स्वभाव से एकांतवासी, कर्म किये जा फल की चिंता मत कर! शायद यही महेश्वर जी का सिद्धांत है, जिस पर वे लगातार वर्षों से रचनारत हैं, सृजनरत हैं. आपने जाने कितनी ही कहानियां लिख डाली हैं, परन्तु ख़ामोशी के साथ! आपने न जाने कितने ही चित्र बना कर, जीवन को परिभाषित किया है, और उनमें रंग भी भरे हैं. आप एक महान कहानीकार हैं. आपका चिंतन, हर क्षेत्र में एक प्रकश स्तम्भ की तरह है. साहित्य में तो आपने जितनी बारीकी से चिन्तन किया है, वह साहित्य के लिए एक अनमोल थाती है. आपके चिंतन को प्रत्येक साहित्यकार को पढना और गुनना चाहिए; ऐसा मेरा मानना है. आपने लगातार मुझे साहित्य की बारीकियां समझाई, आज वो सब मेरे लिए एक उत्कृष्ट धरोहर की तरह, मेरे साथ मेरे लेखन के साथ चलती है. आपने कहानी लेखन, गद्य लेखन आदि पर बेहद उम्दा आलेख लिखे हैं और लगातार लिख भी रहे हैं. ये आलेख वास्तव में वर्तमान एजेंडा साहित्य लेखन पर तगड़ा प्रहार है, और एक बड़ा सा आइना है. विमर्श के नाम पर गंदगी को साहित्य बनाने वाले लेखक भले ही लाइम लाइट में हों परन्तु ये आपसी चमचागिरी से पायी हुई पोजीशन धीरे धीरे आम लेखक और पाठक भी समझने लगा है.
आपकी लिखी तमाम रचनाओं और सृजन को इंतजार है कि कब आदरणीय महेश्वर जी की हृदय की लहरियां उद्वेलित होकर जन-जन तक लेकर आयें.
आदरणीय सर, आपका नाम दो शब्दों से मिलकर बना है, यानी की आप बिहार प्रदेश के मूलनिवासी हैं ऐसा प्रतीत होता है. मै जरा अपने पाठकों को आपके बारे सामान्य जानकारी देता चलूँ.
आपका पूरा नाम महेश्वर नारायण सिन्हा है. आपके पिता का नाम श्री हरेन्द्र नारायण सिन्हा जी है. आपकी पत्नी श्रीमती शर्मिला सिन्हा जी हैं. आपका जन्म आरा भोजपुर बिहार में हुआ था. दिनांक- 2.1.1966 को. आपने संत जेवियर्स रांची, झारखण्ड, बी0ए0 इतिहास में ’प्रतिष्ठा’ हासिल कर शासकीय सेवा का क्षेत्र चुना.
अब आपसे हमारे मन में उठने वाले प्रश्नों को सुलझाना चाहेंगे जो कि आप को देखकर आप से मिलकर उठते हैं.
सनत जैन–आपने जिस विषय में शिक्षा प्राप्त की, वो गलत तो नहीं लगती है ?
महेश्वर जी–विषय का चुनाव खुद का था। कोई गलती नहीं।
सनत जैन– जिस विषय में शिक्षा प्राप्त की उसका आपके जीवन कभी उपयोग किया ?
महेश्वर जी –मानवीय विषयों में (इतिहास प्रतिष्ठा) ग्रेजुएट हूं। वर्तमान शिक्षा प्रणाली ऐसी है कि एकेडमिक विषय चाहे जो हों, जीवन में सीधे-सीधे प्रयुक्त नहीं होते। पर हां, सही शिक्षा, नैतिकता, आचरण, तर्क, बुद्धि, ज्ञान, सूचनाएं विकसित करती हैं जिनका जीवन में दिन प्रतिदिन व्यवहार होता है। कोई शिक्षा ये नहीं बताती कि सामने हाथी या शेर आ जाये तो आप कया करेंगे। पर, सही शिक्षा आपको ऐसी परिस्थितियों के लिए अनुकूल बनाती है। फिर केवल शिक्षा या शिक्षक या शिक्षा प्रणाली अकेले एकांगी है-इसका दूसरा और अंतिम सिरा शिष्य है-वह कितना ग्राहक है। कोई शिक्षा प्रणाली या शिक्षक अरस्तू, या बुद्ध या कबीर नहीं पैदा कर सकती है।
सनत जैन–अगर आपको भगवान दर्शन दे दें और कहें कि कुछ दिनों के लिए आपको कुछ भी बना सकते हैं तो आप क्या बनना पसंद करेंगे ?
महेश्वर जी–अव्वल तो इस तरह के भगवान होते नहीं, यदि होंगे भी तो यह भगवान की सबसे बड़ी भूल होगी क्योंकि मैं उनसे कहूंगा, तू मुझे भगवान बना दे और आप मेरी तरह आम आदमी बन जाओ। सर्व शक्तिमान या भगवान बनना मनुष्य के अहंकार की पराकाष्ठा है-यह घोर मूर्खता है। ऐसी मूर्खता और अहंकार मुझे भी आकर्षित करते हैं और मैं इस पर सोचता भी नहीं हूं, फिलहाल मैं जो हूं वही रहना चाहूंगा। मैं जहां हूं वहां से स्वयं को, जगत को, ईश्वर को एक तटस्थ दूरी से अवलोकन कर सकता हूं। किसी भी अतिवादी शिखर चाहे वह भगवान का पद ही क्यों न हो- मेरे लिए अमान्य है। सृष्टि में सर्वत्र संतुलन है और यही, बल्कि इसी स्थिति में सबका हित हो सकता है- ऐसी मेरी मान्यता है।
सनत जैन– आपकी पत्नी आपके जीवन में कब रोड़ा बनी ?
महेश्वर जी –मेरी पत्नी मेरे जीवन की रोड़ा नहीं बल्कि सोड़ा है जो मेरे सुरा के पात्र को गटकने योग्य बनाती है। जीवन जो हार्ड ड्रिंक की तरह है उसे साफ्ट ड्रिंक बनाती है।
सनत जैन– बस्तर में आपको क्या अच्छा लगता है ? संस्कृति, प्रकृति या फिर सल्फी ?
महेश्वर जी –बस्तर पृथ्वी पर आज भी वैसे स्थल की तरह है जहां प्र्रकृति एवं इसके रहवासी सभी लगभग आधुनिकता से दूर हैं। यह सब आर्कषक है। बस्तर की संस्कृति वास्तव में हमारे आदिम स्वरूप की झलक दिखाती है-हम इसमें अपना अक्स देख सकते हैं।
सनत जैन–सर आपकी पत्नी की शिक्षा किस विषय पर है और क्या है ?
महेश्वर जी –पत्नी ग्रेजुएट है वह भी दर्शनशास्त्र में। जी, पत्नियां ’जीवन-दर्शन’ दिखाने में उल्लेखनीय होती हैं।
सनत जैन– ज्यादा शिक्षित पत्नी कभी आपके जीवन में आपको हतोत्साहित तो नहीं करी ?
महेश्वर जी –ज्यादा शिक्षित ? पत्नी से अधिक शिक्षित कौन है इस धरा पे ? वो जो मायके से ज्ञान लेकर आती हैं वह ब्रह्मा, विष्णु और महेश को भी पराजित कर सकती हैं। तो ज्यादा शिक्षा प्रोत्साहन है या हतोत्साहन, इस पर मौन रहना ही सही उत्तर है।
सनत जैन– ऐसी कोई भी जानकारी, जो आप देना चाहते हैं ?
महेश्वर जी –जानकारी तो ऐसी-ऐसी है कि स्याही लखते-लिखते खत्म हो जाये…फिलहाल क्षमा करें।
सनत जैन– शिक्षा के अवमूल्यन के कारण आज समाज असंवेदनशील हो गया है या और कुछ ?
महेश्वर जी –ये सही है कि आधुनिक युग ने शिक्षा का प्रसार किया। प्रिंट, कम्प्यूटर, इंटरनेट इत्यादि शिक्षा का प्रसार करते नजर आ रहे हैं। बहुत सारी प्रोफेशनल डिग्रियां और पढ़ाई और अनुसंधान उपलब्ध है। पर इसका दूसरा पहलू ये भी है कि क्या आधुनिक शिक्षा, स्कूल, कालेज और विश्वविद्यालयों में चरित्र का निर्माण भी किया है ? निश्चित रूप से शिक्षा का आदर्श स्व्रूप धराशायी है। इंजीनियर राष्ट्र-समाज निर्माण की बात या विकास के आदर्श से दूर हैं और बैंक बैलेंस की फिकर में लगे हैं। डॉक्टर जो भगवान है वह अपने पास आये मरीजों को लूट खसोट रहा है। यह सब जग-जाहीर है। यही हाल सभी संस्थओं का है-पुलिस, प्रशासन, पत्रकारिता यहां तक कि साहित्य या कला क्षेत्र, हर क क्षेत्र में आदर्श का अवमूल्यन हुआ है। आदर्श मात्र मूर्खों के चिंतन का विषय है। शिक्षा का स्थान प्रतिशत और डिग्रियों ने ले रखा है, समाज उनकी इज्जत करने लगा है जिनके पास अकाउंट अच्छा है भले ही साला रात को ड्रग लेकर गटर में सोता हो। अब देखिये इस शिक्षा ने, अथवा हमारे संस्कार ने क्या सिखाया ? आठवीं फेल रईस बाप का बेटा नशेड़ी मगर ’स्टार’ है-बॉलीवुड हमारा आदर्श! एक सच्चा विचारक, लेखक और शिक्षक, पुलिस अधिकारी हाशिए पर है-वो हमारा आदर्श कभी नहीं बन पाता, क्यों ? क्योंकि हम कीमत और मूल्य में निहित अंतर को समझने में असमर्थ हैं। आखिर येफर्क बतायेगा कौन ? वो शिक्षा प्रणाली तो 99.9 प्रतिशत मार्कशीट पर टिकी हो, सर्टीफिकेट्स बेचनेवाली संस्था बन गयी हो, हमारे सेली बिटी क्रिमीनल्स, दबंग और गुंउे हों। हम एक सिपाही को सलाम करें और शिक्षक को देखकर कहें कि -माट् साब! क्या हाल है ….!
यह ’माट् साहब’ और ’’सलाम साहेब’ का नजरिया किसका है और इसके लिए कौन जवाबदार है ? प्रश्न बहुत वाजीब व सामयिक है। पूरा तालाब गंदा हो चला है। जो शिक्षा भारतीय संस्कार व संस्कृति से कोसों दूर हो -हमारा आदर्श अमेरिका है। हमारे विद्वान अमेरिका की शिक्षा प्रणाली को लेंस लगाकर दूरबीन से निहार रहे हैं -और बैठे कहां हैं ? -भारतीय दर्शन, ज्ञान-विज्ञान, मायथोलोजी, इतिहास, भाषा, गणित इत्यादि पर आपने अपना चूतड़ फैला दिया है -टांगें पसार ली है। इन ग्रंथों पर लाल कपड़े बंधे हैं -सावधान! इन्हें छूना मना है, वे हमारी धरोहर हैं!
घी पियों चाहे कर्ज लेकर, मगर ऐश करो। ऐसा आदर्श चर्वाक का था। भारतीय दर्शन का एक पहलू यह भी। अर्थात आनंद, मौज आवश्यक है चाहे जैसे। माध्यम चाहे ड्रग्स बेचकर हो या किडनी बेचकर। भोग जरूरी है। ऐसे आदर्श के बीच मूल्य व अमूल्य का प्रश्न बेमानी हो जाता है। सिर्फ शिक्षा का यह अवमूल्यन नही है यह अकेले शिक्षा के वश की बात नहीं है सभी घटक जिम्मेदार हैं। इस अवमूल्यन के लिये तो यही कहना सही होगा कि वह आवाम है। वह हम ही हैं, हमने ही एक गरीब भारत (हिन्दी भाषा, सरकारी स्कूल और अमीर इंडिया/शायनिंग इंडिया, अंग्रेजी मीडियम-निजी/पब्लिक स्कूल ) बनाया है। हमारी अपनी मातृभाषा, राष्ट्रभाषा मानो लाचारी की भाषा बनी हुयी है, दासी! ऐसी भाषा जो दासी की तरह है क्या अपनी सांस्कृतिक धरोहर का संवहन कर पायेगी ? भाषा का गुलाम होना मतलब पूरी संस्कृति का मृतपाय होना है। जब हमें यही नहीं पता कि हमारी ’इंडेटिटी’ क्या है हमारी पहचान क्या है ? हम जी-खा तो रहे हैं भारत भूमि में मगर रात-दिन स्वप्न देखते हैं अमेरिका का। और ऐसा क्यों न हो -जब हमने ही अपनी शाख काट डाली है जिस पर हम बैठे हैं। सक्षम लोगों को पता है -यहां मर जाओगे तुम्हारी ’इंडेटिटी’ नहीं बन पायेगी। उनकी पहचान अमेरिका या यूरोपीयन देश हैं। यह कोई व्यक्ति विशेष की क्राइसिस नहीं है -यह हमारे सामूहिक अवचेतन में दर्ज विचार है। आजादी के बाद हमने निरंतर यह सीखा है कि स्वयं से दूर, स्वयं के अस्तित्व को मिटाकर किस तरह दूसरे का ’मास्क’ लगाकर प्रगति की जाती है। एक विशिष्ट पहचान बनायी जाती है। तो मजबूर व विवश है -वे अपनी भाषा व संस्कृति का वहन बेबस होकर कर रहे हैं। वे जायें तो जायें कहां! यह तो मेरा पिछड़ापन है। यही हाल हमारे समस्त घटकों में व्याप्त है। भाषा, शिक्षा, कला, साहित्य, नृत्य, सिनेमा, संगीत, कौन सा कोना है जहां आपका अस्तित्व आपकी अपनी ’जमीन’ हो।
इन सारी बातों को इंगित करने का मतलब यह नहीं है, कि आधुनिक ज्ञान-विज्ञान या नवीन या विदेशी भाषा या तकनीक या विदेशों से हम अछूते रहें। नहीं। मगर कम से कम, हमारी अपनी जमीन तो सुरक्षित रहे। जापानी, कोरियन या बहुत सारे पूर्वी यूरोपीय देश अपनी ही भाषा, बिना अपनी सांस्कृतिक पहचान खोये, विश्व पटल पर राज कर रहे हैं। जब तक से हमारा दोगलापन नहीं जायेगा, हमारी मानसिक गुलामी नहीं जायेगी, हम वहीं रहेंगे। किसी ड्रगिस्ट की तरह गटर में। पैसा होगा, जरूर होगा और खूब होगा….! मगर कपड़े के भीतर का आदमी, ना पूरी तरह भारतीय होगा ना विदेशी…! अब आप ऐसे अप-संस्कारित भारतीय समूह से क्या उम्मीद करेंगे ? और किसे दोष देना चाहेंगे-सिर्फ शिक्षा…..?