अंक-3-फेसबुक वाल से

याद किया तो
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एक साधारण मां-बाप
याद किया तो
सबसे पहले आये याद
फिर घास-फूस की छत
घास-फूस की जमीन
जमीन पर माटी का एक द्वार
द्वार के बाहर बाबा
द्वार के भीतर मां-
बाबा के बाहर मैं
मेरे भीतर मां
मां के बाहर-
घास-फूस के बीच खिलखिलाता एक असाधारण फूल

श्री जयप्रकाश मानस
की वाल से दिनांक
27 जनवरी 2015

गज़ल
जिन्दा हैं रस्में यहां, जिन्दा यहां रिवाज
धर्म कहीं दिखता नहीं लगते सब नासाज़।
दिखी नहीं किरदार में ऐसी कोई बात
आज हमारे पास हैं केवल बस अल्फाज़।
बाहर से तो दिख रहा, अंदर भी कंगाल
कैसे मानें पास है कुछ पोशीदा राज़।
कोलाहल से भर गया सुनना भी दुश्वार
अपने -अपने राग हैं अपना-अपना साज़।
चले थे लेकर हम यहां हुस्नो-इश्क को साथ
कहां गई वे सूरतें जिन पर हम को नाज़।
कर ली हमने आंख बंद खींच लिए हैं हाथ
सारा कुछ वे ही करें जिन के सर पर ताज।
चलता ही क्यों जा रहा किसकी करना खोज
वो बाहर मिलना नहीं बैठ छोड़ के काज।
कर ली पूजा हर जगह और फेर ली जाप
निष्फल हो गये मंत्र भी मन निकला परवाज़।
दफन हुआ कल अभी, वो कल उसके हाथ
जो भी है बस यही है पास तेरे जो आज।
मेरा तो कुछ नहीं , न मैं हूं न तू
राजी जब मिटने को हों तब होगा आगाज़।

श्री अनिल जैन की वाल से दिनांक
21 जनवरी 2015

 

श्री राकेश प्रियदर्शी की वाल से
रेखाचित्र