लघुकथा-संतोष श्रीवास्तव सम

एक समझौता


वह एक अजीब सी कश्मकश लिये हुई थी। आखिर उसने यह तय कर ही लिया था कि वह उसे किसी भी कीमत पर खोना नहीं चाहती। उठते, गिरते, सिमटते, बिखरते विचारों से वह आप ही में टकराती और संभलती थी।
एक दिन वह यूं ही अपने आंगन में टहल रही थी। ठंडी हवाओं का झोंका रह-रह कर उसके आंचल में अपनी सारी ताकत उड़ेलता जाता और उसका आंचल हवाओं के दबाव में कहीं इधर तो कहीं उधर को उड़ता जाता।
वह टहलते हुए उस आंगन के उस स्थल पर बैठ गई, जो अन्य स्थलों से थोड़ा ऊपर उठा हुआ था। शायद कोई पत्थर जमीन के नीचे दबा उस जमीन को एक उभार दे रहा था। वह कुछ इस तरह बैठी थी कि उसका आंचल हवाओं को पूरी छूट देता दिखता था। उसकी निगाहें यूं ही इधर-उधर घूमती हुई अपने आंचल पर जाकर ठहर गई। उसने देखा हवाओं का रूख दोनों ओर है। जितना वह आंचल को बायीं ओर ले जाता, उतना ही वह कभी दायीं ओर भी उसे लहराने मजबूर करता। ठीक उसके मन का यह सजीव व मूर्त रूप में चित्रण था।
वह थोड़ी घबराई व धड़कनों के बढ़ने का आभास करती हुई अचानक खड़ी हो गई। चारो ओर स्थित पेड़-पौधे हवाओं के साथ मस्ती में डूबे हुए थे। वह तेज कदमों से आंगन से अंदर कमरे में बढ़ जाती है। तथा दरवाजा बंद कर लेती है। बाहर हवाओं का उसी प्रकार बहना हो रहा था। परन्तु अंदर उसका आंचल एक जगह स्थिर सा हो चुका था। शायद उस आंचल के ठहराव में उसके मन का भी ठहराव था।
वह बड़ी धैर्यता के साथ सांसे ले रही थी। उसका यह निर्णय अंतिम निर्णय था। वह अब और नहीं उलझना चाहती थी। अब वह अपने मन को पूरी तरह नियंत्रित कर चुकी थी। शायद जिन्दगी उसे इसी ठहराव में दिखने लगी थी।
थोड़ी देर वह बंद कमरे में अपने आप में खोई रहती है तथा उसके पश्चात् वह बैठे-बैठे कुछ टटोलती है, और उसके हाथ एक चाबी लगती है। वह उस चाबी को लेकर कमरे में बगल के कोने में रखी छोटी आलमारी को खोलती है। आलमारी से वह एक डायरी निकालती है। उस डायरी में वह कुछ ढूंढती है सहसा एक पृष्ठ पर वह आकर रूक जाती है। कुछ पढ़ने के पश्चात् वह रूक जाती है। फिर डायरी का अगला पन्ना पलटती है और कुछ लिखने बैठ जाती है। लिखने के पश्चात् वह डायरी बंद कर पुनः उसी आलमारी में रख देती है। ताला बंद कर वह झूमती हुई सी कमरे से बाहर निकल जाती हैं।
इस तरह उसका झूमना तथा बेफिक्र होना इस बात को इंगित करता है कि वह किसी भारी बोझ से निवृत्त हो अत्यंत शांत चित्त सी अपने को महसूस कर रही है। उसका झूमना कुछ इस तरह सा लग रहा हैं कि वह काफी रिलेक्स सी महसूस कर रही है।
तभी उसकी अपनी सी हमदर्द सहेली वीना वहां पहुुंचती है। वह अपनी हमदर्द नेहा से कहती है-’’नेहा तुम जानती हो मेरा सलेक्शन प्रतियोगी परीक्षा में हो चुका है। अब मैं शायद तुमसे बहुत दूर चली जाऊँगी। फिर तुम तो बिल्कुल अकेली हो जाओगी। बताओं न तुम्हें मेरा सलेक्ट होना कैसा लग रहा है।’’
नेहा ने वीना से कहा-’’वीना सचमुच यह खबर अत्यंत हर्षित करने वाली है, पर क्या तुम्हें मालूम कि मैंने भी एक बहुत बड़ी छलांग लगा ली है।’’
वीना पूछती है-’’वह क्या ?’’
नेहा कहती है-’’मैंने अपना स्वभाव बदल लिया है। अब मैं कभी अपने दफ्तर के बॉस से झगड़ा नहीं करूंगी। और अनिल जी को भी कह दूंगी कि यदि आपको मेरे साथ उसी दफ्तर में काम करना है, तो बॉस से न उलझें। अपने स्वाभिमान को गिरवी रखकर तथा हर अन्याय, नाइंसाफी को सहते हुये काम करना होगा। जब हम ऐसा कर सकंेगे तो कोई हमें अलग-अलग नहीं कर सकेगा।’’
फिर वह वीना को आलमारी की वह डायरी निकाल कर दिखलाती है जिसमें लिखा था कि यह समझौता सिर्फ अपने प्यार की खातिर एक समझौता हैं। वीना, नेहा के इस समझौते को लेकर हतप्रभ सी हो गई थी। एक स्वाभिमानी नारी का प्यार की खातिर इनता बड़ा बलिदान सचमुच मन को चकित करने वाला था।


संतोष श्रीवास्तव ‘सम’
बरदे भाटा, कांकेर
जिला-कांकेर (छ.ग.)
मो.-993819429