लोक संस्कृति के संरक्षण में आधुनिक साहित्य का योगदान
नये युग की व्यवस्था ने वर्तमान समय में दो महत्वपूर्ण काम किये हैं, समय के हर पल को महत्वपूर्ण बना दिया है और जीवन के प्रत्येक महत्वपूर्ण काम को समय के लिए महत्वहीन घोषित कर दिया है। ये दोनों वक्तव्य विरोधाभासी हैं, एक ही नजर में दिखता है परन्तु यही आज का सत्य है। पूरी दुनिया इन्हीं दो बिन्दुओं को लिए हुए भाग रही है। दुनिया की इस भागमभाग की भीड़ इतनी घनी है कि कोई चाहकर भी रूककर सोच समझकर आगे बढ़ने की जुर्रत नहीं कर पाता है। भीड़ के धक्कों में आगे बढ़ना ही पड़ता है।
परन्तु जल का मूल स्वाभाव शीतलता है और ऐसे ही मानव का मूल स्वाभाव प्राकृतिकता है। प्रकृतिमय हो जाना है। इसलिए प्राकृतिक होने के प्रयास समय-समय पर होते रहते हैं, भले ही धक्कों से व्यक्ति गिर जाये, टूट जाये या बिखर जाये। लोक संस्कृति शीर्षक के अंतर्गत समेटने को इतनी चीजें हं,ै इतने विषय हैं कि उन्हें लिख पाना भी मुश्किल है फिर भी बड़े बड़े विषय हैं- आदिम जीवन, परम्परायें, संस्कार। थोड़ी सी और गहराई से झांकने पर पाते हैं कि ये तीनों विषय समेटे हैं जीवन के आधार, यानि रोटी, कपडा और मकान।
विश्व के प्रत्येक क्षेत्र की परम्परायें वहां की परिस्थिति के अनुसार निर्मित होती जाती हैं, उनके ऊपरी आवरण बदल जाते हैं परन्तु मूल भावनायें वही रहती हैं। बानगी देखिये- नदी के किनारे रहने वाला जल उत्पाद पर भूख आश्रित हो जाता है इसलिए नदी उसके लिए पूज्य हो जाती है। जल देवता, जल देवी की कल्पना वहीं बन जाती है, उनकी जीवन शैली में नदी को सहेजने की, स्वचालित मछलियों को दाना खिलाकर लेने लगती है। नदी का पूज्य होना उसे गंदा करने से बचाता है। मछलियों को दाना खिलाकर अपने ग्रह दोष दूर करना, मछली संरक्षण द्वारा पानी साफ करना बताता है और नदी के अधिकार क्षेत्र को सुरक्षित रखने का उपाय है। ऐसे अनंत रहस्यों का निचोड़ होता है कि मनुष्य कैसे प्राकृतिक बना रहे और उसके जीवनदायी सुरक्षित बने रहें। इसी कवायद को आज के वैज्ञानिक ‘पर्यावरण संरक्षण’ का नाम देकर अपनी पीठ थपथपाते हैं। प्रकृति को सुरक्षित रखना यानि स्वयं के सुरक्षा की गारंटी, इस गारंटी का लाभ लेने के लिए शर्तां पर चलना जरूरी होता है। इन शर्तां की पूर्ति होती है हमारी जीवन शैली से, भले ही इसमें जितना वक्त लगता हो पर इस जीवन शैली को अपनाना जरूरी होता है। परन्तु जेट युग की दौड़ में इनके लिए वक्त कहां है? हम तो दौड़ रहे हैं हमारे पास वक्त कहां है? कहां है हमारे पास वक्त मछलियां को दाना डालने का, नदी को नाली में बदलने से बचाने का? मिनरल वाटर की पहुँच ने नदियों से, कुओं से, तालाबों से ही दूर कर दिया। कब तक धरती चीरकर पानी की पहुंच बनी रहेगी। यह तो जल नदी की बानगी है। यहां हवा, खेत, अनाज, वृक्ष, रिश्ते, घर, सेहत न जाने कितने ही विषय हैं जो इस लोकसंस्कृति के शीर्षक ने समेट रखे हैं।
आज हमारी कविताओं से तितली, फूल, पत्ते गायब होते जा रहे हैं इन्हें दर्शाने वाले कवि आउटडेटेड घोषित कर दिये जाते हैं। नया विषय ढूंढना और उस पर लिखना आधुनिक साहित्य की मांग है। तितली फूल पत्तों का कविताओं से जाना हमें प्रकृति बोध से दूर करता है उनके जीवन से जुड़ाव को रेखांकित नहीं कर पाता है। क्या तितली फूल पत्तों के बिना जीवन संभव है ? परन्तु आउटडेटेड विषय है चाहे वे जीवन के आधार हों। आज कविता होती है मोबाइल पर, केंसर पर, स्त्री सौंन्दर्य पर, रेलगाड़ी आदि पर। इन पर लिखना इसलिए सार्थक माना जाता है कि काल के इस खण्ड को इतिहास में दर्ज कराना है, दुनिया के साथ चलो आदि। खेत, खेती और किसान को न बचाना और सिर्फ अन्न बचाओ का गाना गाना कैसे समयानुकूल हो सकता है?
आधुनिक साहित्य संवेदनाओं को मारने में बड़ी भूमिका निभा रहा है और संवेदनाओं को गाढा़ करने वाली लोक संस्कृति को पूर्ण रूप से अनदेखा कर रहा है। आधुनिक साहित्य के लिए राजनैतिक विषय, स्त्री विमर्श, दलित विमर्श और साहित्य की विवेचना ही साहित्य बन चुका है। प्रयोग के नाम साहित्य मे शुरू किये कुछ शब्द तो अब साहित्य की रीढ़ घोषित कर दिये गये हैं। आधुनिकवाद, उत्तर आधुनिकवाद आदि। ये वैचारिक जुगालियां समाज के लिए कर क्या रही हैं इस पर सोचने को कोई भी तैयार नहीं है। अब तो जुगालीकर्ता ही इन रचनाओं के पाठक हैं और लेखक भी! आधुनिक साहित्य ने एक तरह से बाजार का कच्चा माल हड़प कर गायब ही कर दिया है, शायद स्वयं को श्रेष्ठ साबित करने की चाह ने। साहित्य की नयी परिभाषा के तहत लोक संस्कृति के वाहक द्वार पर नाचते गाते दिख जायें पर मंच पर असंभव है।
अभी कुछ समय से जादुई यथार्थवाद ने प्रवेश किया है। इस जादुई यथार्थवाद ने जमीन से हटकर ऐसे जादू दिखाये हैं कि नवोदित पाठक/रचनाकार दिग्भ्रमित हो गया। उसे समझ ही नहीं आता कि हमारे पौराणिक ग्रंथों की अवहेलना क्यों हो रही है ? उन गं्रथो, कथा संग्रहों में तो जादूभरे दृश्य हैं तो साथ ही साथ नैतिक शिक्षा भी हैं, अचानक आई विपत्ति से लड़ने की सीख भी है तो फिर वे उपेक्षित क्यों हैं? क्यों जादुई यथार्थवाद के नाम पर उलजुलूल परोसा जा रहा है? क्या आधुनिक साहित्य की वाहक लघु पत्रिकायें इस विषय पर सोच रही हैं? कविता, कहानी, लेख चयन पर इस ओर ध्यान जाता है? या जानबूझकर साहित्य की दिशा बदलने का काम हो रहा है। हमें हमारी जड़ों से काटने का क्या औचित्य है, आज जितनी भी पत्रिकाओं में पढ़िये आपको कहानियों और लघुकथाओं में दुनिया की बेईमानी दर्शाने वाली विषय वस्तु मिल जायेगी। बानगी, ट्रेन मे दी गई खाने की चीज खाते ही भिखारन बेहोश हो गई फिर यात्री परेशान हुआ या फिर गरीब की कहानी में जितने भी गुण्डे मवाली हैं वो गरीब बस्ती से उपजते हैं।
ये संवेदनशीलता है या संवेदनहीनता! यही आधुनिक साहित्य है जो गरीब, गरीबी और बेकारी का मजाक बनाता है, आज की कहानियों में इनसे लड़ने के उपाय ही गायब हो गये हैं। उपरोक्त उदाहरणों से तो समाज हर गरीब को शक की ही नजर से देखेगा। ऐसे संवेदनहीन आधुनिक साहित्य से लोक संस्कृति के संरक्षण की उम्मीद किस तरह पूर्ण हो यह प्रश्नचिन्ह लगातार लगा हुआ है।
संपादकों की भूमिका इस संदर्भ मे सबसे महत्वपूर्ण होती है। कारपोरेट घरानों से निकलने वाली पत्रिकाओं के संपादकों के हाथ बंधे होते हांगे पर बाकी क्यों चुप हैं ? लगातार ऐसी संवेदनहीन रचनाओं को छापकर ‘‘यही है साहित्य’’ वाली सोच को हटाना है। रचनाओं के माध्यम से समाज में नकारात्मक संदेश न पहुंचे कम से कम इतना तो ध्यान रखना ही होगा। क्योंकि नवोदित रचनाकार ऐसे विषयों को पढ़कर ही लिखना सीखतें हैं, जब वे लगातार ऐसी रचनायें पढे़ंगे तो हिंसा, बलात्कार और गरीब को चोर साबित करने वाली रचनायें ही लिखेगें। यह सच है कि समाज ऐसा हो रहा है। प्रश्न यह है कि क्या समाज में ऐसा ही हो रहा है ? क्या लेखक की भूमिका समाज की विकृतियों को ही रेखांकित करने की है ?
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