लघुकथा-दूध का कर्ज-कृष्ण चन्द्र महादेविया

दूध का कर्ज

‘मां…….. आज मैं आपके पिए दूध के ऋण से उऋण हो गया हूं। आज आपके दूध का कर्ज मैंने उतार दिया है।’ विपुल ने आदर से किन्तु सगर्व अपनी माता को नयी कोठी में प्रवेश कराते कहा। बचपन में मां से किए वादे के अनुसार उसने अपनी माता के लिए कोठी भेंट की थी।
विशाल और सुन्दर कोठी को देख माता बहुत खुश थी। किन्तु बेटे के शब्दों से आती दर्प की गन्ध और स्नेह की मात्रा कम महसूस कर वह थोड़ा गम्भीर होकर बोली- ‘ विपुल बेटे, मैं तो धार की धूप हूं, तुम्हारी बनवायी हवेली पर कब तक जिन्दा रह पाऊंगी। ़ ़ ़ ़ ़ ़ ़ ़पर बेटा, जब तुम डेढ़ वर्ष के थे और मैं विधवा औरत सर्दी की भयानक मूसलाधार वर्षा आंधी तूफान में अकेले तुम्हें गोदी में उठाए रात भर जर्जर मकान के द्वार पर खड़े-खड़े ठिठुरते पूरी रात बिताई थी। बेटा, यह कोठी तो उस एक रात की कीमत भर भी नहीं है। मां के दूध का कर्ज तो कोई भी बेटा कभी क्या चुका पाएगा !!’’
विपुल जैसे पहाड़ से गिरा। उसके मुख से विनम्रता से निकला- ‘‘मां…….!!’’
मां ने उसके सिर पर स्नेह से हाथ रखा तो उसकी आंखों में आंसू उमड़ पडे़ थे।

कृष्ण चन्द्र महादेविया
अधीक्षक
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