काव्य-अमित सिन्हा

बदलता दौर

बदलते दौर का मंज़र कितना अजीब है.
कि फूलों की खुशबू से ज्यादा
गुलदस्ते की चाहत है.
हवाओं ने भी अपना ऐसा रूख है मोड़ा
कि बस्तियों से ज्यादा उसे
बंद कमरे की चाहत है.
नदी जो झूमती थी इन मैदानों में
सिमटकर खो सी जाती है बंद बोतलों में.
कहां फिक्र थी हमको बहुत कुछ पाने की
बिखरे रिश्ते हैं देखो सिर्फ पाने की चाहत है.
किसे अपना कहें बताना मुश्किल.
है दीवार ऊंची सी मगर शीशे की.
दिखाई दी जब जो पुकारा उनको.
बदलते दौर का मंज़र होता अगर ऐसा
चलते संग में सब जीने की चाहत में.

जीवन दर्शन

कश्तियां किनारे जाने को बेकरार.
उफ ये पानी का माया जाल.
धकेल देती है उसे भंवर में.
बचती है, चलती जाती है.
पानी की धार के साथ
घूमती रहती है इधर उधर
कभी ऊपर कभी नीचे
पतवार का सहारा ही देता एक दिशा.
दिखाई नहीं देता कुछ भी
दूर दूर तक पानी के सिवा
और वो देखना नहीं चाहती.
वो मासूम रहती
बस चलती रहती इंतजार में
कभी कोशिश नहीं करती ये देखने की
क्या पानी के अंदर भी बसता है जीवन
किनारे की तरह।


अमित कुमार सिन्हा
दल्ली राजहरा, जिला-बालौद छ.ग.
मो.-09407982889