स्मृति चित्रांकन : लाला जगदलपुरी
‘बस्तर पाति’ के पाठकों के लिए अर्न्तःमन से दो शब्द कहना चाहूंगी, जब मैंने सुना कि ‘बस्तर पाति’ का आगामी अंक स्व. लाला जगदलपुरी जी को समर्पित है, तो मैं अपने अतीत के उन पृष्ठों को पलटने के लिए विवश हो गई, आदरणीय लालाजी एवं उनसे जुड़ी हुई बातें एक रेखाचित्र की तरह जीवंत हो गई।
मैं कई वर्षों से अपने अंतस में निरन्तर उनकी स्मृति चित्रांकन को संजोये रही और आज अवसर पाते ही उस मूक अभिव्यक्ति को शब्द देने का प्रयास कर रही हूँ, इस अनुभव को अपने सौभाग्य एवं सबसे बड़ी प्रसन्नता का कारण भी मान रही हूँ कि मैं इतनी साधारण होकर, इतने असाधारण गरिमामय व्यक्तित्व के धनी, साहित्य साधक, सरस्वती पुत्र ‘लाला जगदलपुरी जी’ के लिए आत्मचिन्तन को शब्द रूप दे रही हूँ।
‘लालाजी’ से संबंधित स्मृतियों को जीवंत करने के के लिए अतीत के कुछ पन्नों को पलटना होगा……..86-87 की बात है, उस समय मैं 22-23 वर्ष की थी, उन दिनों आकाशवाणी जगदलपुर के ‘आमचोगांव’ कार्यक्रम के अन्तर्गत मेरी एक ‘दोरली’ कहानी प्रसारित हुई, इसे एक संयोग ही कहूँगी कि पूर्व घोषित कहानी वाचक उपस्थित नहीं हुए, और मुझे कहानी वाचन का अवसर मिला। मैं मूल निवासी कोन्टा जिला सुकमा छ.ग. हूँ- जो ‘दोरली’ बोली बाहुल्य क्षेत्र है, बाल्यावस्था से ही उन्ही जनजातियों के बीच रही, एवं हायर सेकेण्डरी शिक्षा पूर्ण की। तात्कालीन अज्ञानतावश, ‘दोरली’ बोलना, कहानी वाचन या लिखना आदि में रूचि महसूस नहीं कर पायी, इस बोली के महत्व को समझने में भी असमर्थ रही।
किन्तु बाल्यावस्था में सीखी हुई बोली को विस्मृत कर पाना कहाँ मुमकिन है, जब अवसर मिला तो मैं ‘‘दोरली’’ बोली में कहानी प्रस्तुत करी। हाँ तो उस प्रसारण को ‘लालाजी’ सुन लिए, और दूसरे ही दिन आकाशवाणी जाकर, मेरे बारे में पूछ-परख लिया, उस समय मैं सहा0शिक्षिका के रूप में शहर के ही प्रा0शा0 सुभाषचन्द्र बोस में पदस्थ थी, उन दिनों संचार के कोई तीव्रगामी साधन तो रहे नहीं, पोस्टकार्ड, लिफाफा, अर्न्तदेशीय पत्रों का जमाना था। एक दिन मुझे शाला के पते पर ‘लालाजी’ का लिखा हुआ एक पोस्टकार्ड मिला, जिसमें सुन्दर-स्वच्छ सुलेख में उन्होंने मेरी आकाशवाणी में प्रसारित ‘दोरली’ कहानी की प्रशंसा करते हुए निरन्तर रचना धर्म निभाने की सलाह देते हुए शुभकामनाएँ प्रेषित की थी।
लगभग एक माह बाद पुनः उनका एक और पोस्टकार्ड मिला, जिमसें वे लुप्त होती हुई बोली ‘दोरली’ को जीवंत रखने का अनुरोध किया, शुभकामनाएँ दी, निरन्तर लिखने की सलाह दी। पर मैं प्रभावहीन ही रही, कुछ अज्ञानतावश, कुछ विषय वस्तु की गरिमा को ना समझ पाने की भूल, और कुछ अपरिपक्व मानसिकता। (पाठकों से क्षमाप्रार्थी हूँ, कि मैं उन अमूल्य पत्रों को सुरक्षित भी नहीं रख पायी।)
अब आगे……प्रातः कालीन शालेय समय था, हम सभी शिक्षक/शिक्षिकाएं स्टाफरूम में ही थीं, प्रधानअध्यापक महोदय कुछ चर्चा कर रहे थे, कि अचानक से एक दुबले-पतले, लंबे कद वाले, सामान्य सा धोती-कुरता पहने, पर मुख-मण्डल में ज्ञान की आभा और गरिमामयी व्यक्तित्व वाले व्यक्ति का प्रवेश हुआ, आते ही कहने लगे- ‘अरे त्रिपाठी वो ‘नवनीत कमल’ कौन है बुलाओ ?’ और मैं मन में उन्हें जानने की जिज्ञासा एवं अनावश्यक भय लिए आश्चर्यचकित सी देखने लगी, और सभी मुझे देख रहे थे फिर उनकी भी दृष्टि मुझ पर पड़ी, शायद मेरे हाव-भाव से ही वे समझ गए कि अमुक नामधारी मैं ही हूँ। वे मेरे करीब आए और कहने लगे- ‘बेटी तुम लिखो। तुम कहानी- बहुत अच्छा पढ़ी हो, आगे भी प्रयास करो, दोरली बोली लुप्त होती जा रही है, उसे बचाओ अपना रचना धर्म निभाओ।’ मेरे मन का जो भय था वो, दूर हो गया, मैं ध्यानपूर्वक उनकी बातें सुनने लगीं, प्र0अ0 महोदय ने उनका परिचय बताया, मैं प्रणाम करी, उनका आर्शीवाद मिला।
तत्पश्चात दोरली में तीन कहानियां लिखकर श्री हरिहर वैष्णव के पास भेजी जो ‘बस्तर की लोककथाएं’ के संपादक हैं, में वे कहानियाँ प्रकाशित हुई। दूसरे संस्करण में पुनः प्रकाशित हुई। इस तरह एक युग पुरूष साहित्यकार ‘लाला जगदलपुरी जी’ आज भी मेरे स्मृतियों में जीवंत हैं। उनका आशिर्वाद पाकर निरन्तर मुझमें सृजनात्मकता बनी रहे, प्रयासरत हूँ।
श्रीमती नवनीत कमल
शांतिनगर, जगदलपुर
जिला-बस्तर,
पिन-494001
मो.-09826514839