काव्य-शशांक श्रीधर

दहेज का लोभ

एक दिन मैंने सोचा क्यों न बहू को मार डालूं
उसका गला घोंट डालूं
लव मेरिज करके आई, दहेज भी नहीं लाई
मौके की तालाश में था, कब मरेगी आस में था
पेट्रोल से जलाकर मारने की सोचा
पर इतना महंगा पेट्रोल
हो गया मेरा डब्बा गोल.
दो टकिए की बहू को मारने
सस्ता ज़हर ठीक रहेगा
पर मुझे क्या पता वो भी नकली रहेगा
एक दिन सुनसान ऊंचे पुलिए पर ले गया
धकियाने ही वाला था कि आधा पुलिया गिर गया
बहू के साथ मेरी भी जान जाती
पता नहीं किसकी चल रही थी साढ़े साती.
सोचा कुंभ के मेले में छोड़ दिया जाए
पर क्या भरोसा रेल में बैठ वापस घर आ जाए.
मैं सभ्य समाज का सभ्यतम
और सुसंस्कृत ससुर था
पर मेरे अंदर खूंखार और पराक्रमी
दहेज लोभी असुर था.
कई उपाय सोचे पर रह गया खींसे निपोरे
उतने में मेरी पंद्रह बरस की बिटिया आई
गुस्से से तमतमाई
देखो पापा ये अखबार में क्या छपा है
दहेज लोभियों ने बहू का गला घोंट दिया है
कैसे घटिया और तुच्छ लोग हैं
दहेज का ये कैसा कुष्ठ रोग है
इनको तो बीच चौराहे पर भून देना चाहिए
बुलडोजर चलाकर रौंद देना चाहिए
है न पापा ! है न पापा !
मैं सिर झुकाए मौन बैठा था
ऐसा लगा जैसे मैंने
अपनी बेटी का ही गला घोंटा था.
पापा, घूस मत लिया करो
एक डॉक्टर जोड़ता रहा जीवन भर
मानव की हड्डियां
पर जोड़ नहीं पाया
अपने को इंसानियत से.
घूस लेकर कई हड्डियां जोड़ी
और दिये सर्टिफिकेट अपंगता के
क्या ये डॉक्टर
मानसिक रूप से अपंग नहीं था ?
सेवा निवृति के ठीक पहले
पकड़ा गया रंगे हाथ
अपंगता का प्रमाणपत्र देने के एवज में.
परिवार के सारे चेहरे
फक्क रह गये
जिस पर कभी
घूस के पैसों की लालिमा
और घमंड़ झलकता था.
क्या एक डॉक्टर को
इतना कम वेतन मिलता है
कि बीवी-बच्चों का पेट न पाल सके ?
तो फिर बीवी क्यों नहीं बोली
नहीं चाहिये हराम का पैसा
नहीं चाहिये
गरीबों के पसीने की गाढ़ी कमाई
क्यों नहीं कहा बच्चों ने
ईमानदारी से काम किया करो
पापा, घूस मत लिया करो!

शशांक श्रीधर
फ्रेजरपुर, इंडस्ट्रियल एरिया
जगदलपुर
मो.-9424290567