16-गांधीजी, गांधीवाद और गांधीवादी
-हिंसा बनाम अहिंसा
सत्य परेशान हो सकता है, पर सत्य पराजित नहीं! साध्य पवित्र हो और साधन भी। साध्य (आजादी या और कुछ) पवित्र तो हो मगर साधन (उसे प्राप्त करने का तरीका) पवित्र नहीं तो मानव का भला संदेहास्पद है। ऐसा गांधी जी का विचार था। गांधी जी वैष्णव धर्मी थे -मांस, मछली, मदिरा से दूर! अपने कर्मों के जरिए, अपने जीवन को लक्ष्य कर सत्य की तलाश करते रहे। उनके लिए घृणा पाप से करो, पापी से नहीं। अनैतिक-साम्राज्यवादी ताकतों से भिड़ना-लड़ना उनकी आत्मिक-नैतिक पुकार थी। सत्याग्रह! सत्य पर डटे रहना। सत्य के लिए जीना। अहिंसा उनका परम धर्म था। हां, ब्रिटिश शासन इतना निर्मम था कि उसके लिए ऐसे वाक्य या विचार या सोच फिजूल थे। ऐसा बहुत से आलोचकों का मानना हो सकता है। निर्ममता का जवाब निर्ममता से देना, आतंक का जवाब आतंक से देना, कई लोगों के लिए व्यवहारिक उत्तर हो सकता है। समय-सापेक्ष में सही हो सकता है। पर, गांधीजी ऐसी प्रतिक्रिया को भी गलत ठहराते हैं। उनकी सोच यही है कि अपवित्र साधनों अथवा ऐसे साधन जो सत्य से मेल नहीं खाते, व्यक्ति या व्यष्टि दोनों के उद्धार में अनुचित हैं। दूरगामी प्रभाव बुरा ही होता है।
ऐसी आदर्श राजनीतिक लड़ाई में खासकर निर्मम हुकूमत से पंगा लेते हुए एक नेता का इस सत्य पर डटे रहना निश्चित रूप से उनके अनुयायियों के साथ-साथ उनके विरोधियों को भी हैरान कर रखा होगा। पर, तलवार या लाठी नहीं उठाने का अर्थ यह नहीं है कि विरोध दर्ज न करना। गलत को गलत होने देना, सही आवाज नहीं उठाना और ये कहे कि सत्य से आंखें मूंद लेना। ऐसा कतई नहीं था। निहत्था होकर भी -भूखे-गरीब किसानों-कामगारों को इकट्ठा कर उन्होंने अहिंसा की ताकत, सत्याग्रह, सविनय अवज्ञा की महत्ता को सिद्ध कर दिया था।
आखिर यह किसकी ताकत थी, अहिंसा ? सत्य का पुजारी ? अवज्ञा ?
प्रबुद्धता ? लोकप्रिय नेता के आह्वान की ?
नहीं! यह सभी तत्व तो उनके चट्टे-बट्टे थे। असली बात थी, असली ताकत थी सत्य की पुकार और गलत के विरुद्ध, अन्याय को ललकारने की शक्ति!
जरूरी नहीं कि जब आपके पास तोप और गोला होगा तभी आप मोर्चा खोलेंगे। गांधी जी ने अपने मेथड और क्रिया से यह सिद्ध किया कि सत्य कभी पराजित है ही नहीं। सत्य लुप्त प्रतीत होता है -अगर कोहरा छाया हो तो, मगर सत्य कभी बेबस नहीं कि वह कल या परसों अपने कदमों पर खड़ा होने के काबिल होगा तभी आप उसकी सेवा लेंगे। सत्य सदैव आपके पास मौजूद है, सत्य सदा ही, अपने पांव खड़ा है।
और अहिंसा से हमारा अर्थ क्या है ? क्या गोली-बंदूक की आवाज ही केवल हिंसात्मक है ?
गांधी जी ने अहिंसक साम्राज्य, अर्थात लाठी-गोली, कानून के डंडे का विरोध और सामना बेशक उन्हीं के अंदाज में नहीं किया, मगर अपनी भाषा में जरूर किया। व्यवहारिक तौर पर हिंसा का जवाब हिंसा से नहीं दिया मगर क्या गांधीजी या आवाम पर हुई हिंसा, अत्याचार सहना भी एक तरह की हिंसा नहीं थी ?
हो सकती है, इसलिए अत्याचार करने वालों से ज्यादा दोषी अत्याचार सहने वाले को माना गया है।
पर, जब हमारी हुकूमत ही वैसी हो जाए, हमारे माई-बाप ही दमन का सहारा लें तब ?
गांधियन मेथड में न ही अत्याचार सहा गया है न ही अपने निर्मम कानून (कायदे से उसका उल्लंघन भी हिंसा सामान माना जाना चाहिए) को स्वीकार किया गया है। गांधी जी ने कई-कई हुकूमत आदेश की अवमानना करके जैसे बहिष्कार, स्वदेशी अपनाओ, नमक बनाकर डांडी मार्च जैसे कायदे तोड़कर यह सिद्ध कर चुके हैं कि यह भी एक तरह की हिंसा का जवाब ही था। शायद हिंसा ही। पर, स्वरूप अलग। मेथड पृथक। खम्बा और जमीन के भीतर गहरे उतरा हो क्या अनुनय-विनय से हिल जाएगा। या उखड़ जाएगा ?
नहीं। जोर तो लगाना ही होगा।
राम के प्रार्थना करने पर भी समुद्र ने रास्ता नहीं दिया था। फिर तीर-धनुष का अनुसंधान किया गया और उत्तर मिला।
सूक्ष्मता से देखें तो अपने दार्शनिक अर्थ में गांधी जी ने खूब बल का प्रयोग किया। खूब शक्ति प्रदर्शन किया। ब्रिटिश हुकूमत को ना केवल हिलाया बल्कि उखाड़ फेंका। अस्त्र नहीं उठाया मगर निहत्था दिखने वाला प्राणी वह शस्त्रविहिन भी नहीं था। उसके लाखों हाथ और सर थे। जरा गौर करें, भारत छोड़ो आंदोलन के समय का एक भाषण जब उन्होंने कहा था कि हमारे तीस कोटी (तब की जनसंख्या) आबादी सिर्फ थूक देगी तो ब्रिटिश राज डूब जाएगा।
ऐसा आक्रोश किस निहत्थे, अहिंसक प्राणी का हो सकता है ?
हम यहां हिंसा या बल को पुनर्परिभाषित करने का प्रयास इसलिए कर रहे हैं ताकि प्रचलित शब्दावली जो चली आ रही है -उसको नये नजरिए से देखा जाए और यह लोग समझे कि गांधीजी का ’एक गाल पर और थप्पड़’ मजाक का विषय नहीं था। गांधियन मेथड में अपूर्व बल निहित है जिसे हम स्पर्श करना चाहते हैं। और वह बल या शक्ति का स्वरुप हिंसात्मक नहीं था, बल्कि उससे अधिक कारगर, प्रभावशाली और प्रबल भी था। ऐसा सिद्ध हो चुका है।
धरती का सीना फोड़कर पौधा पनपता है -वहां भी एक तरह की हिंसा (बल) है, उगे हुए पौधे को उखाड़ फेंकने के लिए भी बल (हिंसा) की जरूरत होती है।
आप हथियार का सहारा लेंगे तभी उसे हिंसा माना जाए ?
वैसे जैन संप्रदाय में तो हिंसा की परिभाषा बड़ी व्यापक है।
फिलहाल इस दार्शनिक पुनर्परिभाषा को यही छोड़ यह कहना उचित होगा कि जो लोग गांधियन तरीके को कमजोर या कायरों का तरीका मानते हैं -वे पूरी तरह गलत है।
गांधी जी का तरीका पूरी ताकत को समर्पित था, सत्य और विश्वास को समर्पित था। हां, इसके लिए गांधीजी को या गांधियन मेथड को स्वयं पर हिंसा जैसे डंडे खाना, उपवास करना इत्यादि करने पड़े थे। यह मेथड कहां से कमजोर हो सकता है। लाखों आवाम भूखे पेट सड़कों पर निकले, अपने को कष्ट दिया, क्या यह हिंसा नहीं था ? हां, यह स्वयं पर अत्याचार था, स्वयं पर हिंसा, स्वयं के गाल पर थप्पड़ मारने जैसा था और इसी बात में गांधियन मेथड क्रांतिकारी था। सारी दुनिया को इसने इसलिए झकझोर कर रख दिया। इसे इसलिए मान्य किया गया कि यह साध्य महान था।
यह अकारण नहीं है कि आज नोबेल कमेटी किसी न किसी तरह से गांधी जी को शांति पुरस्कार के लिए नवाजना चाहती है। गांधी जी को पुरस्कृत न करने के लिए उसे आज भी पछतावा है।
प्रश्न यह भी उठाया जाता है और जायज सा लगता है कि गांधीजी द्वारा क्रांतिकारियों की गतिविधियों की निंदा की जाती रही है। यहां तक कि भगतसिंह सरीखे क्रांतिकारियों के कार्य को उन्होंने आतंकी रवैया, यहां तक कि आतंकवादी ही समझा। उन्हें डर था कि युवा पीढ़ी आक्रोश और उत्साह में कहीं गलत दिशा में न चली जाए। इसलिए ऐसी हरकतों की गांधीजी ने सदैव निंदा की। बात सिर्फ यहीं तक सीमित नहीं थी, गांधी ने ब्रिटिश हुकूमत की शक्ति को समझ चुके थे। उनकी तानाशाही, उनकी ताकत का बखूबी अंदाजा उन्हें था। वे युवाशक्ति हां या निरीह किसान और कामगार उन पर हुकूमत के ताले और काल-कोठरी से जहां तक हो सके -गांधी बचाना चाहते थे। युवा क्रांतिकारी बलिदान को आगे आना चाहते थे, कुर्बानी के लिए तैयार थे -मगर ऐसी कुर्बानी गांधीजी जिसमें मानव संसाधन नष्ट हो रहा हो -उसकी प्रशंसा कैसे करते। जब 1920 का असहयोग आंदोलन चरम पर था और चौरा-चौरी कांड हुआ, गांधी जी द्वारा आंदोलन वापस ले लिया गया। घोर निंदा की गई, यहां तक कि उन्हें राष्ट्र के साथ दगा देना तक बताया गया।
पर, जिस बात को समाजवादी क्रांतिकारी या अन्य नहीं देख पाए उन्हें गांधी जी ने भांप लिया था। उन्होंने देख लिया था कि हुकूमत निर्मम कार्रवाई करने जा रही है -पता नहीं कितनों पर सरेआम कोड़े बरसाए जाते, कितनों को फांसी और लंबे कारावास के लिए भेजा जाता। और तो और इस दमन नीति से संगठन के नेता भी बिखर सकते थे जैसा कि हमें छोटे पैमाने पर क्रांतिकारी दल के नेताओं के दमन के पश्चात देखने को मिलता है। चिट्गांव गुट हो या चंद्रशेखर आजाद, भगत सिंह की शहादत के बाद हिंदुस्तान रिवॉल्यूशनरी एसोसिएशन की बात -सभी ग्रुप अपने नेता खो देने (फांसी या कारावास) के बाद निष्क्रिय हो गए या लंबे समय के बाद सक्रिय हो पाए।
बात अगर निहित दार्शनिक तत्व को निकालकर भी व्यवहारिक आयाम से गांधी जी के निर्णय को परखें तो आज उनके कदमों की समीक्षा करते हुए उनके द्वारा उठाए चरण, स्ट्रेटजी तब के संदर्भ में एकदम सार्थक थे।
यह अलग बात है कि क्रांतिकारियों के जज्बे पूरे देश भर में सराहे गए। उनकी स्ट्रेटजी ने युवा और आवाम में अपने उद्देश्य, मंसूबे बखूबी और तेजी से फैलाए। पर, यह क्षणिक नतीजे थे, तात्कालिक जबकि हुकूमत के साथ लड़ाई लंबी थी। इसका भान भी गांधीजी को था। आखिर अपने अंतिम समय में स्वयं भगत सिंह ने पत्र लिखकर यह अभिमत प्रगट किया कि क्रांतिकारी युवा व्यक्तिगत हीरोइज्म से ऊपर उठकर जनता (मास) को जागृत करें, संगठित करें।
ठीक यही गांधी जी कांग्रेस के जरिए कर रहे थे और ठीक यही विचार क्रांतिकारियों ने भी कांग्रेस का लगातार समर्थन देकर कर रहे थे।
सवाल इनके सही होने और दूसरे के गलत होने का नहीं था। सवाल ज्यादा सही, ज्यादा उपयोगी और तात्कालिक हलचलों से हटकर लंबे समय में सार्थकता का था, जिसे निश्चय ही तब गांधियन स्ट्रेटजी में हम देखते हैं। जिसे तब बहुतों द्वारा नहीं समझा गया।
यही नहीं, गांधीजी कांग्रेस की कमान अपने हाथ में लेने के पूर्व भारत आगमन उपरांत गोखले के मार्गदर्शन पर देश-देश घूम कर स्थितियों का जायजा ले चुके थे। अहमदाबाद के मजदूरों की समस्या, बिहार में चंपारण में किसानों की समस्या (नील खेती) और खेड़ा में किसानों-रैयतों की समस्या वे हल कर चुके थे। वस्तुस्थिति से वाकिफ हो चुके थे। इन सभाओं में उन्होंने करीब से भारतीय आवाम की शक्ति, उनकी सूनी आंखों को देखा और अपने अभिमत पर कायम रहे कि इन पर अत्याचार नहीं ! हुकूमत की हिंसा तो बिल्कुल नहीं।
वह देख चुके थे कि भूख हड़ताल या पार्टी या रैलियों में दुखी लोगों की संख्या किस कदर कम होती जाती है। यहां तक कि कैडर के नेता भी ढीले पड़ जाते हैं। आवाम की नज्म कहे या आवाम की कैफियत -सब कुछ समझते थे। उनकी नीतियां सबसे बढ़कर दिल्ली या लंदन के शयनकक्ष में नहीं बनी थी -उस जमीन पर बनी थी जहां दुख और कातरता सीधे-सीधे अभिव्यक्त हो रही थी।
हम थोड़ा पीछे हटकर गांधी जी के जीवन और कार्य-व्यापार को समझने की कोशिश करेंगे और इस तथ्य को ढूंढने की कोशिश करेंगे कि आखिर उन्हें किन बातों या घटनाओं ने गांधी को जो कि उन्हें एक संज्ञा से विशेषण से भर दिया।
गांधीजी एक शिक्षित और तब के समय के प्रतिष्ठित घराने से तालुकात रखते थे। वे काठियावाड़ के दीवान (मिनिस्टर) के बेटे थे और जीविकोपार्जन करना उनके लिए अनिवार्यता या बाध्यता नहीं थी। वह वैष्णव थे, मांस मदिरा से दूर सर्वधर्म समभाव जिनका आदर्श था। लंदन से 3 साल बिता कर बैरिस्ट्री पास कर चुके थे और वकालत उनका पेशा था। लियो टॉलस्टॉय, रूसी लेखक और कबीर उनके प्रिय साहित्यकार थे। टॉलस्टॉय का आदर्श उन्हें संभवतः अधिक प्रिय था। 1893 में गुजरात के एक व्यापारी, दादा अब्दुल्लाह के निवेदन पर उनका 1 वर्ष के लिए दक्षिण अफ्रीका डरबन गमन हुआ। उस वक्त उनकी उम्र 24-25 के आसपास रही होगी, तथापि दक्षिण अफ्रीका में सबसे शिक्षित, बैरिस्टर गांधी जी ही थे। दक्षिण अफ्रीका में तब दक्षिण भारत (तमिल) और कुछ व्यापारी गुजरात इत्यादि से वहां विशेषकर शुगर प्लांट और खदानों में कामगार की हैसियत से प्रवास कर चुके थे। प्रवासी भारतीयों की अच्छी आबादी थी, दक्षिण अफ्रीका पर भी भारत की तरह ब्रिटिश हुकूमत का राज था।
गोरे और काले रंगभेद की नीति या अनीति उनके (गांधीजी) डरबन से प्रीटोरिया गमन के दौरान कई-कई दफा झेलना पड़ा। प्रचलित कंपार्टमेंट (रेलवे फर्स्ट क्लास टिकट होने के बावजूद भी) उन्हें धक्के मारकर निकाल दिया गया था। किसी भी होटल में उन्हें ठहरने नहीं दिया गया था। रंगभेद का रंग चमकीला था। इन घटनाओं में जैसा कि हम जानते हैं रेलवे कंपार्टमेंट से धक्के खाने के बाद भी गाधीजी ठंड में ठिठुरते रात बिताया। कदम-कदम भेदभाव बर्ताव से आहत हुए। घटनाओं ने उन्हें मानसिक, आत्मिक और शारीरिक रूप से झकझोर कर रख दिया। तत्काल ही उन्होंने प्रिटोरिया में भारतीय प्रवासियों को इकट्ठा किया और भेदभावपूर्ण व्यवहार की निंदा की। इसका प्रतिकार कर अपनी आवाज के अस्तित्व का आह्वान किया। अपना विरोध प्रेस में लेख लिखकर क्रिश्चियन सभ्यता-संस्कृति पर ही सवाल उठाया। उन्होंने भारतीयों के अपने अस्तित्व और मानव गरिमा के मान की रक्षा हेतु स्वयं जागृत हो विरोध करने को प्रेरित किया। प्रेरित ही नहीं किया बल्कि संगठन तैयार किया, चंदे इकट्ठे किए, ब्रिटिश हुकूमत तक को पत्र लिखकर अपना विरोध दर्ज किया। सबसे बड़ा सवाल था -मनुष्य को मनुष्य न समझना। वहां पूर्ण सम्मान के हकदार सिर्फ गोरे थे, अन्य नहीं। अन्य शायद दोयम-तीयम या किसी लायक ही नहीं थे। या फिर खदान के मजदूर, पत्थर तोड़ने वाले या प्लांटों में बोझ उठाने वाले।
भेदभाव! अन्याय!
मार्क्स भी पूंजीवादी साम्राज्य में भेद-भाव को देख चुके थे जहां कामगारों को मनुष्य नहीं, मशीन से भी बदतर दर्जा प्राप्त था।
गांधीजी जिस उद्देश्य से दक्षिण अफ्रीका आए थे वह काम समय पर हो चुका था -मगर इत्त्ेफाक देखिए कि उन्हें बीस वर्ष और वहां रुकना पड़ा। बीस वर्षों के दौरान गांधीजी ने प्रजातीय भेदभाव और उससे उत्पन्न कई विधेयकों/कानून का विरोध किया और अंततः विजयी हुए।
दक्षिण अफ्रीका में गांधी जी से पूर्व एक भी शख्स ऐसा नहीं था जो हुकूमत को हुकूमत की जुबान में, उसी के कानून को लिख-पढ़ या समझ सकता हो। गांधीजी वो शख्सियत थे जो ना केवल भाषा, बल्कि अंग्रेजों के कानून और उनकी तथाकथित ’पश्चिमी सभ्यता’ को खूब अच्छी तरह समझते थे। वे भेदभावपूर्ण व्यवहार के खिलाफ कानून के अधीन ही पीटीशन तैयार कर हुकूमत से सीधा सवाल-जवाब कर सकते थे। सबसे बढ़कर उनमें अत्याचार या असत्य का प्रतिकार करने की क्षमता थी। एक लीडर की हैसियत से प्रोपगंड़ा, संगठन, सूचना-प्रसार, अपने फैसले पर अडिग रहना इत्यादि गुणों से भरपूर थे। वहां ’नॅटल ऑपिनियन’ जर्नल का प्रारंभ कर नॅटल इंडियन कांग्रेस की स्थापना की। टॉलस्टाय फार्म निर्मित किया गया। सत्याग्रह आंदोलन तेज हो चला और सत्याग्रहियों के रूकने ठहरने की आवश्यकता महसूस की जाने लगी। इसी तर्ज पर भारत में उन्होंने साबरमती आश्रम की स्थापना की। टॉलस्टाय फार्म और सत्याग्रह के लिए फंड की व्यवस्था की गई। उल्लेखनीय है कि तब रतन टाटा ने फार्म के लिए हिंदुस्तान से 25000 रूपये भेजे। हैदराबाद के निजाम ने भी खुलकर चंदा भेजा। कांग्रेस और मुस्लिम लीग ने भी मदद की।
इस बीच कुछ विशेष मुद्दे उभरे और जिन पर गांधियन तरीके से वहां की सरकार को सत्याग्रहियों के विरोध को देखते हुए झुकना पड़ा। आज के पाठकों के समक्ष उन्हे पुनः प्रस्तुत करना दिलचस्प होगा ताकि हम देखें कि हमारे पूर्वज और गणमान्य किस राजनीति व समाज के हिस्से थे और आज की तुलना में हम अपनी आजादी को आंक सकें।
कानून बनाया गया कि जो भी अप्रवासी भारतीय दक्षिण अफ्रीका आते हैं उनके दोनों अंगूठों के निशान रजिस्टर कराएं जाएं और रजिस्ट्रेशन कार्ड सदैव अपने पास रखना अनिवार्य होगा।
या सीधे-सीधे भारतीयों की नागरिकता पर सवाल था। यह अपमानजनक था।
उसी तरह एक और मजेदार कानून पास हुआ कि चाहे कोई भी जाति-धर्म हो -भारतीय जोड़ों को क्रिश्चियन रीति से शादी कर ही रजिस्टर्ड करवाने पर उन्हें वैध माना जाएगा। उनके संतान अवैध घोषित हो गए।
इस कानून पर क्या टिप्पणी की जाए ?
उसी तरह भारतीयों के आव्रजन (इमीग्रेशन) पर पूर्ण रोक लगाने संबंधी विधेयक लाया गया, टोल टैक्स बढ़ाये गये।
उक्त सभी का विरोध गांधियन मेथड से संगठित हो, किया गया। जेल भरे गए, सरकारी दमन का सामना किया गया। कामगारों-मजदूरों जहां निवास करते थे उनका बिजली-पानी बंद कर दिया गया। लोग सड़क पर आ गए। गांधी जी के नेतृत्व में हजारों को जेल भेजा गया। पुलिस-प्रशासन गांधी जी से इस तरह पेश आए मानों कुख्यात क्रिमिनल हों -उन्हें हथकड़ी पहनाकर अदालत में पेश किया जाता था।
यह सब अपमान और दमन के तरीके थे। लंबी लड़ाई चली। गांधी जी को भारतीय नेशनल कांग्रेस का भी समर्थन मिलता रहा। गोपाल कृष्ण गोखले आंदोलनकारियों से मिलने दक्षिण अफ्रीका पहुंचे।
दक्षिण अफ्रीका की इस लड़ाई में हिंदू-मुस्लिम, ईसाई, पारसी सभी एकत्रित थे। अंततः सरकार को झुकना पड़ा और गांधी द्वारा सत्याग्रह आंदोलन उत्त्रोत्तर तीव्र करना, आवश्यक होने पर महिलाओं द्वारा भी सड़क पर उतरना, इत्यादि ऐसे प्रसंग थे जिनसे गांधी जी को अपने तरीके पर विश्वास और पूर्ण विश्वास होने लगा था। उन्होंने यह भी सीखा कि कई बार लोकप्रिय निर्णय न होने की दशा में कुछ लोग नाराज भी हो सकते हैं मगर एक लीडर को अपने सिद्धांतों पर अड़ा रहना चाहिए। उनके निर्णय से क्षुब्ध दक्षिण अफ्रीका में उन पर दो बार जानलेवा आक्रमण हुआ था। वह बच गए -मगर सबक भी प्राप्त किया। वहीं सबक उन्होंने हमेशा भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के दरम्यान चाहे चौरा-चौरी कांड के समय लिया गया निर्णय हो या चाहे अन्य अनेक -वे सिद्धांतों पर अड़े रहे। वह समझ चुके थे कि उनके विरोधी तो विरोध करेंगे ही, उनके अनुयायी भी तीव्र विरोध कर सकते हैं। और इतिहास ने यह साबित भी किया है।
जनवरी 1915 में गांधी जी भारत वापस आए। उनके आगमन के पूर्व ही गांधियन मेथड और गांधी जी को पर्याप्त यश प्राप्त हो चुका था। वो प्रमाणित लीडर हो चुके थे।
उस वक्त नेशनल कांग्रेस के नेतृत्व में मॉडरेटेड अर्थात सुधारवादी तरीके से हुकूमत से मांगें और दलीलें पेश की जाती थीं। गांधीजी इन तरीकों को दक्षिण अफ्रीका में आजमा चुके थे और इन तरीकों पर उनका कोई भरोसा नहीं था। तिलक और एनी बेसेंट के नेतृत्व में होमरूल आंदोलन जारी था। भारत आगमन उपरांत तत्काल गांधी जी को राजनीतिक अखाड़े में कूदने की जल्दी नहीं थी। इसके तीन कारण थे-
एक -उन्हें देश की राजनीति और स्थितियों को समझना था और इसके लिए वे स्वयं दूरस्थ क्षेत्र घूमकर गरीबों-किसानों से रू-ब-रू होना चाहते थे। दो -अपने विरोधी ब्रिटिश हुकूमत जो कि प्रथम विश्वयुद्ध में उलझा था -युद्ध में फंसे लोगों चाहे वे विरोधी ही क्यों ना हो तंग करना उनकी नैतिकता-शिष्टता के दायरे में नहीं आती थी। तीन -स्थितियों से अवगत होकर गांधी जी अपने मेथड से कांग्रेस के मार्फत देश की आवाज होना चाहते थे, न कि किसी अन्य विचार-मान्यता से प्रभावित। इसका ये अर्थ नहीं था कि अच्छे विचारों के लिए उनके हृदय-मस्तिष्क में जगह नहीं थी। उन्होंने स्वयं कहा कि नए विचारों का स्वागत है बशर्ते कि वह उनकी आत्मा के अनुकूल हों। फिलहाल, सुधारवादी रवैया उनकी नजर में व्यर्थ था।
देशव्यापी असहयोग आंदोलन (1919-1920) छेड़ने से पूर्व गांधीजी स्थानीय मुद्दों व वस्तुस्थिति से अवगत होने की दृष्टि से 1917-18 में खूब भ्रमण किया जिनमें चंपारण का नील (तिनकाठिया सिस्टम) की खेती का मुद्दा दिलचस्प है।
बिहार में नील की खेती को लेकर पूर्व में भी हुकूमत से विवाद हो गया था। और नील के खेतिहारों द्वारा बगावत करने के कारण और हुकूमत के दमन उपरांत भी जब समस्या नहीं सुलझी तब बहुत से अंग्रेज स्वयं नील की खेती करने लगे। चूंकि यूरोप के उद्योगों को (कपड़ा मिल) नील की भारी मांग थी और बिहार-बंगाल का नील उच्चतम गुणवत्ता का था। पर, किसानों को नील की खेती से कोई लाभ नहीं था, उलटे अनाज नहीं उगाने के कारण भुखमरी की स्थिति उत्पन्न हो जाती थी। हुकूमत ने एक प्लाट में तीन कठिया प्रणाली, अर्थात् जमीन के दो-तिहाई हिस्से पर नील की खेती अनिवार्य कर दी थी।
राज कुमार शुक्ला जो कि स्थानीय किसान नेता था -ने गांधी जी को इस बात से अवगत कराया और चंपारण आगमन का निमंत्रण दिया।
गांधीजी चंपारण पहुंचे। कमिश्नर ने तत्काल उन्हें जिला छोड़ देने का हुक्म दिया। होमरूल मूवमेंट से जुड़े तिलक और एनी बेसेंट ऐसे आदेश की अवहेलना नहीं कर पाए थे -तथापि उन्हें पब्लिक विरोध का एजेंडा (होमरूल) उनके साथ था। लोग उनके साथ थे। यहीं गांधीजी तब अकेले थे बिना किसी संस्थागत बैनर के नीचे। गांधी जी ऐसी हुकूमत से निपटना दक्षिण अफ्रीका में सीख चुके थे, वे कहां मजिस्ट्रेट के आदेश को मानने वाले थे। डटे रहे और हुकूमत की जेल देखने को तैयार थे। सरकार को झुकना पड़ा और इजाजत मिली। वे अपना निरीक्षण कर सकते हैं।
गांधीजी ने नील खेतिहारां का बारीकी से निरीक्षण किया। उनका अन्वेषण भी अलग था। उनके सहकर्मी बृजकिशोर, बाबू राजेंद्र प्रसाद (प्रथम राष्ट्रपति) और 4-5 अन्य जिसमें जे बी कृपलानी भी थे -गांधी जी के साथ सुबह से शाम गांव-गांव के किसानों से मिलकर उनका स्टेटमेंट दर्ज करते और स्वयं वस्तुस्थिति का जायजा लेते।
हुकूमत पर भी इसका असर हुआ और उसने एक सरकारी जांच दल बनाया जिसमें गांधी जी को सदस्य रखा गया। पर्याप्त सबूतों के साथ लगभग 8000 (आठ हजार) किसानों से रू-ब-रू होकर इस नतीजे पर पहुंचे कि तीन कठिया प्रणाली भंग की जाए तथा अवैधानिक तरीके से बागान मालिकों द्वारा किसानों से वसूली गयी पूरे रकम की 25 प्रतिशत राशि वापस करेंगे।
आलोचकों ने आपत्ति उठाई कि अवैध वसूली के मात्र 25 प्रतिशत क्यों शत-प्रतिशत क्यों नहीं ? इस पर गांधी जी ने जो अनुमान लगाया उसके अनुसार 25 प्रतिशत की राशि ही पर्याप्त थी। बागान मालिकों का अस्तित्व व सम्मान दोनों आहत हुआ था।
गांधी जी का अनुमान एकदम सही था। अगले कुछ ही वर्षों में बागान मालिकों ने चंपारण छोड़ दिया।
गांधीजी सत्य के पुजारी थे -न्याय उनका धर्म था।
मालिक होना या पूंजीपति होना उनके विरोध का कारण नहीं था।
इस प्रसंग को इसलिए यहां नहीं उठाया गया है कि पाठकों को गांधीजी या स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास से परिचित कराया जाए। इस पर दर्जनों अच्छी किताबें मौजूद हैं। यहां इस या ऐसे प्रसंग इसलिए लिखे जा रहे हैं ताकि इन घटनाओं के दृश्य में गांधीवाद और मार्क्सवाद के मूल स्वरूप को समझा जा सके। सिद्धांतकारों पर बड़ी-बड़ी, मोटी-मोटी पोथियां, रिसर्च पेपर प्रकाशित होते रहे हैं -मगर कई दफा बड़ी छोटी सी बात चूक जाती है। उद्देश्य, तुलना करना श्रेष्ठता सिद्ध करना नहीं, देशी और विदेशी खांचा खींचना भी नहीं। लेखन का उद्देश्य है समझना। शायद नए परिपेक्ष्य से। गांधीवाद-मार्क्सवाद दोनों को। खैर!
उक्त प्रसंग जितना किसानों के हित में था, उतना ही हुकूमत के हित में और बाग-मालिकों के भी। चूंकि बाग-मालिकों (ज्यादातर अंगरेज) ने कर्ज लेकर इस फायदे के कारोबार में हाथ डाला था, मगर किसानों के विरोध के कारण और प्रणाली भंग किए जाने के कारण बाग-मालिक अब वहां चावल की खेती तो नहीं करते ? पूंजी अपना कार्य इसी तरह करती है -शासन पर जबर डालती है और अपने हित में कानून पास करवाती है।
यह आज भी जारी है। स्वरूप विकसित व विकराल हो गया है। न अब कोई गांधी है न ही वो पीड़ित आवाम जो सड़क पर आने को तैयार है। उसे सब स्वीकार है। स्वीकार की दशा में क्या आंदोलन! वे संतुष्ट हैं। वे सरकार बदलते हैं और उम्मीद पर कायम हैं। पर, हुकूमत चाहे ब्रिटिश की हो या विश्व की कहीं की भी हो -मूल भाव अब भी बना है। असंतोष तो रहता है। क्योंकि ’न्याय’ या ’सच’ एक आदर्श है जो शायद उस तक हम पहुंचने की कोशिश करते तो हैं -पर न जाने क्यों -एक दूरी बनी रहती है।
फिलहाल, जरा इस घटना को मार्क्सवादी नजरिए से देखें। क्या गांधीजी कामगारों के अथवा ट्रेड यूनियनों के नेता नहीं सिद्ध हुए ? उन्होंने क्या खूब मैनेजमेंट का कार्य किया। पूंजीवाद, -स्टेट और कामगार।
एक और सवाल जो इतिहास से (मार्क्सवादी इतिहास से) पूछा जाना चाहिए कि क्या फैक्ट्रियों के मालिक और यूनियन के बीच मार्क्सवादी सिद्धांत के तहत यूनियन नेता क्या गांधीजी की तरह मानवीय और न्यायसंगत थे ?
गांधी जी के गांधीवाद में कोई वर्ग संघर्ष नहीं है। वे सभी मनुष्य हैं और उनको सत्य का मार्ग दिखाना एक घटना नहीं प्रक्रिया है जो कुछ समय मांगता है।
एक और प्रसंग है जो मार्क्सवाद और गांधीवाद को समझने में सहायक है। दिलचस्प भी है।
चंपारण के बाद गांधी जी को अहमदाबाद के मिल मालिक और कामगारों का विवाद निपटाना पड़ा। वहां मालिक और मजदूरों के बीच प्लेग के कारण ’महामारी बोनस’ को लेकर विवाद चल रहा था। मजदूर असंतुष्ट थे -मालिक ने ट्रिब्यूनल को बोनस के तहत मात्र 20 प्रतिशत की राशि भुगतान देने पर अड़ा था, वहीं कामगार असंतुष्ट थे। प्रथम विश्व युद्ध का दौर था, महंगाई बढ़ चली थी। मजदूर असहाय थे। अहमदाबाद के ब्रिटिश कलेक्टर ने गांधी जी को तलब किया। मिल मालिक पर दबाव बनाकर समझौते का रास्ता ढूंढने का दायित्व गांधी जी को दिया गया। मिल का मालिक गांधी जी का मित्र था -अंबालाल साराभाई -शहर का माना हुआ मिल मालिक। जब साबरमती आश्रम संकट में था तब मित्रता निभाते हुए साराभाई ने बड़ी उदारता से आर्थिक सहयोग किया था। यहां तक कि साबरमती आश्रम का अस्तित्व ही उनके सहयोग से बचा था।
साराभाई इस बात पर अड़े थे की हड़ताल पर जाने वाले कामगारों की छुट्टी कर दी जाएगी और बोनस वहीं 20 प्रतिशत! इससे अधिक नहीं। उनका कहना था चूंकि महामारी समाप्त हो चुकी थी अतः बोनस कैसा ?
गांधी जी ने मिल के उत्पाद और लागत, खर्च और आय का गहन अध्ययन किया, साथ ही कामगारों के जीवन यापन के लिए न्यूनतम राशि का भी अध्ययन कर 35 प्रतिशत की वृद्धि पर अपनी सहमति दी। अस्वीकार की स्थिति में कामगारों को हड़ताल पर जाने की स्वीकृति दी।
साबरमती आश्रम में हड़ताली इकट्ठा होने लगे। गांधी जी भाषण देते। अहिंसा की अभिव्यक्ति देते। सत्याग्रह पर टिके रहने की बात करते।
इस घटना में यह भी दिलचस्प था कि साराभाई की बहन अनुसूइया बहन इस संघर्ष में मजदूरों-गांधी जी के साथ थी। दिलचस्प यह कि स्वयं गांधी किससे भिड़ रहे थे ? अपने मित्र और कहां ? साबरमती आश्रम जिसे उस व्यक्ति ने कभी जीवनदान दिया था।
यह प्रसंग उल्लेखनीय और मानवीय मूल्य से भरपूर है। ऊपर जो घटना का विवरण है वह इतिहास है, मगर साहित्य इतिहास के परे की चीज है।
यहां मार्क्सवाद की प्रमाणिकता देखें। मार्क्सवाद जिस भौतिक द्वंदवाद की बात करता है, जिस बुर्जुआ और प्रोलेटेरियन की बात करता है, यानी एक वैज्ञानिक व्याख्या करता है -वह विज्ञान चाहे आप समाज विज्ञान कह लें, यहां प्रदर्शित हो रहा है। विचार किसी रिश्ते के दायरे से बड़ा है, देश-काल, रक्त-संबंध सबसे! मार्क्स इसे इसी रूप में अभिव्यक्त करते हैं। फिल्म सगीना में जिसे तपन सिन्हा ने निर्मित किया है और वहां के किसी लेखक का (नाम याद नहीं) उपन्यास पर आधारित फिल्म रचा गया है, फिल्म (उपन्यास) के मिल मालिक की बेटी कामगारों के साथ है। वह अपने पिता के खिलाफ संघर्ष करती है क्योंकि उसे लगता है कामगारों को हक मिलना चाहिए। ऐसे अन्य अनेक प्रसंग आपको मिल जाएंगे।
यह प्रसंग आया है तो गांधी जी के नजरिए को समझा जाए। क्या वे किसी ’विचार’ के तहत अर्थात मार्क्स से प्रेरित होकर ऐसा कर रहे थे ? अनुसूइया बहन का पता नहीं मगर गांधी जी का ऐसा करना उनके न्याय या कहें सत्यधर्मी होना ही प्रमाणित करता है।
गांधीजी समाज विज्ञान पढ़कर समदर्शिता नहीं दर्शा रहे थे -गांधी जी सत्य और न्याय के प्रतिरूप थे। वे स्वयं सत्य थे -और कुछ नहीं।
क्या गांधी जी को अपने मित्र के खिलाफ दबाव बनाने पर उनका अंतस कमजोर नहीं हुआ होगा ?
यहीं वे खास हो गए, एकदम खास, जब उन्होंने व्यष्टि को दरकिनार किया ताकि समष्टि का हित हो सके। व्यक्ति गांधी मृत हो गया और समष्टि गांधी जीवित हो गया। जिसका संबल था -सत्य!
मार्क्स का सिद्धांत सामाजिक तथ्य को सामाजिक सत्य में बदल देता है। वर्ग-संघर्ष साफ-साफ दिखता है। यहां फिर गांधी जी ट्रेड यूनियन के माने हुए नेता की तरह समझौता करवाते हैं। मिल मालिक झुकते हैं, 35 प्रतिशत वृद्धि स्वीकार होती है, हड़ताली वापस काम पर जाते हैं। पर हां, गांधी जी को अब तक अनशन तक करना पड़ता है। जब आंदोलन लंबा चलने लगता है तो हड़तालियों की संख्या धीरे-धीरे कम होने लगती है तब स्वयं गांधी जी द्वारा भूख हड़ताल पर जाने का निर्णय लिया जाता है। हड़ताल में फिर से जान आ जाती है। अंततः उनकी जीत होती है।
जरा गौर फरमाएं -अगर ट्रेड यूनियनों के नेता निष्पक्ष और न्यायधर्मी न हों तो मार्क्स के सिद्धांत का क्या होगा ?