लघुकथाएं-कांता देवांगन

अतीत के पन्ने
आज फिर लड़की वालों का जवाब ‘न’ आया. बचपन से ही दोस्तों के बीच पल कर बड़ा हुआ और कब चोरी, शराब जुए के चक्कर में पड़ गया समझ भी न आया. रोजी-रोटी में फंसे मां-बाप ध्यान ही न दे पाये.
देर तो हो चुकी थी पर उनके प्यार भरे स्पर्श और सही मार्गदर्शन ने धीरे-धीरे ही सही पर सुधार ही दिया.
जब वह नेक बनकर जीवन बसर करने लगा तो मां-बाप ने शादी की बात चलाई. पर कोई भी मां-बाप अपनी लड़की ही नहीं देना चाह रहा था.
उसके अतीत के पन्ने उसका पीछा ही नहीं छोड़ रहे थे और वह था कि समाज की मुख्य धारा में जुड़ने की कोशिश में लगा रहा.

मेल बराबरी का

आज कितने वर्षों बाद विद्या को देखकर मां फूली नहीं समा रही थी. कितनी भारी साड़ी, कितने कीमती गहने और चमचमाती कार से उतरी अपनी बेटी को देखकर गदगद महसूस करने लगी थी. घर के अंदर कुर्सी को अपने पल्लू से पोंछते हुए मां ने विद्या को बैठने का इशारा करते हुए किचन की ओर दौड़ी. और स्टील के गिलास में पीने को पानी दिया.
रोटी दाल, चावल, सब्जी परोसते हुए कहने लगी ‘‘गरीब की कुटिया में यही है बेटी तुझे तो अपने घर में बहुत कुछ खाने को मिलता होगा.’’
यह सुनते ही फफक कर रो पड़ी विद्या. मां का भी मन भर आया.
विद्या ने कहा-‘‘बड़े लोग और बड़े घर कहीं विशिष्ट नहीं होते हैं, यही वो चीजें हैं जिसे सभी खाते हैं. बस वहां कमाने की धुन और बटोरने की होड़ होती है और भूख खत्म ही नहीं होती है. अच्छा होता मेरा ब्याह अपनी बराबरी वाले से किया होता तो मैं ज्यादा सुखी रहती. कम से कम वहां आत्मसम्मान तो होता. छोटे घर में पैदा होने के अहसास से घुटन तो न होती. न ही बात-बात पर अपमानित होना पड़ता.’’

श्रीमती कांता देवांगन
मेंहदीबाग रोड़, वैशाली नगर,
प्लॉट नं.-54, नागपुर महाराष्ट्र
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