एक कदम साथ
प्रगति और टेकनोलॉजी के इस युग में साहित्यिक पाठकों की कमी लगभग पूरी दुनिया में महसूस की जा रही है, दुनिया भर के संवाद का प्रकाशक और लेखक इस नये संकट से किस तरह सामना किया जाए विचार कर रहे हैं। बदलते वक्त के साथ ऑनलाइन रीडिंग के महत्व को समझा गया है। हालांकि पुस्तकों का महत्व शाश्वत है- ऐसा लगभग सभी धूर विद्वान और साहित्य प्रेमी मानते हैं।
मगर हिन्दी में स्थिति बड़ी विचित्र है। यहां बरसे कंबल भीगे पानी कबीर की उलटबांसी का महायुग चल रहा है। संपादन और प्रकाशन जगत बजाए अच्छे लेखन, नये तरह के लेखन, या आम लोगों के लिए लेखन व वितरण प्रोत्साहित करने की बजाए सुन्दरी लेखिकाओं की ओर दौड़ लगा रहे हैं। इस सौ मीटर की दौड़ में अलबत्ता सभी शरीक होकर बढ़िया रिले रेस का नजारा पेश करते प्रतीत होते हैं। इसी भीड़ में कुछ संपादक और लेखक मोटे-मोटे ग्रंथों से ‘नवीन क्रांति’ ढूंढ रहे हैं। ऐसा लिख मारो कि तुम लिखो हम समझे मगर तुमने क्या लिखा तुम्ही न बूझो। है न उलट-बांसी! प्रतीत होता है वर्तमान हिन्दी साहित्यिक परिदृश्य की चुनौतियों से या तो समझौता कर लिया गया है, घुटना टेक लिया गया है या फिर उत्तर-उत्तर आधुनिकता में जाकर अपना चेहरा छिपा लिया गया है। कहां पाठक किसका पाठक, किधर पाठक, कौन पाठक—-?
इस परिदृश्य में प्रकाशन सबसे मजे में है। लेखक, संपादक, प्रकाशक और पाठक (वितरण), इस कड़ी में लेखक है- जो अपनी किताब छपाकर ‘लेखक’ नामक जीव में शुमार हो जाता है। फोटो खिंचवाता है। अपने लिखे की स्वयं की तारीफ करता है। अपनी किताब का स्वयं ही ब्लर्ब लिखता है। पुस्तक का ‘कवर पेज’ भी स्वयं ही पसंद करता है। मतलब समस्त ‘भार’ वह स्वयं ही वहन करता है। कुछ पाठक भी ढूंढ लाता है जैसे नेताजी के भाषण के दौरान गांव-गांव से राजनैतिक कार्यकर्ता ‘भीड़’ जुटाते हैं जिसका फायदा प्रकाशक उठाता है। मतलब प्रकाशक कहता है- मजे में हम ! और अंततः पुस्तकां की एक निश्चित मात्रा लेखक को ‘भेंट’ करने के बाद पूरी संभावना के साथ सभी किताबें गोदामों मे पढ़ी जाती हैं। ये गोदाम आधुनिक हिन्दी साहित्य की रीडरशीप की आधारशिला हैं। पिलर! यहां माने हुए लोग सरकारी शाहों के साथ मिलकर पुस्तकें डंप करते हैं!
है न उलटबांसी!
सत्य ये है कि, बल्कि ये कहें कि सामने जो दृश्य है बड़ा चुनौतीपूर्ण है। उदारीकरण के बाद मध्यमवर्गीय हिन्दी वर्ग पूरी तरह अंग्रेजियत में डूब चुका है। शिक्षा और नौकरी-बड़ा बेसिक सा सवाल है। इस पर बहुत कुछ पढ़ा-लिखा और सुना जा चुका है। आजादी के पैंसठ साल बाद भी अभी हाल ही में आई0ए0एस0 की परीक्षा में हिन्दी की अनिवार्यता खत्म करने की बात की जा रही थी। वो कौन से मस्तिष्क हैं जो ऐसा सोचते हैं ? इसकी क्या वजह (यह स्वार्थ) हो सकती है।
बात खींचने पे लम्बी जाएगी। सीधा सा सवाल है- या तो हमने अपनी भाषा के प्रति स्वाभिमान पैदा नहीं किया या फिर एकदम शार्ट-कट् संकीर्ण रास्ते पर चलना स्वीकारा है- हिन्दी पढ़कर मिलेगा क्या! जब नौकरी हमें अंग्रेजी से ही हासिल होनी है। इस भाव ने एक संस्कृति का रूप ले लिया है। अपसंस्कृति! अंग्रेजी स्कूल के बच्चों के बीच हिन्दी स्कूल के विद्यार्थीं अछूत से लगते हैं। बेचारा हिन्दी वाला स्वयं ही अपने को दूर-दूर फासला बनाने पर मजबूर है। इस नये छूआछूत की तरफ हमारा ध्यान नहीं जाता । आप बच्चे को नहीं समझा सकते कि बेटे तुम हिन्दी माध्यम में पढ़ते हुए भी अच्छी अंग्रेजी सीख और लिख सकते हो। अच्छी नौकरी पा सकते हो ।
क्या यह इतना आसान है। ऊपर का प्रवचन बड़ा सस्ता प्रतीत होता है – मगर बच्चे के मन में ? क्योंकि अंग्रेजियत का माहौल उसकी हीनता को बिना बताए लक्षित करती है।
यही भारत में पनपी अंग्रेजियत है जिसके हम सब शिकार हुए हैं- और यह एक दिन में नहीं हुआ है। वर्षों की गुलामी तो एक कारण है ही, कहां हम आजादी के बाद इस गुलामी भरे कवच को निकाल फेंकते, मगर हमने तो और गिरह बांध लिया। आखिर वो हमारी श्रेष्ठता की निशानी जो ठहरी ! जब हिन्दी वाले ही हिन्दी को वो सम्मान नहीं दे पा रहे, जिसकी वो हकदार है- तो क्या फ्रेंच से लोग आएंगे ये बताने कि आपकी भाषा अच्छी है? अच्छा साहित्य और अच्छा ज्ञान हासिल किया जा सकता है। बल्कि अपनी ही निजी भाषा में तरक्की संभव है।
यहां तो हिन्दी हाशिए पर दिखती है – मगर क्या मजबूरी है कि कैटरीना कैफ यहां समुद्र पार से आकर हिन्दी सीखें। बड़ी-बड़ी कॉरपोरेट कंपनियां हिन्दी में विज्ञापन करें। उनके विक्रयकर्ता स्थानीय व हिन्दी में बात करें। लाखों करोड़ों की संख्या में हिन्दी अखबार पढा जाए। क्यों……?
क्या यह हिन्दी की ताकत नहीं !
लेख का प्रारंभ हिन्दी साहित्य में पाठकों का न मिलना समस्या से किया गया था। मगर प्रसंग अनचाहे कुछ अन्य पहलूओं पर चला गया। यह अनजाने नहीं हुआ। आखिर मुम्बई सिनेमा, टीवी सीरीयल्स, बड़ी बिजनेस कंपनियां जब हमारे बोले, लिखे और समझे जाने वाली राष्ट्रभाषा हिन्दी के महत्व को स्वीकार करती हैं तो हम हिन्दी के लेखक, संपादक, समीक्षक और प्रकाशक क्यों नहीं ? (प्रकाशकों का चिनि्ंतत न होना साफ-साफ दिखता है।) हिन्दी लेखक चुप क्यों है ? क्या वह अपने छपवाए ( स्वयं के भार से, समस्त भार से ) पुस्तक से ही परम संतुष्ट हो गया है ? अगर ऐसा है तो निश्चित ही उसमें वो रचनाभाव नहीं है जो एक लेखक/लेखिका में होना चाहिए। वह यथा स्थिति कैसे स्वीकार कर सकता है?
मगर यही सच है। निर्मम, कठोर, विडंबना से भरा !
हिन्दी साहित्य के वर्तमान स्वरूप को एक लेख में समझ लेना या समझा देना संभव नहीं। लेखन, संपादन, प्रकाशन, वितरण (पाठक) आलोचना, समीक्षा इत्यादि इसकी कई कड़ियां हैं। ये कड़िया आज अनिवार्यतः बहुत सीमित रह गयी हैं। इस कड़ी में दो लोग खासे नुकसान में हैं- एक सच्चा लेखक/ कवि/शायर इत्यादि तथा दूसरा आम पाठक। यहां सच्चा और ‘आम’ शब्द विवाद पैदा कर सकता है, मगर आशय स्पष्ट है। बेशक, मैं यही कहना चाहता हूॅ कि इस ‘स्वयं के भार’ के युग में दस किताबों में कौन सी सही किताब है- लेखक महोदय का स्तर क्या है- सवाल तो उठता ही है। कौन सी किताबें अच्छे ढंग से वितरित हो रही हैं ? क्या सचमुच हिन्दी साहित्य की पुस्तकें शहरों के भीतर, मुख्य केंद्रों तक पहुंच पा रही हैं? भीतरी केंद्र छोड़िए, छोटे जिलों के मुख्यालय में क्या एक भी साहित्य की ऐसी दुकान है जहां साहित्य की तमाम अच्छी लघु पत्रिकाएं और प्रकाशित सभी किताबें प्राप्त हो सकती हैं ?
बहुत पेचीदा सवाल है। लघु पत्रिकाओं तक तो ठीक है, क्योंकि दो-चार वर्षों में ऐसी नियमित लघु पत्रिकाएं अपना परिचय पाठकों को दे देती हैं, पर किताबें ? कौन से कवि, कहानीकार या उपन्यासकार या निबंधकार को मानक माना जाए। यहां तो भीड़ है। या फिर बायो-डाटा पे भरोसा किया जाए? इस माहौल में मेनस्ट्रीम के महासाहित्यिकार दिल्ली में बैठकर युवा सुन्दरियों की किताबों के बारे में विचित्र फतवे जारी करते हैं। ऐसे फतवे देश के अन्दरूनी इलाकों में क्या, मुख्य मार्ग तक भी पहुंच नहीं पाते। वे पुस्तकें सिर्फ समकालीन आलोचकों, समीक्षकों और ‘होने वाले लेखकों’ की जमात तक ही वितरित व पठित हो पाती हैं। आज हिन्दी की बेस्ट सेलर किताब यहीं जन्म लेकर यहीं मर जाती है। हिन्दी साहित्य के महान केन्द्र चाहे दिल्ली हो, लखनऊ हो, इलाहाबाद, वाराणसी, पटना, रांची, भोपाल, आगरा या हिमाचल प्रदेश हो, सबकी कहानी एक सी है। सब जगह अठारह या सतरह जनेऊ वाले बाबा अपना फाटक खोलकर शिष्य/शिष्याओं की भीड़ इकठ्ठा कर रहे हैं। कहीं चन्दन का टीका लगा है तो किसी के माथे पर आटे का! कहीं लम्बावाला छाप है तो कहीं गोलवाला! कोई धोती लंगोटवाला ठहरा तो कोई सफारी सूट में सिगार वाला! मथुरा वाले बाबा और द्वारिका वाले महापंडित, तो कहीं पांडिचेरी वाले बाबा अपना नया स्कूल खोल दिये हैं। इनके पास सब कुछ है सिवाए ‘आम’ कहे जाने वाले पाठकों के।
इस च्यूंगम को जितना चबाओ उतना चबेगा। थूकते भी नहीं बनता क्योंकि कुछ नहीं से कुछ तो भला ठीक है। इन बाबाओं का दुःस्साहस देखिए- सबके सब क्रांतिकारी हैं। महान क्रांतिकारी!
‘बस्तर पाति’ का जन्म ही इन परिस्थितियों की असंतुष्टि से हुआ है। (सावधान- हम क्रांति मचाने नहीं निकले हैं।) ‘बस्तर पाति’ बस इतना चाहती है कि उन लेखकों को ढूंढे जो लिखने के पहले और लिखने के बाद ये सोचते हैं कि उनका पड़ोसी जो बारहवीं फेल है- उसका लिखा समझ पाएगा? उसके लिखे को रूचिपूर्वक पढे़गा और पुस्तक या पत्रिका के लिए कुछ खर्च करना चाहेगा। मुफ्त का माल नहीं उड़ाएगा। सच तो ये है कि ‘बस्तर पाति’ लेखन, प्रकाशन, संपादन और वितरण (पाठकों की तलाश और पाठकों में शब्दों के प्रति आकर्षण पैदा होने वाले लेखन) के लिए प्रतिबद्ध है। जिन्हें ‘एजेन्डा’ कहना पसंद है तो यही हमारा साहित्यिक एजेंडा है। हम ‘बस्तर पाति’ के ‘बहस’ कॉलम के मार्फत लगातार इस परिवर्तित हो रहे परिदृष्यों की खबर लेंगे, अपने प्रयासों का हवाला देंगे। अपना सुखः-दुःख आपसे बांटेंगे। हम कुछ नया करने का दावा नहीं कर रहे हैं, हम तो बहुत पुराने ढर्रे पर चलना चाहते हैं। हम अपने छोटे से प्लॉट में देशी खाद डालकर देशी चावल पैदा करना चाहते हैं। हम आपका भोजन नहीं हो सकते, मगर हम हैं अपने खांटीपन के साथ- यह अहसास आपको हो।
क्या आप एक कदम ‘बस्तर पाति’ के साथ चलना चाहेंगे ?