बढ़ते कदम-ओम प्रकाश ध्रुव की कविताएं

 

अनजान

निकल पड़ा हूँ अनजान डगर पे,
शायद मंज़िल मिले इसी सफ़र पे।

उम्मीद की गठरी लिए फ़िर रहा हूँ,
कोई काम मिल जाये किसी शहर पे।

था पिता का साया बहुत इतराया,
झकझोर दिया पिता के इस ख़बर पे।

जाऊँ कहीं भी काम की तलाश में मग़र,
काम का नहीं हूं किसी के नज़र पे।

न जाने कब लेकर जाऊँगा कुछ खाने को,
बूढ़ी माँ राह देख रही होगी मेरी घर पे।

आज समझा हूँ जिनसे सीधे बात नहीं करता था,
एक पिता की एहमियत क्या होती है किसी सर पे।

सागर

दो वक़्त की रोटी कमाने वाला भी जीता है,
दो पीढ़ी के लिये कमाने वाला भी जीता है,
फ़र्क सिर्फ़ इतना है….
एक आधे पेट खा के सुकूँ से सो जाता है,
तो एक भर पेट खा के भी सो नहीं पाता है,
कभी-कभी जो दिखता है वो होता नहीं,
जिसके पास है वो हँसता नहीं,
तो कभी जिसके पास नहीं वो रोता नहीं,
साज सज्जा से भरपूर जिंदगी उसी की खास है,
ये ज़रूरी नहीं कि सारी खुशियाँ उसी के पास है,
सब नज़र और नज़रिये का खेल है,
देखो ग़ौर से तो सागर में भी प्यास है।

 

ओमप्रकाश ध्रुव
जगदलपुर, बस्तर
79873 98867