इन्द्र धनुषी व्यक्तित्व – लाला जगदलपुरी
एक छोटा सा कसबानुमा शहर, जगदलपुर, जिसके एक पिछड़े मुहल्ले में कवि निवास है, जो लालाजी के सिवा किसी और का नहीं। लालाजी ने इसी निवास में आँखे खोली, उस निवास ने उन्हें छाती से लगाए रखा और यहीं उन्होंने अंतिम सांसें ली।
1920 में जन्में लालाजी ने 1936 से लिखना प्रारम्भ किया तो अपने नाम लालाराम श्रीवास्तव से ‘राम श्रीवास्तव’ हटाकर ‘जगदलपुरी’ संयुक्त कर लिया और बस्तर जिले के जगदलपुर से ऐसे एकाकार हुए कि साहित्य और संस्कृति के क्षेत्र में जगदलपुर की पहचान बन गए।
बचपन में ही पिता का साया सर से उठ गया। अभावों और संघर्षों में जीते जीवन की शिक्षा-दीक्षा को अपना मार्गदर्शक बनाया। वह स्वीकारते कि साहित्यिक लेखन की प्रवृत्ति उनमें कैसे आई वह स्वयं नहीं जानते। आसपास का वातावरण तब भी असाहित्यिक था और आज भी असाहित्यिक है। फर्क इतना रहा कि तब के लोग सब अल्प शिक्षित थे और आज के व्यक्ति सब उच्च शिक्षित हैं।
लालाजी कहते थे कि जिन दिनों उन्होंने अपने जन्म स्थान जगदलपुर में अपने ढंग से अपने स्तर पर साहित्यिक लेखन की शुरूआत की थी, उन दिनों उनके आसपास का असाहित्यिक वातावरण बहुत ही बोझिल, उबाऊ, संकीर्ण और अत्यंत कष्टप्रद था, क्योंकि उनके आसपास उस वातावरण में स्वतंत्र चिन्तन, लेखन के लिये कोई गुंजाइश नहीं थी। न घर में न बाहर। निष्पक्ष होकर बोलना बताना भी मना था। राष्ट्रीय विचारों के अखबारों को पढ़ना भी प्रतिबन्धित था। ऐसे शुष्क ऐसे और विपरीत माहौल में, अकल्पनीय अभिव्यक्ति संकट से, उस काल-खंड में अपनी वैचारिक-जिजीविषा की रचनाधर्मिता की रक्षा करते हुए उनके भीतर का रचनाकार सृजन कर्म के इस नए दौर तक पहुंच सका था।
वह कहते थे कवि सम्मेलनों की पुरानी परम्परा, एक स्वस्थ-परम्परा थी जिसके तहत मंच पर प्रायः सशक्त और शालीन रचनाएं ही स्थान पाती थी। तब मंच पर लोग पेंगे नहीं चलाते थे। वहां कविताओं के बीच लतीफों और चुटकुलों की घुसपैठ नहीं हो पाती थी। हूटिंग का चलन नहीं था। आज की तरह मंच बदचलन नहीं था।
जहां भी कवि सम्मेलन होता वह वहाँ निश्चित रूप से चले जाते। कड़की में भी गांठ के पैसे खर्च कर कवि सम्मेलन भोगने में उन्हें आनन्द आता था। बाद में लोग मार्ग-व्यय दे कर बुलाने लगे थे।
शब्द चयन के विषय में लालाजी का मानना था कि सृजन-कर्म की तन्मयता के क्षणों में रचनाकार अपने कथ्य के लिये उपयुक्त शब्दों की तालिका लेकर रचना करने नहीं बैठता। इसलिये शब्द चयन की बात अस्वाभाविक लगती है। सच तो यह है कि उन क्षणों में शब्द स्वयं कथ्य ये प्रेरित प्रभावित होकर उसे अभिव्यक्ति देने के लिये अनुशासित हो कर पंक्तियों में बैठते चले जाते हैं।
अभिव्यक्ति के दायरे में वह किसी भी भाषा या बोली के शब्द-प्रवेश का हार्दिक स्वागत करते थे। ऐसे शब्दों को जो आम बोल-चाल में रच बस गए हों, आदमी को आदमी से जोड़ने में सहायक सिद्ध होते हों, वह शाब्दिक साम्प्रादियकता के कट्टर विरोधी थे। वह कहते थे कि भाषा न तो हिन्दू होती है, न मुस्लिम, न ही क्रिश्चियन होती है परन्तु इसका यह मतलब भी नहीं कि भाषा का कोई धर्म ही नहीं होता। उसका धर्म होता है- ‘‘मानव धर्म’’। भाषा किसी की बपौती नहीं होती। उस पर सब का समान अधिकार होता है। भाषा ऊंच नीच, गोरे काले आदि का भेदभाव नहीं बरतती। भाषा समय पर शस्त्र बनकर साथ देती है और समय पर मरहम बन कर राहत पहुंचाती है। उसे व्यर्थ के झगड़े में डालकर दुख नहीं पहुंचाना चाहिए।
उन्होंने अनुवाद, लेख, कहानियाँ, नाटक, बाल कहानियाँ आदि पर भी काम किया। हिन्दी और हल्बी में उनकी चौदह पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं, और अनेक पांडुलिपियां प्रकाशन की राह देख रही हैं।
उन्हें मौत से भय नहीं लगता था। वह मानते थे कि जब मौत आएगी, वह उसे खुशी से गले लगा लेंगे, उसका स्वागत करेंगे, उसे पूरा सम्मान देंगे और वास्तव में वैसा ही हुआ। वह चुपचाप चिरनिन्द्रा में लीन हो गये। एक लम्बी साहसिक साहित्यिक यात्रा पर विराम लग गया।
लालाजी ने छत्तीसगढ़ी, लोक बोली हल्बी, भतरी में भी सृजन कार्य किया है। बस्तर के लोग संस्कृति, लोक कला, लोक जीवन, लोक साहित्य और लोक संगीत के प्रमाणिक स्वरांकन, लेखन और सर्वेक्षण के लिये अपना सम्पूर्ण जीवन समर्पित कर दिया। बस्तर उनकी मातृभूमि होने के साथ कर्मभूमि बन गया। यह कलम का सिपाही, साहित्य साधक अपनी डगर पर अकेला ही चलता रहा, कर्म किये जाता रहा, उने न तो मंजिल का पता था और न ही मंजिल की तलाश, मिले या न मिले कोई शिकवा नहीं। सारी रचनाओं में स्वयं के अनुभवों को अभिव्यक्ति है। लालाजी कहते हैं-
किस किस से बोलें बतियाएं सब अच्छे हैं / आगे, पीछे, दायें, बायें, सब अच्छे हैं।
सब को खुश, रखने की धुन में सब के हो लें / मिल बैठे सब, पियें पिलायें, सब अच्छे हैं।
भलमनसाहत की पोशाकें पहन-ओढ़कर / राजनीति में आंख लड़ायें, सब अच्छे हैं।
एक वर्ष में, एक दिवस हिन्दी के हो लें / भाषण दें, तालियां बजाएं, सब अच्छे हैं।
बस्तर की मिट्टी, बस्तर की सुबहो शाम, बस्तर के आते-जाते मौसम, सभी का प्रभाव लाला जी के जीवन में था। वह खुली आंखों से देखते ही नहीं बल्कि उन्हें मन की गहराईयों में उतारते थे। लाला जी का आत्म दर्शन, शब्दों का चयन और भावनाओं से ओतप्रोत उनके गीत अपने भीतर बस्तर की घाटियों, नदी, नालों, गुफाओं और आब शारों को संजोए हुए हैं।
वह कहते हैं-
मैं इन्द्रावती नदी के बूंद-बूंद जल को /अपने दृगजल की भांति जानता आया हूं।
मेरे सपनों की ऋतु वसंत, मद भरे-भरे /रम रहे मनोरम वनस्थली के वन-वन में।
तरू-तरू पर कूक रहे पिक मेरे प्राणों के /टहनी-टहनी, फुगनी-फुनगी के शोभन में।
मैं चितरकोट के पाषाणों पर फूट पड़ा /तीरथगढ़ मेरे दर्द गा रहा निर्जन में।
तेलिनघाटी की हर भांवर के तय होते /हर विपदा को सहचरी मानता आया हूं।
मेरे जीवन के तम का डेरा कोटमसर /जगमग प्रकाश गहवर में जिसपर न्योछावर।
मेरे मन-मंदिर के विग्रह छत विक्षत पड़े /जा देखे बारसूर में कोई यायावर।
प्रतिपल दन्तेवाड़ा में विनत शीश मेरा /बैलाडीला पर गर्वित मेरा उन्नत सर।
दुख जैसे पर्वत, घाटी मेरे संयोगी /सब की सुन-सुन जिनकी बखानता आया हूं।
मैं इन्द्रावती नदी के बूंद-बूंद जल को /अपने दृगजल की भांति मानता आया हूं।
लाला जी का हल्बी गीत कृषि भूमि और किसान की आपबीती बयान करता है –
छाती असर बेड़ा तुमचो /बांहा असर पार।
फटई असर धान उड़ले /भरे दे कोठार।
सुना खेतियार हो /सुना खेतियार
उदिया जोन चोईरा धरून /काटवां आंधार।
लेहरा एउन काय करे दे /मन चो दिया बार। /सुना खेतियार हो
रूख-छायं ने चिंउर-चावर /होए से कोल्हार।
धाम के दखुन जीवन डरले /तुम चो होयदे हार। /सुना खेतियार हो।
लाला जी के छत्तीसगढ़ी गीत की लय तान देंखे –
मनखे कहूं बंधागे हे /मन के मया नंदागे हे।
काला कहिबे भइया गा /काखर कोन सुनइया गा।
लूसे लेथंय बैरी मन /मरगे गांव गंवइया गा।
अब्बड़ जीवन निटागे हे /मनखे कहूं बंधागे हे।
फूटिस करस कमइया के /जागिस भाग ठगइया के।
दुश्मन ला टार वं सगी /आंटय लहू पिवइया के।
चन्दा फेर लुकागे हे /मनखे कहूं बंधागे हे।
लाला जगदलपुरी के भीतर बाहर बस्तर की माटी की महक थी। उन्हें अनेक अवसर मिले जिन का लाभ उठाकर वह बस्तर छोड़कर बाहर जा सकते थे लेकिन उन्होंने सारे अवसर छोड़ दिए। जिस चिराग़ की रोशनी में उन्होंने साहित्य रचा उसे जलाए रखा और उसी के प्रकाश में साहित्य को संवारा, दुलारा। बस्तर की मिट्टी से उन के साहित्य रूपी पेड़ की जड़ें खाद-पानी लेती थीं। यहां के आदिम जन-जीवन नें उन्हें आत्म मुग्धि की सीमा तक प्रभावित किया।
यहां नदी नाले/झरने सब आदिम जन के सहगामी हैं
यहां जिन्दगी बीहड़ वन में/पगडंडी सी चली जा रही
यहां मनुजता वैदेही सी/वनवासिन है/वनस्थली में
आदिम संस्कृति शकुन्तलासी/प्यार लुटा कर दर्द गा रहीं।
चइत परब, लेजा के/स्वर पिघलाती हैं पहाड़ियां
तन पत्थर, मन मोमी बस्तर/सरस यहां जन विजन-झाड़ियां
और लाला जी इस मोम से नर्म, निर्मल, निश्चल बस्तर के सजग सरल प्रवक्ता थे, सच्चे सरस्वती उपासक थे।
पूरी तरह से पुस्तकों, पत्रिकाओं, ग्रंथों से पटा हुआ उनका कमरा, जिसमें उम्र के आखिरी दिनो ंतक आगुंतुकों, लेखकों, कवियों का उन्होंने स्वागत किया। हर छोटे-बड़े से प्रसन्न होकर मिले। मेरी उनसे आख़री दिनों तक मुलाकात होती रही। वह मुझे देखते ही गले लगा लेते और कहते-परवे़ज, तुम्हें देखकर, मिलकर मुझे आत्मसुख मिलता है, बातें करके मन को शांति मिलती है, मैं चल फिर नहीं सकता, बस यूं ही आ जाया करो। जीवन रूपी चिराग़ की लौ मध्यम हो चली है, बुलावा आने को है, स्वागत करना अनिवार्य है। वह क्षण आ भी गया, लालाजी चले भी गये।
ऐेसे बस्तर पुत्र, कर्म योद्धा तपस्वी को शत-शत प्रणाम।
एक आफ़ताब बुझा रास्ते में शाम हुई/सुकून मिल गया अब जुस्तुजू तमाम हुई।
रऊफ़ परवेज़
बालाजी वार्ड
जगदलपुर जिला-बस्तर छ.ग.
फोन-09329839250