हाजी बाबा
जब वह स्कूल की पढ़ाई खत्म कर कॉलेज पहुंॅचा तो पढ़ाई के सिवा किसी बात का होश नहीं था कि वह जो भी पढ़ाई कर रहा है उसके बाद उसे जीवन में क्या करना है, क्या बनना है या फिर पढ़ते ही जाना है, वह सोचता कि आगे जैसा होगा देखा जाएगा.
सचमुच इन्हीं विचारों के अनुरूप वह पढ़ता चला गया. एम.ए. के साथ क़ानून की पढ़ाई भी पूरी की और फिर इस फिराक में रहा कि कोई अच्छी सी नौकरी मिल जाए. हाथ की रेखा पढ़ने वालों ने, ज्योतिषियों ने भी उसे बताया था कि वह नौकरी में किसी अच्छी पोस्ट पर जाएगा और उसी क्षेत्र में उसे तरक़्क़ी मिलेगी, नाम होगा. उन्हांने यह भी बताया था कि वह विदेश जा सकता है और वहीं जीवन व्यतीत कर सकता है. पर ऐसा कुछ हुआ नहीं.
दरअसल हम जो पढ़ाई करते हैं, डिग्रियां लेते हैं, उनसे वास्तविक जीवन का कोई संबंध नहीं होता. वास्तविक जीवन की पाठशाला में तो हम स्वयं ही छात्र होते हैं और स्वयं परीक्षक. यहांॅ किसी डिग्री की आवश्यकता नहीं होती.
हालात में थपेड़ों ने उसे उस स्थान पर ला पटका जिसकी कल्पना उसने जाने अनजाने कभी की ही नहीं थी. उस समय बस्तर का परिचय रायपुर में हॉकी टूर्नामेंट में खेलने गई टीम के माध्यम से हुआ था और लोगों ने जाना था कि बस्तर नाम की भी कोई जगह है जहां लोग बसते हैं.
उसने कड़े मन से निर्णय लिया कि उसे अपनी आजीविका के लिये बस्तर जाना है और दाना पानी जुटाना है. जब वह जगदलपुर पहुंॅचा और चारों ओर नज़रें घुमाईं तो सब कुछ अजनबी सा लगा था. आसपास फैले घने जंगल, तेज़ी से बहती नदी इंद्रावती, चित्रकूट, तीरथगढ़ के जल प्रपात, कैलाश गुफ़ा एवं कुटुम्बसर गुफ़ा भी रहस्य खोलती कहानियॉं. सच तो यह है कि बाहर की दुनिया के लोग कुदरत की इस फ़नकारी और कारीगरी से आज भी अंजान हैं. इन रहस्यों से धीरे धीरे परदे उठ रहे हैं.
बस्तर के उस रहस्यमय वातावरण की हलकी सी झलक के साथ मेरा उद्देश्य एक जीते जागते किरदार से परिचय कराना है जो मेरी कहानी का ही नहीं बस्तर की माटी से उपजा, इसी धरती पर पला बढ़ा व्यक्तित्व है जिसे आम आदमी ‘‘हाजी बाबा’’ के नाम से जानता है.
हाजी बाबा कब कहांॅ से जगदलपुर आये यह कोई नहीं जानता क्योंकि इस रहस्य को हाजी बाबा ने कभी नहीं खोला. हाजी बाबा ने कभी नहीं बताया कि उसका धर्म क्या है. हाजी बाबा ने हज भी नहीं किया था. नाम के कारण लोग समझते थे कि उसने हज कर लिया होगा. हाजी बाबा के तीन बेटे थे, एक बेटी भी थी. उन बच्चों के नाम से समझा जाता था कि वह मुसलमान है.
हाजी बाबा ने ब्याज के लेन देन को कभी ग़लत या बुरा या नाजायज़ नहीं समझा. वह ब्याज के ध्ांधे से अपनी आजीविका चलाते थे. यह कहने पर कि ब्याज इस्लाम धर्म में वर्जित हैं. ब्याज की कमाई हराम है क्योंकि उसमें आदमी की मेहतन और परिश्रम नहीं होता है और जिस काम में मेहनत और परिश्रम न हो उस कमाई को मज़हब ने हराम कहा है. इस पर हाजी बाबा का अपनी सफ़ाई में बड़ा सटीक उत्तर हुआ करता था.
हाजी बाबा कहते थे कि वह पैसे देने किसी के घर नहीं जाते. जो लोग उनके दरवाजे, अपनी ज़रूरत पूरी करने आ कर पैसा मांगते हैं उन्हें वह अपनी शर्तें बता देते हैं, ब्याज की दर भी बता देता हूं दिन के उजाले में जहाँ व्यापारी, ग़रीब कामगार पैसे मांगने आते हैं वहीं रात के अंधेरे में सरकारी अफ़सर और बड़े बड़े नेता भी आते हैं. वह सबकी ज़रूरत पूरी करते हैं, किसी को निराश नहीं करते. उनके भरोसे शहर के कितने ही व्यापारी पनप गये और देखते ही देखते हवेली के मालिक बन बैठे. कितने ही लोगों ने शादी कर अपने घर आबाद किये और अनेकों ने अपनी औलाद को शिक्षा दिलाकर बड़ा आदमी बनाया. यह तो हुई जन सेवा की बात. अब उस रकम की एवं ब्याज की वसूली के लिये उन्हें रोज़ सुबह आठ बजे निकल कर शाम तक घर लौटना पड़ता है. जब ऐड़ी का पसीना चोटी तक बहाना पड़ता है तब पैसों की वसूली होती है और जिससे घर चलता हैं. अब कोई समझाए कि यह मेहनत की रोज़ी है या नहीं.
हाजी बाबा का खपरापोश पुराना मकान गीदम रोड पर था. उस मकान के बॉंस बल्लियॉं ख़स्ता हालत में थे. छोटे-छोटे कमरों में अंधेरा रहता था, दीवारों पर सीलन रहती थी और एक दो कमरे सायकल, मोटर साईकिल, सिलाई मशीनों आदि से भरे ही रहते थे. यह सामान उन क़र्ज़दारों के होते थे जो ज़रूरत पर पैसे लेने ज़मानत के बतौर रख दिया करते थे. कई सामान तो ऐसे भी होते थे जो पैसे न दे पाने के कारण डूबत खाते में चले गये होते थे.
हाजी बाबा के पास बेतहाशा दौलत थी. साथ ही इधर उधर डूबत खाते के मकान भी थे. हाजी बाबा हज की बात उनसे कहने से कहा करते थे कि वह जो सेवा कर रहे हैं वह उन्हें दिली राहत देती है और उसी में उन्हें इबादत का मज़ा भी मिल जाया करता है. वह कभी मस्जिद नमाज़ पढ़ने नहीं गये, कभी ईद बकरीद की नमाज़ पढ़ने ईदगाह नहीं गये. न तो वह किसी की मौत मिट्टी में जाते, न ही किसी शादी ब्याह के काम में शरीक़ होते. वह अपनी दुनिया में ही मस्त रहा करते थे.
उनके बदन पर एक पुराना लम्बा कोट हुआ करता था जिसमें कई पैबन्द लग चुके थे और जिसे वह नियमित पहनकर अपनी बगै़र सीट वाली साईकल के पीछे बैठ कर आना जाना किया करते थे. उनको दूर से देख कर ही पहचाना जा सकता था कि वह हाजी बाबा के सिवा कोई और नहीं है क्यांकि इस भेस का कोई और शख़्स शहर में था ही नहीं.
हाजी बाबा बातें करने में, सवालों के जवाब देने में बड़े माहिर थे. उन्हें मिर्ज़ा गा़लिब, उल्लामा इक़बाल, मीर आदि शायरों के बहुत शेर याद थे जिन्हें वह बातचीत के दौरान मौक़ा देखकर चुस्त कर दिया करते थे और इस तरह अपने व्यक्तित्व का सिक्का जमाने की कोशिश किया करते थे. उन्हें संत कबीर, तुलसी के देहे भी याद थे जिन्हें सुनाकर वह हॅंसते हुये कहा करते थे कि सब ही अल्लाह के बन्दे हैं. सबका मज़हब, धर्म एक है. इन शायरों और कवियों ने कभी कोई भेद नहीं किया और जो लिखा आम लोगों के लिये लिखा. उनकी लेखनी या उनके दीवान किसी व्यक्ति या वर्ग की जागीर नहीं. वह इंसान के रूप में इंसानियत की सेवाकर चले गये.
हाजी बाबा ने अपने बच्चों को भी कोई ताबीज नहीं दी. उनका कहना था कि जो तबीयत हो करे, जैसा रहना है, जहॉं रहना है, ख़ुद तै करे. अपना जीना मरना खुद समझे.
किसी ने पूछा ‘‘हाजी बाबा आप किसी के छोटे बड़े ख़ुशी के काम नहीं जाते, यहां तक कि साल में दो बार इ़र्दगाह भी नहीं जाते, मस्जिद नहीं जाते यहांॅ आपके काम को आपके मरने पर कौन आपको कंधा देने आएगा.’’
हाजी बाबा कहते, ‘‘सब अपनी अपनी सोचो, अपनी फिक्र करो, हाजी बाबा की चिन्ता छोड़ो. हाजी बाबा को किसी के कंधे की ज़रूरत नहीं. कोई न आएगा न सही, कोई नहीं उठाएगा न सही. मरने के बाद रह क्या जाता है, लोग न आएंगे, लाश सड़ेगी. नगरपालिका को मजबूरन उठवा के फेंकना पड़ेगा. फेंक देंगे जंगल झाड़ी में, वहां चील कव्वे, गिद्ध खायेंगे. इस तरह परिन्दों या जानवरों की खुराक बनूंगा और मर कर जीव जंतुओं की सेवा करूंगा. जीते जी इंसानों की सेवा और मरने के बाद चरिन्दों परिन्दों की. अपना धर्म तो बस यही है अब जिसे जो करना है कर ले, जो समझना है समझ ले.’’
हाजी बाबा ने जीवन को जिस सहजता से लिया और जैसा समझा वह उनका अपना दृष्टिकोण था. उन्होंने कभी समाज की या समाज के लोगों की परवाह नहीं की. लोगों ने भी उनके विचारों को गम्भीरता से नहीं लिया.
हाजी बाबा का जीवन उसकी तरह व्यतीत होता रहा. एक दिन सुनने मिला कि हाजी बाबा बीमारी के शिकंजे में जकड़ गये और मौत ने उन्हें अपनी आग़ोश में दबोच लिया. उनका बड़ा बेटा और बहू साथ ही रहते थे. पत्नी कुछ वर्ष पहले ही उन्हें छोड़ कर हमेशा की नींद सो गई थी.
परिवार के सामने अपनी मौत के साथ हाजी बाबा ने एक प्रश्नचिन्ह लगा दिया था कि अब वह उनको अंतिम बिदाई किस तरह दें. बड़ा बेटा शहर के कब्रस्तान गया और तकियेदार कब्र खोदने और दफ़न का इंतेज़ाम करने की बात की. बातकर कफ़न खरीदने बाज़ार चला गया. वापसी में अपने रिश्तेदरों को खबर करता हुआ कफ़न खरीदते खबर करता हुआ कफ़न सीने वाले को साथ लेकर घर पहुंच गया.
घर पहुंचने पर उसे ख़बर मिली की समाज के कुछ लोगों ने क़ब्रस्तान में उनकी लाश को दफ़्न करने पर एतराज़ किया है, उनका कहना था कि हाजी बाबा ने जहॉं ब्याज का कारोबार कर अपनी आजीविका चलाई वहीं ईदगाह, मस्जिद से दूरी बनाए रखी तो फिर अब उनका क़ब्रस्तान से क्या नाता.
हाजी बाबा के बेटों, नातेदारों ने बाहरी बातों को अनसुनी कर अपने कन्धां पर जनाज़ा उठाया और कब्रस्तान में दफ़्न कर दिया.
बात बढ़ती गई. मामला जटिल हो गया. लोग हो हल्ला करने लगे कि लाश को क़ब्रस्तान से निकलवा देंगे. हाजी बाबा के बेटे ने बहुत मिन्नत समाजत की और कहा कि बेटा होने के नाते उसने अपना कार्य किया है, ग़लत सही जो भी हो वह समाज का आदेश मानने और समाज़ के निर्णय का पालन करने वह तैयार है. समाज कोई सजा भी दे तो उसे भोगने वह तैयार है पर उसके पिता को क़बस्तान में स्वीकार कर लिया जावे. उसके पिता से जो भी भूल हुई या गुनाह हुए, हो सकता है कि कब्रस्तान में दफ़्न नेक, पाक साफ लोगों के समीप होने से उनकी नेकियों के तुफै़ल अल्लाह माफ़ कर दे. जीवित रहते इंसान बहुत सी बातें कर जाता है, अंजाम से बेख़बर किन्तु मरने के बाद एकद़म शांत हो जाता है. लोग अपने आप उसे ‘‘स्वर्गीय’’ की उपाधि से नवाज़ देते हैं.
समाज वालों ने फैसला दिया कि बाप के कार्यों के लिये बेटा सफाई देकर याचक बन जाए तो उसे स्वीकार किया ही जाना चाहिये. अच्छे बुरे का निर्णय करने वाला अल्लाह है. मरहूम हाजी बाबा अल्लाह को प्यारे हो गये तो उन्हें अल्लाह समझे. फै़सला अल्लाह पर छोड़ दिया गया.