के. श्रीधर की कवितायेँ

दरख़्त

खामोशी ही है मेरा गहना
कि मै दरख़्त हूँ
काट ही दिया जाता हूँ अक्सर
कि मैं दरख़्त हूँ
कटा हूँ काट दिया जाऊंगा
लोगों का काम है काटना
कि मैं दरख़्त हूँ
किसी ने मुस्कुरा के काटा
किसी ने खामोशी से काटा
किसी ने बेदम बेदर्द काटा
पर मैं कटा हूँ
कि मै दरख़्त हूँ
कि मैं अपना हुनर जानता हूँ
कायनात को पानी परिन्दों को आशियाँ
राहगीरों को छाँव
तमाम नेमतें लुटा के कटा हूँ
कि मैं दरख़्त हूँ
इक बार नहीं सौ बार सही कटा हूँ हर बार कटा हूँ
कि मैं दरख़्त हूँ
तबाह हो के भी दूँगा कुछ न कुछ
कि अंगीठी में पकती रहे
आरज़ू ए ज़िंदगानी
कि मै दरख़्त हूँ
कटा हूँ काट ही दिया जाऊंगा
खंज़र ए हालात
कि मै दरख़्त हूँ

ख़्वाब

बहुत ख्वाब देखे थे इन आँखों ने मेरे तेरे साथ बसाउंगा
इक आशियाना आगंन चौबारा
ख्वाब टूटा तो अपने ही आशियाने में
मेहमाँ से हो गए……..
वो इस तरह बिछड़ जाएगा मुझसे
ये सोचा न था ख्वाब में
बिछड़ के तुझसे टूट गए सारे अरमां मेरे
बिखर गई पंखुड़ियां गुलाब की कुछ इस तरह
जैसे बिखरे बिखरे से अरमां मेरे
बिछड़े तुझसे तो लगा अपने ही मकां में मेहमाँ से हो गए….….

 

ख़्वाब

वो जो आज सामने था मेरे
हवा थी
बादल था
या कोई फरिश्ता
या था कोई मेरा ख्वाब
दिखा और चला गया
शायद मेरा ख़ुदा ही था वो
जिसे अक़सर ख्वाबों में देखा था
फ़िज़ाओं में महसूस किया था
जिसे बारिश की बूंदों में देखा था
हाथ थाम कर मेरा
साथ चला कुछ दूर
हो गया ओझल यकायक
यक़ीनन ख़्वाब ही था मेरा
ख्वाब ही रहा होगा
और मैं नासमझ
यकीन कर बैठा
ख्वाब तो फिर ख्वाब हैं

फासला

कितना कुछ बाकी है
तुम्हारे, मेरे दरमियाँ
सोचो तो आसमा का फासला है
और क़रीब इतने की
हवा भी न गुज़र पाए
जिस्मोदरमियाँ से

के. श्रीधर

जगदलपुर छ.ग.