कुछ ऐसी हो रात
एक रात
कभी कुछ ऐसी हो
लगे हर घड़ी ही
जैसे बस शुरू हुई है अभी-अभी ही
खुले आसमान पर
दमकते सितारे हों,
इर्द-गिर्द से बहती हवा को रोकने वाली
न कोई मीनारें हों,
बस चारपाई पर लेटा
थका बदन हो
और बदन पर खुमार के रंग
तुम्हारे हों,
इर्द-गिर्द कहीं करीब
तुम भी हो संग
मेरे सर पर बालों को
अपनी उंगलियों से सहलाते हुए.
नदी का सफर…..
जमीन के खाँचों में बहकर
अजब सुर फूँकती है लहर
अपनी गति में कहलाती है नदी
अपने अंत पर विशाल समंदर का असर.
बाँध का न इसके किनारों पर
सिमटता है अहसासों में
एक सुपुर्दगी का दौर बड़ा
अजब तल्लीनता का एकाकी मंजर.
मद्धम-मद्धम हर उफान में शरारत
अजब शराफत जब पाँव बाँटें इसकी डगर
बिछा रहा इंसान इसके पड़ावों पर
जिन्दगी खूबसूरत
हर नदी एक बड़ा सफर.
अपने भीतर भी
अपने इर्द-गिर्द भी
पानी के पैंतरों-पैबंदों से
हर लहर, हर घड़ी जिन्दगी को नजर.!!
आशीष आनंद आर्य ‘इच्छित’
हाउस नं-5
रानी लक्ष्मीबाई हास्पीटल के पास
राजाजीपुरम विस्तार
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