सवाद की तुलना पढ़कर बहुत कुछ समझने को मिला। मार्क्स रूपी विदेशी यूकेलिप्टस के बीज को हमारे देश के पूज्यनीय बरगद, पीपल को उखाड़ कर रोपा गया है। इसका खामियाजा देश भुगत ही रहा है। साहित्य में एजेण्डापोषण एक बहुत बड़ी बीमारी है। इसके कारण ही पाठक वर्ग पत्रिकाओं से दूर हुआ है। कोई भी अपनी चवन्नी खर्च करता है तो उसका उसे प्रतिफल चाहिए। यहां तो कई पत्रिकाओं में जातिवाद, स्त्रीमुक्ति के नाम पर नंगापन परोसा जाता है।
खैर! आपकी मेहनत और हिम्मत को साधुवाद जो आप धारा के विपरीत चल रहे हैं।
किशोर कुमार जगदलपुर
आदरणीय किशोर जी नमस्कार
आपका पत्र प्राप्त हुआ। धन्यवाद। यूं तो काफी पत्र आते हैं परन्तु आपका पत्र इसलिए महत्वपूर्ण महसूस हुआ कि इसमें आपने ’बस्तर पाति’ की प्रकाशन सामग्री पर टीप की है और वह भी गहरी।
वास्तव में यह सच्चाई है कि दुनिया में लोगों की तरह, पत्रिकाएं भी भाग रही हैं सिर्फ इसलिए कि महीने, दो महीने या तीन महीने में प्रकाशित करना ही है। मजबूरी है अगर रचनाएं आयें तो ठीक न आयें तो ठीक। स्तरीय हों या न हों। पत्रिका के सदस्यों की रचनाएं प्रकाशित करना मजबूरी है। कुछ महान घोषित लेखकों की रचनाओं का प्रकाशित करना मजबूरी है क्योंकि इससे ही पता चलता है कि हमारी पत्रिका महान है। लाइम लाइट में रहने वाले रचनाकारों को प्रकाशित करना, उनके समूह को मान्यता देना, एक तरह से हिन्दी पत्र पत्रिकाओं में परम्परा बन गई है। क्योंकि ऐसा न हो तो आपकी पत्रिका की चर्चा उन मठाधीशों के बीच नहीं होगी और आप बेपटरी हो जाओगे।
यहां रेखांकित करना जरूरी है कि कुछ पत्रिकाएं खुद को स्थापित करने या फिर अपने लोगों को स्थापित करने के लिए प्रकाशित की जा रही हैं। या फिर विज्ञापन और एन जी ओ बना कर सरकारी चंदा ऐंठने के लिए। इनके बीच कुछ पत्रिकाएं स्वांतसुखाय प्रकाशित की जा रही हैं खुद का धन, मन और तन खपाकर! न तो इनको विज्ञापन मिलता है न ही साहित्य के क्षेत्र में विशेष सम्मान। फिर भी ऐसे समर्पित प्रकाशक, संपादक और घर फूंक तमाशा देखने के शौकीन समय समय पर इस धरा पर प्रगट होते रहते हैं। इनके भीतर जज्बा होता है समाज को बदलने का, समाज के लोगों की सोच को बदलने का और मसाज में व्याप्त बुराइयों को दूर करने का। अपनी क्रांतिकारी सोच के चलते इस क्षेत्र में कूद पड़ते हैं। जो होगा देखा जायेगा की सोच पर। न तो उनको छपाई का दाम पता होता है न ही हिन्दी व्याकरण का ज्ञान होता। पर उनके पास होता है जज्बा और हिम्मत अनजाने आने वाली समस्याओं से जूझने की ताकत। इसी हौसले के दम पर वह धीरे-धीरे सबकुछ सीख जाता है। तमाम आलोचनाओं और घमंड से भरे साहित्यकार और स्वघोषित महान स्थापित, राष्ट्रीय साहित्यकारों का सामना करता है।
परन्तु वो हारता एक ही चीज से है, वो होता है उसका नाजायज उपयोग करना। लालची लोग (साहित्यकार कहना गलत होगा।) इस हिम्मत से भरे युवा का तरह तरह से उपयोग करने लगते हैं। सिर्फ इससे ही चिढ़ने के कारण पत्रिका का भविष्य अंधकारमय हो जाता है।
फिर भी पांच से दस साल तक ऐसी लघुपत्रिकाओं की आयु होती ही है। इस बीच और कोई ऊर्जावान युवा आ जाता है। यह प्रक्रिया सतत चलती रहती है।
इन लघुपत्रिकाओं में क्या प्रकाशित किया जाना है यह एक बहुत बड़ा सवाल है। तमाम पत्रिकाओं में स्त्री विमर्श के नाम पर अश्लील कहानियां भी प्रकाशित की जाने लगी हैं। किसानों, मजदूरों के नाम पर ढेरों रचनाओं के चलते लघुपत्रिकाएं मजदूर यूनियन का मुखपत्र लगने लगी हैं। दलित विमर्श के नाम पर वकालत का अड्डा हो गई हैं। सेकुलर साबित करने के लिए और खुद को सभी जगह स्वीकार्य बताने के लिए अल्पसंख्यकों की सच्ची झूठी गाथाओं का धारावाहिक बन गई हैं।
बार बार एक ही बात को घुमाफिरा कहने प्रकाशित करने के कारण पत्रिका पढ़ना एक उबाऊ काम है। समय काटने का मतलब समय बरबाद करना तो नहीं होता है। आपने सही कहा कि एजेण्डा रचनाओं से पत्रिकाओं का समूह भरा पड़ा है। बल्कि यूं कहें कि एजेण्डा रचनाओं से गंधा रहा है तो अतिश्योक्ति न होगी।
कुछ समय पूर्व लघुपत्रिकाओं के सम्मेलन में भाग लेने का मौका मिला था। उस दो दिन के सम्मेलन में मेरे अलावा किसी और ने इस विषय पर बात नहीं की कि पाठक पत्रिकाओं से दूर क्यों हैं ? बल्कि सभी ने जल जंगल जमीन का एजेण्डा दिनरात लाल झंडे के साथ उठाये रखा।
मैं उस सम्मेलन में कई बार खुद को च्यूंटी काट कर जांचता रहा कि कहीं मैं किसी राजनीतिक कार्यालय की मीटिंग में तो नहीं आ गया हूं। वर्तमान सत्ता के प्रति बैर देखकर अचरज से भरा रहा। दिनरात अपने अधिकारों और संविधान की बात करने वाले वर्तमान सत्ता को स्वीकार ही नहीं कर पा रहे थे। वे बेचारे लेखक थे इसलिए हाथ में कलम थी वरना हथियार होने पर उसी दिन सरकार निपटा देते।
हंसी आने के साथ बेचैनी भी हुई कि इन पत्रिकाओं ने एक पूरी सदी में समाज को अजीब तरह के ढांचे में जकड़ दिया है। हम खुद से ही नफरत करते जी रहे हैं। अपनी संस्कृति को खुद ही दोयम मान कर शर्म से गड़े हुए हैं। अपने संस्कार मूढ़ता के चिन्ह लग रहे हैं जिसे हम जब तब दीवारों से रगड़ रगड़ कर मिटाने की कोशिश करते रहते हैं।
लेकिन तमाम विसंगतियों के बावजूद हमारे जीवन में सोशल मीडिया का आना और इसका सर चढ़कर बोलना बहुत कारगर रहा। पत्रिकाओं का एकाधिकार खत्म हो गया। उनका एजेण्डा फैलाना खत्म हो गया। समाज आंखें फाड़ कर देख रहा है कि जिन पत्रिकाओं को हम जीवन में आवश्यक अंग मानते थे वो तो पूरी तरह से बिकी हुई थीं, झूठ का पुलिन्दा थीं। धीमा जहर झटके में बेअसर हो गया। लेखक समाज प्रकाशन के मोह से धीरे धीरे दूर जा रहा है। वास्तविकता से जुड़ना उसके लिए महत्वपूर्ण हो गया है। उसके पास सोशल मीडिया का असीमित स्पेस है। जहां अनगिनत पाठक हैं। जिसकी लेखनी में दम है वो आगे बढ़ रहा है और जिनकी बेजान लेखनी है उसे तुरंत नकार दिया जा रहा है। पत्रिकाओं में छाप-छाप कर महान बनाने की प्रक्रिया पर पूर्णतः लगाम लग गया है।
आपका धन्यवाद जो आपने ऐसा पत्र लिखा कि एक समीक्षा हो गई।
सनत जैन संपादक बस्तर पाति