विद्युत विभाग
समाचार में पढ़ा कि विद्युत नियामक आयोग की जनसुनवाई जगदलपुर में नहीं होगी. क्या बस्तर क्षेत्र जो पूरे छत्तीसगढ़ को अपने खनिज तत्वों से पाल पोष रहा हैं उसके साथ ऐसा सौतेला व्यवहार ही होगा? वैसे भी जनसुनवाई एक ढकोसला ही है जो जनता के बीच मात्र दिखावे के लिए ही की जाती है. निर्णय तो पूर्व निर्धारित होता है कि बिजली उत्पादन और वितरण में घाटा हो रहा है. अचरज की बात है कि उत्पादन तो हर साल नहीं बढता है परन्तु उत्पादन घाटा बढ़ता जाता है. हर साल विद्युत विभाग के कर्मियों का वेतन बढ़ता ही जाता है. वितरण घाटा बता-बता कर हर साल विद्युत दर बढ़ाना कहॉं का न्याय है और फिर विद्युत विभाग के कर्मियों का विद्युत घाटा कम न करने के बाद भी वेतन बढ़ाना कैसा न्याय है? उन्हें इनाम क्यों दिया जा रहा है? बस्तर क्षेत्र को अपनी बात कहने का मौका क्यों नहीं दिया जा रहा है? क्या चल रहा है गुपचुप ? जनता को कम से कम अपने विचार रखने की अनुमति तो होनी चाहिए. इस क्षेत्र के लोग जो समय पर विद्युत बिल जमा करते हैं, पूरा बिल जमा करते हैं उन्हें ही अपनी बात नहीं कहने दी जा रही है! ये कैसा सेंसर चल रहा है ? न तो जनता को समय पर विद्युत कनेक्शन मिलता है न ही बिना गलती वाला बिल! हमेशा घाटा पूरा करने के नाम पर कभी केपेसीटर सरचार्ज तो कभी संयोजित विद्युत भार में वृद्वि के नाम पर जनता को लूटा जा रहा है. विद्युत संबंधी फार्म इतने जटिल बना दिये गये हैं कि आम जनता को पता ही नहीं है. छत्तीसगढ़ राज्य हिन्दी भाषी होने के बाद भी आवेदन पत्र, अनुबंध पत्र आदि फार्म अंग्रेजी में ही मिलते हैं. इधर उद्योग-धंधे बढ़ाने का प्रयास किया जा रहा है और विद्युत कनेक्शन लेने वाले को महीनों कागजी खानापूर्ति के नाम पर घुमाया जा रहा है. लोग बिजली कनेक्शन लेने के नाम पर ही घबरा जाते हैं. जो विद्युत मीटर तेज चलने की शिकायत और सही रीडिंग न आने की शिकायत लेकर जाते हैं तो संबंधित जेई, एई उसे ही दोषी बनाकर मीटर से छेड़खानी का आरोप लगा कर फंसा देते हैं. भ्रष्टाचार की इंतहा देखिए कि कनेक्शन संबंधी फार्म तक के लिए उनके एजेन्ट फिक्स हैं. यदि उनके एजेन्ट के यहॉं से फार्म नहीं लाये तो फार्म ही गलत हो जाता है. विद्युत ठेकेदार फिक्स हैं, टेस्ट रिर्पोट इकठ्ठी कर अपने आदमी से बनवाते हैं. घर में ज्यादा लोड जुड़े होने पर मनमानी बिल बनाकर पकड़ा देते हैं फिर उनका आदमी आकर सौदा करता है. जो शिकायत किया वही फंस गया. क्या ये सब सुनने का साहस विद्युत नियामक आयोग को नहीं है? या फिर ये सब सहना जनता का धर्म है? इन समस्याओं पर जनता के हित में कुछ निर्णय लेना किसकी जिम्मेदारी है ? त्रस्त जनता किसके पास जाये ? जनता को सुविधा के नाम पर कुछ भी नहीं मिलता है. बानगी देखिए-
जहॉं कनेक्शन लेने उपभोक्ता जाता है उसके बैठने के लिए कुर्सी नहीं होती है. पीने का पानी नहीं मिलता है. लघुशंका के लिए स्थान नहीं होता है. जहॉं बिजली बिल पटाये जाते हैं वहांॅ धूप पानी से बचने के लिए शेड नहीं होता है.
ये है उपभोक्ता की इज़्ज़त बिजली विभाग की नजरों में! जिस उपभोक्ता के कारण कर्मचारियों का वेतन मिलता है वही उनके सामने भिखारी की तरह खड़ा होता है. हर साल विद्युत विभाग के कर्मचारियों की तनखा बढ़ाना क्यों जरूरी है ? क्या विधुत कर्मियों को तनखा बॉंटने के लिए ही विद्युत विभाग का गठन किया गया है? उपभोक्ताओं की सुविधा का क्या होगा?
विद्युत नियामक आयोग का गठन सीएसइबी के रिटायर्ड अधिकारियों को अवार्ड देने के लिए किया गया है, ऐसा प्रतीत होता है. जबकि होना यह चाहिए कि जनता के बीच से और अन्य विभागों से लोगों को लेकर जनता के हित में कार्य करने वाली ईकाई बनाना चाहिए. आज के समय तो विद्युत नियामक आयोग सीएसइबी के एजेन्ट की तरह ही काम कर रहा है. जनता के हित में क्या किया है उन्होंने यह कौन देखेगा? विद्युत नियामक आयोग को सीएसइबी के अधिकारियों से तुरंत मुक्त करना आवश्यक है वरना ये विभाग स्वतंत्र रूप से काम ही नहीं कर पायेगा. औचित्यहीन विभाग की आवश्यकता ही क्या है ?
विद्युत नियामक आयोग सरकार के नियंत्रण में भी है तभी तो चुनावी वर्ष में विद्युत दर नहीं बढ़ाई गई. विद्युतनियामक आयोग जब स्वतंत्र रूप से काम कर ही नहीं सकता तो किस उद्देश्य के तहत कार्यशील है?
आज विद्युत उपभोक्ताओं की अनंत समस्याओं में से कुछ निम्न प्रकार की है. उम्मीद है कि आपके द्वारा निरिह उपभोक्ता को कुछ राहत पहुचायी जावेगी.
विद्युत बिल के संबंध मे पहली समस्या है, इस बिल की कठिन भाषा और कठिन गुणा भाग. विद्युत बिल, बिल की जगह उपभोक्ता को गुमराह करने वाला दस्तावेज साबित होता है. उपभोक्ता को आसानी से मात्र यही समझ आ सकता है कि उसके विद्युत मीटर की रीडिंग का अंतर कितना है और यूनिट दर क्या है. उर्जा विकास उपकर, नियत मांग प्रभार, न्यूनतम प्रभार, विद्युत शुल्क, वीसीए आदि आदि समझ से परे है. हर किसी को इंजीनियर या अकाउंटेंट नही बनाया जा सकता है. पेट्रोल बेचने वाला भी न जाने कितने ही तरह के टैक्स का भुगतान करता है, पेट्रोल बेचते वक्त अपने उपभोक्ता को तो नही समझाता कि इस दर मे इतना फलाना टैक्स है और इतना ढिकाना टैक्स है.
विद्युत उपभोक्ता को सीधे सीधे यह बताया जाय कि पहली 100 यूनिट की खपत 5 रू प्रति यूनिट की दर पर होगी और उसके बाद की 200 यूनिट की खपत 7 रू होगी। तो वह अपना बिल खुद ही बना लेगा. वितरण केन्द्रों मे लगने वाली भीड शून्य हो जाएगी. िविद्युतउपभोक्ता जो गरीब और मध्यमवर्गीय हैं उनकी आवश्यकता होती है 200 से 400 यूनिट प्रति माह. इसे यदि 500 यूनिट मान लिया जाए तब इससे ज्यादा यूनिट की बिजली का उपयोग करने वाला विद्युत अपव्यय करने वाला सिद्व होता है. जो अपनी दैनिक ज़रूरतों की पूर्ति के बाद उपभोक्तावादी जरूरतों के लिए अपव्यय करता है। इसलिए 500 यूनिट के बाद की दर एकदम से चार पांच गुनी होनी चाहिए. इसका फायदा यह होगा कि उपभोक्ता को दर का अंतर स्पष्ट दिखेगा तब वह बचत की भी सोचेगा और विद्युत की बरबादी नहीं करेगा. ज़रूरतों की पूर्ति के बाद अपव्यय रोकने की कोशिश करेगा. यदि ऐसा नहीं करेगा तो सिर्फ वह ही भुगते न अपने करनी का फल. उसके कारण हुई बरबादी को आम जनता क्यों भुगते.
उदाहरण से समझें, आजकल बड़ी-बड़ी दुकानों में हेलोजन लाइटें लगी होती हैं सामान की चमक बढ़ाने के लिए, और साथ ही साथ एसी भी चलता है उन हेलोजनों की गर्मी कम करने के लिए.
सबसे बड़ी राहत दी जाए एमडी मीटर लगाकर. विद्युत विभाग के लाइनमेन से लेकर इंजीनियरों की बेहिसाब कमाई का जरिया है, किसी भी घर मे लगे कनेक्टेड लोड और अनुबंधित भार का अंतर. न तो इस विषय मे स्पष्ट गाइड लाइन है न ही विद्युत विभाग द्वारा समझाया जाता है. आज के वक्त मे हर व्यक्ति के यहांॅ विद्युत से चलने वाले उपकरण होते हैं, परन्तु उनका उपयोग वह एक साथ नही करता है. पर अनुबंधित भार से ज्यादा लोड का पाया जाना उसे चोर बना देता है. इस ज्यादा लोड के चक्कर मे सौदेबाजी होती है. ब्लैकमेलिंग और बेईमानी रोकने के लिए एमडी मीटर लगाया जाय, जिससे विभाग के पास ज्यादा पैसा पहुंचे. विद्युत विभाग द्वारा पि़्रन्टर को 150 वॉट और कंप्यूटर को 100 वॉट माना जाता है जबकि वास्तविकता मे वे ज्यादा वॉट के होते हैं. घर मे एसी, गीजर और माइक्रोवेव आदि होते हैं परन्तु उपभोक्ता अपने विवेक से उपयोग करता है अनुबंधित भार से ज्यादा भार का उपयोग मशीन यानि मीटर पकडे़ न कि आदमी. एमडी ज्यादा होने पर तगड़ा फाइन हो.
यूपीएस से चलने वाले उपकरणों का विद्युत भार भी अलग से जोड़ा जाता है जो कि सरासर गलत है. इसकी आड़ मे करोड़ों की लूटमार जारी है. सौदा पट गया तो ठीक वरना जमा करो.
आजकल विद्युत कनेक्शन का आवेदन देते ही विद्युत लाइन विस्तार और ट्रांसफार्मर लगाने का स्टीमेट थमा देते हैं. क्या 20 किलोवॉट तक का लोड लेने के लिए ट्रांसफार्मर एवं लाइन का खर्चा उपभोक्ता उठाने के लिए बाध्य है ? विद्युत विभाग ट्रांसफार्मर एवं लाइन आदि लगाकर कनेक्शन क्यों नहीं देता है? करोड़ों की वसूली और कनेक्शन का पैसा भी जनता से ही! एसडी के रूप में न जाने कितने अरब रूपये सीएसईबी के खाते में जमा होंगे पता नहीं। उन पैसों क्या हुआ ? कौन बतायेगा ये सब? कौन हिसाब देगा इन पैसों का?
लाइट-फेन लोड के उपभोक्ता को पावर केपेसीटर लगाने की स्पष्ट गाइड लाइन हो. या तो प्रतिकिलोवाट केवीएआर निश्चित हो या फिर इनर्जी मीटर मे पावर फैक्टर 0.9 आना चाहिए; इन दोनों में से कोई एक नियम होना चाहिए न कि दोनों.
इस प्रकार के निवेदन हर साल उपभोक्ताओं द्वारा दिये जाते हैं उनका क्या होता है ? उन पर क्या जवाब है विद्युत नियामक आयोग का ? कुछ कार्यवाही भी हुई या कचरे के डिब्बे में फेंक दिया गया कैसे पता चले ? या फिर ऐसा पत्र लिखने वाले को भी धमकाया जायेगा ?
बस्तर पाति फीचर्स