सामाजिक आर्थिक बदलाव जब भी होगा, उसमें लेखन की भूमिका अवश्य होगी – लाला जगदलपुरी।
(साभारःः साहित्य-शिल्पी ई-मेगजीन)
महावीर अग्रवाल- कविता लिखना आपने कब शुरू किया ? यदि स्मरण हो तो यह भी बताइए कि आपकी प्रथम कविता का विषय क्या था ? साथ ही यह भी बताइए कि आपकी प्रथम कविता किस पत्रिका में और कब छपी थी ?
लाला जगदलपुरी- कविता लिखना मैंने सन् 1936 से शुरू किया, किन्तु प्रकाशन की दिशा में सन् 1939 से प्रत्यनशील हुआ। गाँधी जी पर केन्द्रित मेरी एक गेय रचना बम्बई के ‘श्री वेंकटेश्वर समाचार’ साप्ताहिक में सन् 1939 में प्रकाशित हुई थी।
महावीर अग्रवाल- आप कविता क्यों लिखते हैं ?
लाला जगदलपुरी- मैं कविता इसलिए लिखता हूँ क्योंकि काव्य लेखन में मुझे चरम तुष्टि की अनुभूति होती हैं, ऐसी तुष्टि की जो केवल कविता से ही मिलती है।
महावीर अग्रवाल- आप अपनी रचना प्रक्रिया के विषय में कुछ बताइए।
लाला जगदलपुरी- गीत, गीतिकाएं, मुक्तक और छोटी कविताएँ प्रायः चलते-फिरते अथवा लेटे-लेटे लिख लेता हूँ, परन्तु गद्य-लेखन और लम्बी कविताओं का सृजन कार्य कमरे में बंद होकर बैठे-बैठे करना पड़ता है। राह चलते गीत बुनना मुझे अच्छा लगता है। अपने आप में आधार पंक्तियों की गुनगुनाहट चलती रहती है और तब तक चलती रहती हैं, जब तक कि संबंधित गेय-रचना का उद्धव नहीं हो जाता और तब वह उपलब्धि मुझे जो तुष्टि देती है उसका एहसास केवल रचनाकार ही कर सकता है। यात्रा के दौरान ‘बस’ या ‘ट्रेन’ में बैठे-बैठे मुझे केवल कविता सूझती है। इसी कारण मेरी चुप्पी मैं वाचक सिद्ध होने वाला कोई भी मुखर सहयात्री मुझे कष्ट कर लगता है। मेरे साथ अक्सर ऐसा होता रहता है। दिन भर तो बच्चे शोरगुल करते रहते हैं और बिस्तर पर जाते ही बड़ी रात तक शब्द चिल्लाते रहते हैं, जब तक कि उन्हें गीत, ग़ज़ल, मुक्तक या छोटी कविता की कतारों में आराम से न बिठा दूं। परन्तु यदि भूले से किसी काव्य पंक्ति में किसी अयोग्य शब्द की घुसपैठ हो गई तब उसे वह स्थल इस कदर काट खाता है कि उनकी छटपटाहट सुनते ही बनती है और तब उसे रिक्त………..करना ही पड़ता है। इसके उपरान्त रिक्त स्थान पर प्रतीक्षातुर अधिकारी शब्द को बिठाकर रचना को सार्थक बनाता हूं। आवश्यकता पड़ने पर अभिव्यक्ति के लिए मैं किसी भी भाषा अथवा लोकभाषा से उपयुक्त शब्द ग्रहण करता हूँ।
महावीर अग्रवाल- वस्तु और शिल्प में आप किसे प्रमुखता देते हैं और क्यों ?
लाला जगदलपुरी- ‘वस्तु’ और ‘शिल्प’ में मैं वस्तु को अधिक महत्व देता हूँ, क्योंकि वस्तु में रचना का उद्देश्य निहित है। शिल्प-संयोजन के बिना, वस्तु को कविता का रूप दे सकना संभव तो नहीं होता किन्तु यदि शिल्प कथ्य पर भार तो गया, तो निश्चित ही कविता का गर्भपात हो जाता है। वस्तु से शिल्प का जब मर्यादित संसर्ग सधता है, तभी एक सार्थक, सुन्दर और असरदार कविता का जन्म होता है।
महावीर अग्रवाल- कविता में बिम्ब, प्रतीक और मिथकों का उपयोग किस तरह हो ?
लाला जगदलपुरी- बिम्बों, प्रतीकों और मिथकों के प्रयोग में इस बात का ध्यान रखने की बड़ी आवश्यकता है कि वो कथ्य को अनुकूल एवं स्वाभाविक-संप्रेषण दे सकें।
महावीर अग्रवाल- कविता की भाषा को लेकर अक्सर प्रश्न खड़ा किया जाता है। आप बताइए कि कविता की भाषा कैसी होनी चाहिए ?
लाला जगदलपुरी- मेरी समझ में समकालीन काव्य लेखन की भाषा अधिकांश कविता प्रेमियों को संतोष देती हैं, यद्यपि कतिपय कविता प्रेमी यह चाहते हैं कि कविता की भाषा आम आदमी की भाषा से कुछ हटकर हो जिससे कविता की बुनाहट में कवितापन के लिए गुंजाइश बन सके। वैसे कविता के केन्द्रीय विचार के साथ सामंजस्य स्थापित कर उसे सहज सम्प्रेषण दे सकने योग्य भाषा ही कविता की भाषा होनी चाहिए। ऐसी भाषा जो कविता की आत्मा को उजागर कर सके।
महावीर अग्रवाल- पाठक वर्ग की आम शिकायत है कि कविताएं दिन-ब-दिन दुरूह होती जा रही है, इसलिए लोग कविताओं से जुड़ नहीं पा रहे है, इस पर आपके क्या विचार हैं ?
लाला जगदलपुरी- कविताओं के दिन-ब-दिन दुरूह होने और उनसे पाठक वर्ग के कटने की बात मुझे सही लगती है। सच तो यह है कि काव्य विधा के तहत सर्वाधिक प्रयोग हैं, होते जा रहे हैं, और आगे भी होते रहने की संभावना है। ये प्रयोग- धर्मी, चौकाऊ शिल्प कथ्यों पर हावी हो जाते हैं। उन्हें उबरने नहीं देते जबकि केवल शिल्प को कविता नहीं कहा जाता है।
कविता ही न हो, केवल शिल्प हो, तो पंक्तियां दुरूह कैसे नहीं लगेगी। कविता के केवल रूप हां, आत्मा न हो, तो उससें कविता का भ्रम हो जाता है। किन्तु यह, कविता के वस्तुवादी पक्ष की बात हुई। समकलीन कविता का रूपवादी पक्ष इस विचार से तालमेल नहीं बिठाता। वह केवल रूप पर बल देता है। सीमित प्रबुद्ध पाठक वर्ग के लिए लिखी गई, जन भावना को अभिव्यक्ति देती जनवादी कविता यदि आम पाठक की समझ में न आयें, तो ऐसी उपलब्धि का क्या तात्पर्य? तुलसी, सूर, कबीर आदि का काव्य सृजन जन-मन में कितना रच बस गया है। उनमें महज सपाट-बयानी तो नहीं है।
महावीर अग्रवाल- लेखन एक सामाजिक दायित्व है। अतः आप बताइए कि लेखक का क्या कुछ भी निजी नहीं रह जाता ?
लाला जगदलपुरी- लेखन एक सामाजिक दायित्व है, इसमें संदेह नहीं। इसी कारण लेखक के निजत्व की परिभाषा बदल जाती है। रचनाकार जब साधना विभोर हो जाता है, तब वह व्यक्तिगत होकर भी व्यक्तिगत नहीं रह जाता। उसका केवल आर्थिक पक्ष ही उसका रह जाता है। शेष उसका सब कुछ समष्टि को ही समर्पित हो जाता है। तब उसके निजत्व के अंतर्गत सारा ब्रहमाण्ड आ जाता है और इतना सब उसका निजी हो जाता है। ऐसी स्थिति में लेखक का अपना कुछ भी निजी न रह जाने का प्रश्न ही कहां उठता है।
महावीर अग्रवाल- कवि के अंदर व्यक्ति और समाज के बीच हितों का द्वंद्व क्या किसी सार्थक लेखन की भूमिका बनाता है ?
लाला जगदलपुरी- निः संदेह, कवि के अंदर वैयक्तिक और सामाजिक हितों के बीच का द्वंद्व ही किसी सार्थक लेखन के लिए आधार बनता है।
महावीर अग्रवाल- लेखन के कारण आपको व्यक्तिगत जीवन में कभी किसी संघर्ष का सामना करना पड़ा ?
लाला जगदलपुरी- लेखन के कारण मुझे अपने व्यक्तिगत जीवन में अनेक संघर्ष करने पड़े और उन तमाम संघर्षों की एक बड़ी वजह रही थी – साहित्य-चोरी, जिसे आज का बौद्धिक वर्ग अपराध नहीं मानता। सन् 1960 में विद्यासदन, छिंदवाड़ा के एक श्याम एम.वर्मा ने मूलोद्योग के अंतर्गत मुझसे तीसरी कक्षा के लिए तकली के गीत लिखाये और पूरा संकलन हड़प लिया। 1960 में ही एक स्थानीय (जगदलपुर स्थित) व्यक्ति ने मेरे एक लेख को दिल्ली से प्रकाशित होने वाले तात्कालीन मासिक ‘वन्य-जाति’ में अपने नाम से प्रकाशित कराया था। मेरे साथ इस प्रकार की घटनाएं आगे भी घटती ही रही थी। सन् 1989 में भारतीय मानव विज्ञान सर्वेक्षण, कलकत्ता से ‘माड़िया लोक-कथा’ नामक एक शोध ग्रंथ प्रकाशित हुआ। उसके लेखक हैं, संस्था के एक कोई अधिकारी – डॉ. नारायण प्रसाद श्रीवास्तव। इस सरकारी अधिकारी ने तो कमाल ही कर दिया। मेरी प्रकाशित पुस्तक ‘हल्बी लोक कथाएं, में से अपनी पुस्तक ‘माड़िया लोक-कथा में कुल तेरह लोक-कथाएं ज्यों की त्यों उतार कर धर दी। उसने न तो मेरा नामोल्लेख किया, न ही संदर्भ-सूची में मेरी उस किताब का हवाला दिए। निश्चय ही मेरा नामोल्लेख न करने तथा संदर्भ सूची में मेरी पुस्तक का हवाला न देने के पीछे, ‘माड़िया लोक-कथा के लेखक की अपनी व्यक्तिगत मजबूरी थी। डॉ. नारायण प्रसाद श्रीवास्तव को बस्तरांचल की माड़िया लोक कथाओं पर शोध करना था। फिर वह माड़िया लोककथा में हल्बी लोककथाओं की मिलावट वाली स्वतः की गोपनीयता को स्वयं कैसे भंग करते। इस प्रकरण के तहत डॉ. नारायण प्रसाद श्रीवास्तव ने बस्तर अंचल के लोक कथा साहित्य के साथ अंधेर तो किया ही, साथ ही अपनी शासकीय संस्था को भी चूना लगाया और ‘माड़िया लोक-कथा’ के पाठकों के साथ भी धोखाधाड़ी की इस रचना अपहरण काण्ड को लेकर खूब पेपरबाजी हुई और संबंधित संस्था के संचालक के पास संस्कृति-विभाग, मध्यप्रदेश शासन, भोपाल द्वारा शिकायत पत्र भी भेजा गया, परन्तु डॉ. नारायण प्रसाद श्रीवास्तव दूध के धुले ही प्रमाणित हुए, जबकि पूरा प्रकरण प्रमाणित है। डॉ. श्रीवास्तव की वह चिट्ठी मेरे पास अब तक सुरक्षित है, जिसमें वह अपनी लड़खड़ाती-हकलाती भाषा में स्वयं फँस गये हैं। साहित्य चोरी की इन वारदातों के कारण मुझे काफी परेशानियां हुई, खूब संघर्ष करने पड़े, परन्तु आज मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ कि ऐसे संघर्षों में पड़कर मानसिक तनाव पाल कर, समय और शक्ति का अपव्यय करना उचित नहीं होता क्योंकि राजनीतिज्ञ खजूर का पेड़ इतना ऊँचा होता है कि उसके आगे साहित्यकार निपट बौना लगता है।
महावीर अग्रवाल- क्या, रचनाकार के लिए वैचारिक प्रतिबद्धता का होना आप जरूरी मानते हैं ? यदि हां तो क्यों ? यदि नहीं तो क्यों ?
लाला जगदलपुरी- रचनाकार स्वभावतः मानवीय संवेदना के किसी न किसी पक्ष से परोक्ष रूप से प्रतिबद्ध तो रहता ही हैं, फिर प्रतिबद्धता के नाम पर प्रतिबद्धता क्यों ? मेरी दृष्टि में मुक्त चिंतन से प्रेरित अप्रतिबद्ध, रचनात्मक लेखन ही निष्पक्ष लेखन
कहलाने का हकदार होता है। अप्रतिबद्ध लेखन का मुक्त चिंतन प्रवाह एक नदी की तरह अपने उद्गम से लेकर संगम तक गतिशील, प्रभावपूर्ण, ओजस्वी, उपयोगी और प्रेरक सिद्ध होता है।
महावीर अग्रवाल- वर्तमान में क्या लेखन के द्वारा सामाजिक आर्थिक बदलाव संभव है ?
लाला जगदलपुरी- दुनिया का इतिहास यह बताता है कि सामाजिक और आर्थिक बदलाव जब भी हुए हैं तो उसमें कलमकारों की भूमिका किसी न किसी रूप में अवश्य रही है। औद्योगिक क्रांति और फ्रांस की राज्य क्रांति के फलित रूप में रचनाकारों की भूमिका महत्वपूर्ण रही है। बीसवीं शताब्दी में मीडिया इतना शक्तिशाली हो गया है कि अब केवल लेखन द्वारा सामाजिक, आर्थिक बदलाव संभव नहीं दिखलाई पड़ता। इसके बावजूद भी मैं यह मानता हूँ कि सामाजिक आर्थिक बदलाव जब भी होगा, चाहे वह प्रिंट मीडिया के माध्यम से हो या इलेक्ट्रानिक मीडिया द्वारा हो, उसमें लेखन की भूमिका अवश्य होगी।
महावीर अग्रवाल-आप किस कवि से अधिक प्रभावित हैं या रहे हैं ? उनकी कुछ उल्लेखनीय रचनाएं जिनसे आपके लेखन को गति या दिशा मिली ?
लाला जगदलपुरी-वैसे तो मेरे प्रिय कवियों की एक लम्बी सूची बन जाती है, परन्तु कबीर और निराला ने मुझे अत्यधिक प्रभावित किया है। कबीर के पदों में – ‘घुंघट का पट खोल रहे, तोहे पिया मिलेंगे। घट-घट में वह साई रमता, कटुक बचन मत बोल रे।‘ और ‘झीनी-झीनी बीनी चदरिया, काहे कै ताना, काहें कै झरनी, कौन तार से बीनी चदरिया, इंगला-पिंगला ताना भरनी, सुख मनन तान से बीनी चदरिया, सो चादर सुर नर मुनि ओढ़े, ओढ़ के लीनी चदरिया।।’ बड़े मनभावन लगते हैं। और दोहों में ‘सांई इतना दीजिये, जामे कुटुम समाय, मैं भी भूखा न रहूं, साधु ना भूखा जाए, साधू संग्रह ना करे, उदर समाता लेय, आगे पीछे हरि खड़े, जब मांगू तब देय, पाथर पूजे हरि मिलैं, तो मैं पूजूँ पहार, यामें तो चाकी भली, पीस खाय संसार’ आदि अपार चिंतन-सुख देते हैं। महाप्राण की काव्य चेतना का मैं कायल हूं ‘परिमल’ की अधिकांश रचनाएं मुझे बहुत भाती है। ‘धारा बहने दो, रोक-टोक से कभी नहीं रूकती है, यौवन मद की बाढ़ नदी की, किसे देख झुकती है ? ‘आवाहन’- एक बार बस और नाच तू श्याम, सामान सभी तैयार, कितने ही हैं असुर चाहिए कितने तुझको हार ? ‘भिक्षुक- वह आता, दो टूक कलेजे करता पछताता पथ पर आता, और ‘तोड़ती पत्थर’ – वह तोड़ती पत्थर, देखा मैंने उसे इलाहाबाद के पथ पर, वह तोड़ती पत्थर, आदि रचनाएं गहरे उतरती हैं।
महावीर अग्रवाल-कविता भी एक यात्रा है। आप अपने समकालीनों में किन कवियों को अपना सहयात्री पाते हैं ? अपनी पसंद की कुछ कविताओं और उनके कवियों के बारे में बताइए।
लाला जगदलपुरी-मेरे समकालीन कवि मित्र अब मेरे सहयात्री नहीं रह गये हैं।
महावीर अग्रवाल-कविता के विकास और सार्थक फैलाव में रेडियो, दूरदर्शन और कवि सम्मेलनों पर आपके क्या विचार हैं ?
लाला जगदलपुरी-खासकर कवि सम्मेलन में लतीफों और चुटकुलों के बीच यदि दुर्भाग्य से कविता की पहुंच हो ही गई, तो आप यह निश्चित जानिये कि ठहाके उसे दुर्घटनाग्रस्त कर ही देंगे। दूरदर्शन और रेडियो के प्रसारण में भी कविता का लगभग ऐसा ही कीर्तिमान देखने-सुनने को मिलता रहता है। कविता के विकास और उसके सार्थक फैलाव के लिए इन माध्यमों को भी उपयुक्त बनाने की चेष्टा की जानी चाहिए।
महावीर अग्रवाल-कविता पोस्टर्स को आप किस रूप में देखते हैं ? क्या कविता को लोकप्रिय बनाने और चेतना के विकास में इनकी कोई सार्थक भूमिका बन सकती हैं ?
लाला जगदलपुरी-पोस्टर-कविता से चेतना उत्पन्न होने में मुझे संदेह है। ‘पोस्टर’ कहने मात्र से ही ध्यान, एकाएक चौकाऊं व्यवसाय तथा सस्ती राजनीति की ओर आकर्षित होता है। ‘पोस्टर-कविता’ को लोग एक तमाशे की तरह देखते और पढ़ते हैं। लोगों के इस प्रकार देखने-पढ़ने से कविता का सही प्रचार-प्रसार नहीं हो सकता है। हाँ इससे उसे सस्ती लोकप्रियता अवश्य प्राप्त हो जाती है।
महावीर अग्रवाल-कविता के अतिरिक्त और किस विधा में लिखना अच्छा लगता है ? क्या अन्य विधा में लेखन करने का भी कोई कारण है ?
लाला जगदलपुरी-कविता के अलावा मैं समय-समय पर आकाशवाणी और पत्र-पत्रिकाओं की मांग पर या आत्मप्रेरित होकर निबंध, नाटक, कहानी, संस्मरण आदि भी लिखा करता हूँ।
महावीर अग्रवाल-और अंत में कविता की आलोचना और उसके आलोचकों के विषय में आपकी क्या राय है ?
लाला जगदलपुरी-नई आलोचना जब यह मान कर चलती है कि कविता रूप ही सब कुछ है और उसका अर्थ है महत्वहीन, तब मुझे ऐसा एहसास होता है कि न तो ‘कविता’ रही न ही आलोचना। सच तो यह है कि किसी संस्था विशेष से प्रतिबद्ध आलोचक की आलोचना से निष्पक्षता की आशा की ही नहीं जा सकती।