साक्षात्कार-महेश्वर नारायण सिन्हा (पार्ट-3)

मैं महेश्वर जी के घर में बैठा उनसे सवाल पूछने की तैयारी कर रहा था। सर अभी अपनी कूची से एक बड़े से चित्र में रंग भर रहे थे। मैं भी उनकी रचना को जीवंत होते देख रहा था। उनके बेडरूम में दीवारों पर लगी अनेक पेंटींग अपनी खूबसूरती बयान करती हुयी अपनी ओर बुला सी रहीं थी। चटक रंगों में बाल काढ़ती औरत अपने उन्मुक्त परिवेश में उन्मुक्त सी बैठी थी।
तभी महेश्वर जी अपने हाथ की कूची एक किनारे रख कर मुस्कुराते हुये अपने पलंग पर बैठ गये। चाय का कप मेरे सामने से हटा कर एक ओर रखा। उनके साथ चाय की चुस्कियां लेते जाइये, वो आपके साथ दिन भर चाय पी सकते हैं। पर हां, उस चाय के साथ साहित्य का बिस्किट होना जरूरी है। घंटों बात करते रहिये और साहित्य का बिस्किट चाय में डुबो -डुबो कर खाते जाइये। अपनी तमाम निजी बातों की जानकारी देने के बाद महेश्वर जी ने तकरीबन तीसरी पूछा, ’चाय तो चलेगी न!’ और जवाब का इंतजार भी न किया। शायद चाय का पेड़ लगा था, एक कप तोड़ा और सामने हाजिर! चाय की चुस्की ले कर मैंने भी अपना अगला प्रश्न दाग दिया।

सनत जैन-’सर, ये बताइये राजेन्द्र यादव को दलित विमर्श, स्त्री विमर्श का जनक कहा जाता है, क्या ये सच है ? या फिर उन्होंने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का दुरूपयोग किया ? या फिर उन्होंने अपनी यौनविकृति को भुनाने के लिए महिला साहित्यकारों का ब्रेनवाश कर उनसे शारीरिक सुख भोगा था ?’
महेश्वर जी के चेहरे पर आई मुस्कुराहट प्रश्न सुनते-सुनते गहरी होती गयी और आखिर में हंस कर जवाब दिया।
महेश्वर जी’स्त्री मुक्ति की तो इन्होंने धनिया बो दिया। धनिया अब धनिया की चटनी बना ली तो खैर नहीं…साली तुमको मुक्त होना है कि नहीं, और सुनो…आज ही मुक्त होना है…अरे ई तू क्या चूड़ी-कंगना पहिन रखा है ये पायल आ पाजेब क्यूं बज-बजा रहे हैं, और यह माथे का सिंदूर….यह साड़ी दुपट्टा….ये सब का है डार्लिंग….! मुक्त हो जाओ…छोड़ो तीज-त्यौहार, तीज आउर गीतिया ससुरी….तुम अब ना धनिया कूटेगी न मसाला पीसेगी…., यह देखो ये जो तुम्हारा मरदा है न…., गुलामी का बड़ा कारण….साले को समझा दो…हम अभी दूसरे-तीसरे-चौथे-पांचवे…..हमको सब करना आता है….हई धरो मंगलसूत्र….! हमको सीता बनाकर वाटिका में कैद मत कीजिये -हम मुक्त हुये हैं। खुली हवा चाहिये…पंखा झलिये….का सुन रहे हैं नू….!
इस तरह स्त्री विमर्श के तो पल्लू-दुपट्टा सब ले उड़े….., कुछ बचा भी तो सिर्फ मुक्ति…!
इस स्त्री विमर्श के अनुसार घर का हर शादी-शुदा मर्द अपनी स्त्री के समक्ष थ्योरी अनुसार, इनके पवित्र बाइबल के पन्नों के अनुसार ’विलेन’ और हर पराया मर्द ’मुक्तिदाता’ की श्रेणी में आ गया है। सारी परम्परायें, इतिहास, मिथक व मिथकीय चरित्र, ज्ञान-गंगायें खारिज! और ये तो बुद्धिजीवी स्त्री -देवता, मुक्तिदाता….सुंदरी, पिपासु, ज्ञान-भक्षक, तारणहार, उद्धारक, रहनुमा….आपकी जय…!’

अपने एक्सप्रेशन में सर का भोजपुरी का प्रयोग बड़ा मजेदार रहा। मैंने एजेण्डा होता क्या है, जानने के लिये महेश्वर जी से पूछा.

सनत जैनसर, आखिर साहित्य में एजेण्डा क्या होता है ?
महेश्वर जीऐसा नहीं है कि हमारे यहां की जनता, स्त्री-पुरूषों के लिये किसी एजेण्डे की दरकार नहीं। शहरों को छोड़ दें तो ग्रामीण इलाके आज भी सड़ी परम्परा, जाति, अंधविश्वास का जमघट हैं। आये दिन ऑनर किलिंग, विभिन्न परम्परायें और सदियों से हमारी शिक्षा और विकास पर सवाल करते हैं। स्त्रियां आज भी विधवा होने पर या बच्चा या लड़का पैदा नहीं करने पर दोषी ठहरायी जाती हैं। पंचायतें और गांव इनका अपमान, अमानुषिक व्यवहार और न जाने कैसे-कैसे दमन, प्रताड़नायें समाज में स्त्रियों को झेलनी पड़ रही है। किसानों के आर्थिक हित, मजदूरों के हित, असंगठित क्षेत्र के श्रमिक और निम्न मध्यमवर्गीय जीवन हताश दिखता है। वह जूझ रहा है। आत्महत्यायें हमारे सिस्टम पर सवाल खड़े करती हैं। कहां चूक हुयी या हो रही है -इस पर गहन चिंतन सटीक शोध जरूरी है। ऐसे पिछड़े इलाके में शिक्षा और स्वास्थ्य की हालत भी दयनीय है। भविष्य बगैर सार्थक शिक्षा के और एक सम्मानजनक आर्थिक स्तर प्राप्त किये सारे जीडीपी के आंकड़े व्यर्थ हैं। पलायन करके शहरों, औद्योगिक क्षेत्र की स्लम में परिणिति और आये दिन प्रदूषण व पर्यावरण के सवाल -ये सभी एजेण्डा हैं लिस्ट लम्बी है।
सवाल है कि क्या हमारी सोच, हमारा साहित्य सचमुच इन्हें छू पा रहा है ? और छू रहा है भी तो किस चश्मे से! जाहिर है, हमने अपनी चीजें अपनी आंख से देखी ही नहीं। शेष दुख, गुस्सा इसी बात का है।
मुंशी प्रेमचंद का समस्त लेखन सोद्देश्य है। अर्थात उन्होंने मानवीय गरिमा, भेद-भाव, मानवीय संवेदना और आजादी की हिमायती रचनाओं से भरा उनका आदर्शपूर्ण एजेण्डाबद्ध रहा है। मगर वे गलत नहीं प्रतीत होते। वे भी सोवियत रशियन साहित्य, विशेषकर वॉल्ताक के प्रशंसक व प्रेरित थें। आखिर उनकी अपार लोकप्रियता का कारण क्या था ? मेरे अभिमत से पहला कि वे किस्सागो तो थे ही, उन्होंने अपनी जमीन नहीं छोड़ी। थ्योरी को अपने चरित्र पर हावी नहीं होने दिया। जमीन की सच्चाई सामने प्रस्तुत किया। शायद हम यहीं चूक रहे हैं। एक विचार तो बनता है।
अब चर्चा करते हैं एजेण्डा क्यों और कहां से।
अपनी भूमि के अतिरिक्त यह कहीं से भी हो सकता है। दुनिया का ज्ञान इनके लिये खुला है। खास बात ये कि जब बाहर अपनी जन्मभूमि में ये सिद्धांत और वाद पिट जाते हैं तब हमारे यहां इनका ’प्लांटेशन’ होता है।
क्यों..?
हिन्दी के चंद ज्ञानी ऐसा क्यों करते हैं -क्योंकि ये ऐसे ही हैं। भारतीय ज्ञान तो हममें रच-बस गया है अब बाहर का टेस्ट किया जाये।
-बाहरी माल ओढ़कर आप अतिरिक्त ज्ञानी बन जाते हैं।
-एक पुस्तक आपके व्याख्यान का निश्चित को जाता है। थ्योरी आप समझे, आप गायें, आपके चेले बजायें….देश को ऐसा आर्केस्ट्रा बढ़िया लगता है।
-थ्योरी पर निर्भर सारी कथा-कवितायें आप उठायें। व्याख्यानमाला आपकी। सर्वश्रेष्ठ रचनाएं आपके कण्ठ से निकले -हमार ठुमका ठांयें-ठांयें……!
-किसी सुंदरी को या किसी फसादी -लौंडे को आप रातों-रात साहित्यिक डॉन बना दें। सुंदरी को अंखियों से गोली मारने वाली कातिल कैटरीना…!
-पुरूस्कार आपकी जेब में….
-पुरूस्कार, प्रकाशन व लायब्रेरी संस्करण महा-त्रिसंगम….!
-किसी रचना की ऐसी-ऐसी व्याख्या पान खाकर फिर पीक -थूककर कि मॉडर्न आर्ट भी शरमा जाये। मूल रचना कहां गयी सीबीआई को भी नहीं पता चल पाये….। पूरा हिन्दी पट्टी आंख में पट्टी लपेटकर आपकी धोती साफ करे।
-जगह-जगह, गली-गली आपके नाम के शिलालेख!
एजेण्डा बनाम मौलिकता- हर युग की अपनी समस्या है और युग संदर्भ में रचनारत होना बहुत अच्छी बात है फिर एजेण्डा की आलोचना क्यों ? कारण एजेण्डा / आपकी समस्या को एजेण्डा जैसे लिखना। जैसे हर प्रगतिशील या जनवादी या लोकवादी लेखन, कहानी /कविता के अंत में ’इंकलाब जिन्दाबाद’ करके ही ’द एंड’ करता है। बैनर व पोस्टरनुमा रचना अपना विषय भी एजेण्डा लिस्ट से प्राप्त करता है और उनके साथ वह ’ट्रीटमेंट’ भी वैसा ही करता है। हर विषय चाहे समस्या ग्रस्त हो या समस्यारहित (एजेण्डा या एजेण्डारहित) सभी विषय किसी न कसी बात में मिथ होते हैं। विविधता रचनात्मकता सम्पूर्णता की आवश्यक शर्त है मगर यहां ’जीवन शक्ति’ के विपरित जाकर जबरन एलोपैथिक ट्रीटमेंट दी जाती है। समस्या या बीमारी स्वयं को अभिव्यक्त करती है और स्वयं के ठीक होने का रास्ता भी बांटती है, इन्हें अनदेखा कर आप जीवन शक्ति के सा खिलवाड़ करते हैं। यह तानाशाही है। मेरी सोच मेरा ट्रीटमेंट में ही सच, बाकी असच! इस मूर्खतापूर्ण तानाशाही का अंजाम सबके समक्ष है, पर तारीफ कि हम खुद में मशरूफ हैं। आइने में अपनी सूरत क्रांतिकारी दिखती है -इंकलाब……देखता है जोर कितना बाजू ए कातिल में है….!
समस्या या एजेण्डा को -देखा जाये तो वह भी रचना का विषय ही है -और सामाजिक-ज्वलंत विषय है। अतः यहां यद्यपि इस पर पूरा जोर देने के कारण मानवीय संवेदना के अन्य विषय छूटते अवश्य हैं -इस नुकसान के अतिरिक्त जो ’ट्रीटमेंट’ की तानाशाही रवैया है कि क्या रचना ’उसी तरीके’ से ’टाइप’ से आगे बढ़नी चाहिये -इंकलाब लाने वास्ते! यह तो जीवन की धारा के विरूद्व है। कला विरूद्व है। मानव संवेदना के विरूद्व है। ऊपर के उदाहरणों में देखा कि कैसे हर घर का पति एजेण्डा दोष के कारण एक ’स्त्री विरोधी’ चरित्र में बदल जाता है तो ठीक यही बात स्त्रियों पर लागू करें तो बेचारे पुरूष की नजर से वे सब रचनायें (अधिकांशतः) पुरूष-विरोधी भी हो सकती हैं। संभावना है क्योंकि किसी की आजादी या मुक्ति वास्तव में एक निरपेक्ष घटना/वस्तु/विषय या चीज है। स्त्री मुक्ति या उसी तर्ज पर पुरूष मुक्ति भी- जो आपके तर्क-अनुसार (मर गये बुद्धि पर!) जरूरी है तो कहीं न कहीं आपके करीबी…पुत्र…पुत्री…पत्नी या पति..भाई….बहन….सगे…रिश्ते…..मित्र….समाज….देश….सबको कहीं चोट तो नहीं पहुंचा रहा है! पतंग धागे से बंधकर ही आसमान में उड़ती है, पंक्षी भी आकाश में उड़ते हैं मगर भोजन के लिये, अपनी शरण व जीवन के लिये जमीन से ही जुड़े हैं। सूर्य….चांद…ये ग्रह-उपगह-प्रकृति या दुनिया की कौन सी ऐसी चीज है जो निरपेक्ष रूप से ’मुक्त’ है ? निरपेक्ष सत्य तो मैंने नहीं देखा, भगवान भी होगा तो वो भी कहीं न कहीं अपने भक्तों, अपनी दुनिया से बंधा होगा। निरपेक्षता का अस्तित्व है क्या….? सबकुछ सापेक्षिक है….देश…काल….परंपरा….रीतियां…! बहुत सारी बाते हैं…! वैसे में किसी एलीजाबेथ, किसी शिमोन….किसी टेलर…किसी एंजेलिना की तर्ज पर हमारे यहां की स्त्रियां मुक्त हो पायेंगी? यह सवाल ही बहुत सारे सवाल उठाता है। उत्तर…हम सबको ढूंढ लेना चाहिये। मेरी बातें तो सिर्फ एक छोटा सा आइना है सच का एक मामूली सा अक्स ही आपको दिखेगा। मगर देखनेवालों के ऊपर भी है कि वे सिर्फ बत्तीस दांतों को देखते हैं, जुबान देखते हैं कि वहां असीमित ससांर का नजारा भी देखते हैं!
मौलिकता की जितनी अच्छी व्याख्या प्रकृति स्वयं करती है किसी खोजी के लिये अन्यत्र दुर्लभ है। कोई वृक्ष एक समान नहीं, यहां तक कि एक वृक्ष के पत्ते तक समान नहीं, न ही इसके फल…! न बेली, चमेली जैसा होना चाहता है न गेंदा को गुलाब बनने की होड़ है। अमरूद आम से ईष्या नहीं करता। पपीता, कटहल नहीं बनना चाहता और कटहल करोड़ों रूपये का रिश्वत खाकर भी पपीते जैसा नहीं बनना चाहता। मगर इंसान अपनी खूबियों (स्वयं को पहचानने) के बदले दूसरे की सफलता व खूबियों से जलता-मरता है। वो अपनी वास्तविकता से दूर, दूसरे की मिथक या रियल्टी की ओर भागता है। वाह रे हिन्दी साहित्य के बुद्धिमान बुद्धिजीवी…! चले हैं संसार और स्त्री-मुक्ति का ढोल बजाने!
क्या सुर है….आशिक ए दिल मर न जाऊं!!’

सनत जैन’महेश्वर जी, आपने एकदम सही कहा, प्रकृति की शिक्षा को कोई भी समझना नहीं चाहता है, प्रकृति तो सबको बताती है कि हर कोई अपने आप में श्रेष्ठ है उपयोगी है उसे किसी के जैसा बनने की जरूरत नहीं; पर लोग समझें तब न! पर सर! क्या हर साहित्यकार मौलिक रूप से एजेण्डाबाज ही होता है ?
महेश्वर जी’नहीं…, अकसर लेखक-कलाकार…कवि…गायक स्वतः स्फूर्त हैं। उन्हें हमारे आदि गुरू आरे से रेत-रेतकर एजेण्डाबाज बनाते हैं, जीवन-शक्ति के विपरीत! तुम्हें डाक्टर ही बनना है तुम्हें इंजीनियर…! ठीक उसी तरह तुम इंकलाबी कवि हो…, तुम क्रांतिकारी लेखक….! तुम्हारे लेखन को लाल सलाम….!!’

सनत जैनहा, हा, हा…..क्या बात है सर! आपने तो रेतने वालों को ही रेत दिया। सर एक बात बताइये। आप तो कहानी ही लिखते हैं पर आप किस विधा को समाज में अपना प्रभाव डालने में रामबाण मानते हैं ?
महेश्वर जीनिश्चित रूप से गद्य!
मगर इसका ये अर्थ नहीं कि एक खराब गद्य, एक अच्छी कविता पर भारी है। एक अच्छी पेंटिंग घटिया-छाप इंकलाबी उपन्यास से बेहत्तर हो सकती है। गालिब और कबीर दोहा और शायरी कर जीवन के हर गहरे मोड़ पर टकराते हैं। हमेशा अपनी याद दिलाते हैं -ये जीवन ऐसा है बच्चू! कितने ख्यात उपन्यास ऐसा कर पाते हैं। इंची टेप से माप कर ’रियलिटी शो’ जैसे चलताऊ लेखन कौन याद रखे…। मगर, सच है कि गद्य अधिकांश की पसंद होता है, गद्य अधिक जाता है। सारी दुनिया में। विचार जितना अच्छे से (और घटिया तरीके से भी), रोचकता से गद्य से सम्प्रेषित होते हैं, तर्क और विस्तार से लोगों तक, मतलब लोगों के विचार को कार्निंस करते हैं -उतना अन्य कोई विधा नहीं। कविता, संगीत, चित्र, मूर्ति, वास्तु, नृत्य -कोई भी कलारूप शब्दों की इस ताकत के समक्ष नतमस्तक है। जाहिर है -अगला सवाल हो सकता है -गद्य तो बहुआयामी है -लेख, अभिभाषण, कथा, गल्प, मिथक…सभी इसमें शामिल हैं।’
सनत जैन-जी सर!
महेश्वर जी-विचारप्रधान आलेख व रचनात्मक गद्य विशेषकर गल्प अतुलनीय हैं। कहानी स्वयं में बड़ी ताकतवर चीज है। वह समस्त गद्य को मुक्त करने की (एजेण्डा वाली मुक्ति नहीं) शक्ति रखती है। बच्चों से लेकर बूढ़े तक -आगे क्या होगा….इस गल्प की शक्ति के समक्ष नतमस्तक हैं।’

सनत जैनबेहद सुंदर जानकारी दी आपने सर, कि गद्य तो बहुआयामी है -लेख, अभिभाषण, कथा, गल्प, मिथक…सभी इसमें शामिल हैं। निश्चय ही नयी पीढ़ी को यह जानकारी काम आयेगी। सर, एक बात जानना चाहता हूं कि राजनीति में कहा जाता है कि धर्म और राजनीति को अलग अलग होना चाहिए, क्या धर्म और साहित्य को अलग-अलग किया जा सकता है ? यह प्रश्न हमेशा से मुझे टच करता रहा है।
महेश्वर जीराजनीति, धर्म, दर्शन, साहित्य इनसे न व्यक्ति मुक्त है न समाज! जो चीजें मूलतः अखण्डित हैं वह कैसे खण्डित हो सकती हैं ? कृष्ण युद्ध करते वक्त क्या प्रेमी नहीं रह पाते.., अर्जुन का रथ हांकते वक्त क्या ज्ञानी नहीं रह पाते…शस्त्र न उठाने के प्रण के बावजूद क्या युद्व की रणनीति व शस्त्रों की पहचान खो बैठते हैं…? और क्या पता…सारथी के बगल में उनकी राधा बैठी हो…अर्थात, उनका रोमांस और युद्ध साथ साथ….!
जीवन अभेद है।
अगर आपका वजन अस्सी किलो का हुआ तो उसमें दूध का कितना योगदान.., मलाई का कितना…, भात….दाल…कितना…सब्जियां या फल…दारू-मुर्गा…मच्छी-भात…चटनी-चोखा-अचार….!्
अस्सी के वजन में इन सबका कितना…। और हां, मां का दूध तो छूट ही गया। उसे भी जोड़ लीजिये…।
मनुष्य, विशेषकर आधुनिक सिविक नागरिक एक व्यक्तिनिष्ठ और व्यष्ठिनिष्ठ…., निजी व सार्वजनिक…सब है। एक पुरूष, पिता, पति, नागरिक, ऑफिशियल्स…नॉनऑफिशियल्स…., सामाजिक…निजी राजनीतिक….धार्मिक…,राष्ट्रीय….अंतरराष्ट्रीय कहीं न कहीं हर रूप का प्रतिनिधित्व कर रहा होता है। फिर साहित्य तो इसी मनुष्य का लेखा-जोखा है। धर्म और साहित्य कैसे अलग हो पायेगा…क्या साहित्य में किसी ’खण्डित’ मानव का चित्रण करना है -कि धर्म की बात होगी ही नहीं।
धर्म हो या राजनीति -साहित्य में प्रवेश निषेद्ध जैसा कुछ है ही नहीं -होता ही नहीं -वह हमारी अपनी फितूर है जिसे एजेण्डा कहते हैं। चूंकि धर्म में मूलतः किसी भगवान / गॉड के साथ जुड़ाव होता है अतः यहां ’अछूत’ बना दिया गया है। होना तो ये चाहिये था कि इस पहलू को आगे ले जाकर आध्यात्म से जोड़ते और मानव को प्रबृद्ध करते। देश व काल व परम्परा के संदर्भ में इसकी नवीन व्याख्या प्रस्तुत करते। मगर दुर्भाग्य!

सनत जैनअद्भुत उदाहरण या सर आपने! वास्तव में हम कैसे बता सकते हैं कि अस्सी किलो के वजन में किस चीज का योगदान था। ठीक इसी तरह धर्म को भी एकदम से हटाकर हम सबकुछ सोच नहीं सकते। बड़ी बारीक बात को आपने रेखांकित किया। आप कहानी के मास्टर हैं इसके अलावा आप अपने लिए कौन सी विधा अनुकूल मानते हैं ?
महेश्वर जीवही जो ऊपर प्रशंसा की गयी है। गद्य में कहानी विधा सबसे धांसू….!

सनत जैनजी सर! कहानी में आपने जो अध्ययन किया है और ’बस्तर पाति’ में लगातार अपने अध्ययन का निचोड़ डाला है, वह साहित्य की एक शानदार उपलब्धि है, आपकी एक श्रेष्ट कृति है। सर, आजकल गुटबाजी, भाई-भतीजावाद के दौर में, फलानी पत्रिका में छपना एक विशेष उपलब्धि कही जाती है क्या ऐसा लगता है आपको ?
महेश्वर जीपिछले दस सालों से (लगभग) हिन्दी के साहित्यिक पत्रों से कोई ताल्लुकात नहीं। कुछ अपवाद छोड़कर…।
वैसे रचनाकार को ’रत’ रहना चाहिये। कहीं भी, रति के साथ ’रत’, चाहे रचना के साथ ’रत’! वैसे साहित्य की दुनिया इनके घुटने पर नहीं टिकी है कि इन्हें पढ़ें और वार्षिक सदस्यता लें। हां, मैं व्यक्तिगत तौर पर इनकी ’सोच’ का विरोधी हूं, साहित्य का नहीं। यह भ्रम न रहे…, साहित्य का तो मैं आशिक ठहरा…। अच्छी किताबें….अच्छी रचनायें मिल जायें तो…, तो कहते हैं न कि हबख ले खायें….! सरपट सोयें…!!
वो जमाना नब्बे-अस्सी का दशक गया कि ’फलानी’ पत्रिका में छपे तो रातों-रात लोग आपको जानने-समझने लगते थे।

सनत जैनसच बात है सर, समय तो बदलता ही है। हमें अपना काम करते रहना चाहिये साहित्य की राजनीति से दूर। सर, मैं हमेशा से सोचता रहता हूं कि आप कहानी लिखते हैं और बड़ी कहानी लिखते हैं फिर एक छोटे से एक चित्र में अपनी बड़ी बात कैसे कह पाते हैं ? ये आपकी लाइफ का विरोधाभास समझें ?
महेश्वर जीअप्रत्क्षतः आपने एक चित्र और एक कहानी अर्थात चित्र व कहानी के मध्य समानता-असमानता के बारे में पूछ लिया है। पहली बात तो ये कि यहां कोई ’विरोधाभास’ नहीं है। कतई नहीं। यह अनुपूरकता है। कंपलीमेंटरी-सप्लीमेंटरी! एक-दूसरे के पूरक। मनुष्य होता ही है विविध-आयामी -वह उतना विविध हो सकता है जितना यह ब्रहमाण्ड! या तो हमारे चैतन्य से यह ब्रहमाण्ड निकला है या हम इस ब्रहमाण्ड से! हम अभेद हैं। हम इसका भ्रमण करते लें तो हमारा भ्रमण भी करने को तैयार रहता है। यह गूढ़ है। प्रसंग अवांतर हो जायेगा।
कहानी और चित्र की अपनी विशेषतायें हैं, कुछ तत्व एक-दूसरे में देखे जा सकते हैं, फिर भी जब ये भाषा या भावों की अभिव्यक्ति या विचारों की अभिव्यक्ति का मसला आया होगा -शब्दों को चिन्ह या चित्र ही अभिव्यक्त करते होंगे। ये दोनों उतने ही प्राचीन हैं, सगे हैं। चिन्ह, चित्र कहानी कहते हैं तो कहानी दृश्यों का निर्माण करती है। भाव और विचार दोनों के केन्द्र में हैं। पर कहानी में तो विस्तार दिखता है जो गति, नाटकीयता और भावों की गतिशील अभिव्यक्ति की जितनी गुंजाइश है वह चित्र में नहीं। प्रभाव में कहानी ज्यादा गहरी हो सकती है। इसके फलक विस्तृत होते हैं। चित्र यहां सीमित प्रभावी हैं, हां, चित्र आपकी शीघ्र ट्रैस कर सकते हैं, वैसे कहानी जब तक आप अच्छे मूड में पढ़े नहीं, आत्मसात न हो, तब तक कहानी के प्रभाव से आप वंचित हैं। कहानी का चरित्र आजीवन आपमें समा सकता है चित्र जितना शीघ्र दिल में उतरते हैं उतना ही जल्दी बाहर भी होते हैं। फिलहाल, कहानी हो या चित्र भाव ही हैं जो आपके साथ होता है। विचार चाहे जैसा हो, कहानी या चित्र में कितना भी झटकेदार…जल्दी पुराना या बासी हो जाता है। भाव तो समस्त ब्रहमाण्ड का सार है। भाव सही हों तो बिना पूजा-अगरबत्ती के आपकी बात सातवें तल तक पहुंच जाती है। भावहीन विचार अशिष्ट रूप से, बिना चड्डी-बनियान वाला, लगभग कुरूप सा (यथार्थ के नाम पर) एक्सप्रेशन है। यह ड्राई होता है। मुरझाया हुआ सौन्दर्य कह सकते हैं।
विधाओं की विविधता ज्यादा महत्वपूर्ण नहीं है भात बनाने वाला खिचड़ी और बिरयानी सब बना सकता लेता है।
न चित्रकार अपने मुलायम हाथों से चित्र बनाता है न कहानीकार अपनी सख्त उंगलियों से कहानी लिखता है। हाथ का चलना तो पता नहीं चलता, चलता है मनुष्य का चैतन्य बोध! यह मेडिटेशन की अवस्था है। आप कितना सच के करीब हो पाते हैं। सब्जेक्ट और ऑब्जेक्ट अर्थात ज्ञाता और ज्ञेय के बीच जब दूरी समाप्त हो जाये -निश्चित मानिये तब कालजयी रचना अभिव्यक्त होगी।

सनत जैनसर, आपकी बातें सुनकर तो यूं लगता है मानो आपको सुनते ही रहो, अपनी बातों और ज्ञान से आप मोहित कर लेते हैं। सर, लोग आजकल कमाने के लिए लिखते हैं। क्या हमारे देश की सांस्कृतिक विरासत इसकी इजाजत देती है ? वैसे भी पैसों के लिए लिखने वाला पैसों के लिए तो जैसी मांग होगी वैसा ही लिख देगा, ऐसे में क्या उसे साहित्यकार का तमगा दिया जा सकता है ? जैसे कि एक डाक्टर तो डाक्टर ही होगा, एक कंपाउंडर, डाक्टर कैसे बन जायेगा ?
महेश्वर जीहम किस युग में रहे हैं! यह पैसा और खर्चा युग है। वह जमाना और था जब हमारे साधु, ऋषि, शिक्षक और कलाकार-भाट सभी एक मुट्ठी चावल और राजा-महाराजाओं के दान-पुण्य पर आश्रित थे। जरूरतें हमारी प्रकृति पूर्ण करती थी। एक सामंजस्य था जीवन में, प्रकृति और मानव-पशु सह-आश्रित थे। आज ? आज यह सम्पूर्ण ताना-बाना असंतुलित है। लिखनेवाला, पेंटर और गायक या भजन-कीर्तन करनेवाला अर्थ की प्राप्ति क्यों न करे ? क्या उसकी जरूरतें हमारा समाज पूरा कर देगा ? डॉक्टर बगैर फीस और महंगी दवाइयों के इलाज कर देगा ?
हां, आपका जो सवाल के पीछे मूल भाव है कि लेखन यदि अपसंस्कृति फैला रहा हो चाहे शिष्ट की जगह अशिष्ट परोसकर धनार्जन कर रहा हो -वह तो वैसे भी गैर-कानूनी है। गलत है। एक साहित्यकार अपनी और सिर्फ अपनी शर्तों पर लिखेगा। फिर उसमें और भांड में क्या फर्क ! नाचना-बजाना ही है तो रसिया अमेरिका के प्रांगण क्या बुरे हैं!
रही बात सांस्कृतिक विरासत की -तो संस्कृति या परम्परा क्या स्थायी चीज हैं ? नहीं ! वह भी समय-सापेक्ष हैं। संस्कृति को स्थायी -फिक्स एजेण्डा नहीं कि अपने युग और कारण को परिवर्तित ही नहीं होना है। गलत, असत्य हर युग, हर काल में त्याज्य हैं! सत्य सदैव आदरणीय है। रामायणकाल की संस्कृति महाभारत काल से अवश्य भिन्न है। अंतर साफ है। फिर आज लेखक, कलाकार, नर्तक, संगीतज्ञ जिन्हें हमारी परम्परा ने आदरपाग तो कराया मगर पान नहीं खिलाया। अब तो बगैर कत्था-चूना के कहां गुजारा। सुपारी भी चाहिये। (विचारों के कत्लेआम हेतु…!)

सनत जैनक्या पते की बात कही आपने सर, कि संस्कृति और परम्परा समय के साथ बदलने वाली चीजें हैं। पर सर, पैसों के लिए लिखने वाला क्या अपनी मौलिक भावनाओं और समाज के दर्द को अपने लेखन में दर्शा सकता है ? क्या उसकी कलम को इतनी छूट होगी ? उसके विचारों में ऐसा फैलाव हो सकता है ?
महेश्वर जीभांड तो भांडपन ही करेगा। वह सिर्फ किसी गैर के आंगन में नाच-बजा सकता है।

सनत जैनवॉव! आपने तो सीधा बम ही फोड़ दिया सर! एक विसंगति और है हमारे बीच की कि हमारे देश की वर्तमान में एक परम्परा सी नजर आती है कि हम विदेशी को अपना बाप मान लेते हैं और देशी को नौकर भी मानने को तैयार नहीं हैं चाहे कला, साहित्य या चिंतन कोई भी क्षेत्र हो। क्या वास्तव में हमारे देश में कोई भी उत्कृष्ठ व्यक्ति नहीं था या नहीं है ?
महेश्वर जीमहत्वपूर्ण सवाल है। ऊपर इस आशय के अंतरनिहित प्रश्न हैं और उत्तर भी। पुनः कहना चाहूंगा कि आजादी के बाद या कहें पुनर्जागरण के बाद भारतीय आवाम जिन महत्वपूर्ण विचारों से प्रेरित रही उनमें एक तरफ ’वेदों की ओर लौटो’ – (आर्य समाज), ’सांस्कृतिक उत्थान’ -श्री रविन्द्रनाथ टैगोर व सर अरविन्दो, एनी बिसेंट इत्यादि, राष्ट्रवाद और समानता, स्वतंत्रता बंधुत्व -फ्रांसीसी क्रांति का प्र्रभाव और सबसे महत्वपूर्ण मार्क्सवादी क्रांति, जिसने सर्वहारा को मुक्त करने का सराहनीय कार्य किया! इस पर विस्तृत विचार हमने ’बस्तर पाति’ के किसी अंक में देखा है। इत्तेफाक रखता हूं। समाजवादी-मार्क्सवादी प्रगतिशील विचार (जिसे भारत -देशी मार्क्सवादियों ने इसे ’तथाकथित’ एजेण्डाब्रांड विचार-प्रणाली का गटर बना दिया।) ने वैसे तो पूरी दुनिया को कहीं न कहीं से झिंझोड़ कर रख दिया। व्यवहारिक तौर पर पूरे विश्व, भारत सहित कई-कई निशानियां इस सिद्धांत ने दिये। वहीं कुछ भयंकर चूक हुयी -जैसे गांधी जी के सहज मानवीय संवदेनात्मक विचारों से हमारी दूरी। गांधी के विचार, हमारे देश में रूपये पर फोटो और खादी तक सीमित रहा। उनके विचारों को विचार माना ही नहीं गया। मजा कि उनके प्रिय चहेते नेहरू जी तो सोवियत मॉडल के आशिक थे -जीवन भर गांधीयन मूल्य को वे समझ ही नहीं पाये। इन तमाम प्रभावों, धाराओं के बीच हम अपनी अथाह परम्परा, सांस्कृतिक विरासत से हाथ धो बैठे। भाषा, संस्कृति, राजनीति, अर्थनीति, समाजनीति……।
हर कहीं अपने से पृथक और जुड़ाव….?
जुड़ाव किसी से नहीं! मानसिक गुलामी गयी ही नहीं। बरक्स गुरू रविन्द्र और सर अरबिन्दो सही प्रतीत होते हैं। राजनीतिक मुक्ति अधूरी है। सांस्कृतिक, आत्मिक मुक्ति वास्तविक और जरूरी…!
कुल मिलाकर भारत एक मुर्दों का देश बनकर रह गया। जब हमारी ’इडेंटिटी’ अंग्रेजी, अंग्रेजियत, अमेरिकीकरण ही रह गई है तो भारतीय तो मृत हो गये ना! बनारस के घाट पर विसर्जित! गंगा जी ने पवित्र घाट कर इन्हें मुक्ति दी -यहां भारतीयता बची रही। इन्हें मृत्यु के वक्त भारतीय विधि-विधान दिखे, मगर जीवन गिरवी रख दिया गया!
ना हम गांधी हो पाये- मशीन और आवाम में संतुलन खोजकर प्रकृति व पुरूष को सम्पन्न बनाने की मितव्ययी कला -दर्शन….जिसे हम समझ ही नहीं पाये। उसी तरह ना हम ठीक से विवेकानंद से प्रेरित हो एक सही आध्यात्मिक समाज बना पाये…गुरू रविन्द्र जैसा ना ही एक सांस्कृतिक मानुष….!
तो क्या हम ठीक से मार्क्सवादी- समाजवादी बन पाये ?
या फिर…, यूरोपीय, अमेरीकन तर्ज पर पूंजी भकोसन ही बन पाये….खाओ….उड़ाओ….कर्ज लेकर घी पीयो…खबरदार! कोई भूखा ना रहे..!
व्यक्ति जब अपने ’स्व’ से कट जाता है, उसकी मौलिकता गिरवी रख दी जाती है…उसके नीचे की जमीन खिसक जाती है, वह ना जमीन पर टिका होता है ना ठीक से आसमान पर उड़ रहा होता है। वही कटी पतंग की भांति हवा के झोंके उसे जहां ले जायें। मार्क्स के झोंके ने पतंग उड़ाया…. तो कभी कुछ …तो….कभी सनातन हवाएं तो कभी लोकल बयार…! बस ….बिना दिशा….बिना दशा के …फिर भी भारतीय जीवन महान है। कुछ तो है इस मिट्टी में!
आपने पूछा है क्या वास्तव में हमारे देश में कोई उत्कृष्ठ व्यक्ति नहीं है ?
उत्तर ऊपर साफ-साफ है।
हमारे पास वैदिक साम्यवाद है…
हमारे पास ब्रह्म का मध्यम-मार्ग है….
शंकर का सम भाव है….
गांधी का प्रकृतवाद है….
नेहरू की दृष्टि है….यहां प्रगतिशीलता के मायने हैं….लोहिया…..जयप्रकाश….अनेक सामाजिक राजनीतिक चिंतक हैं।
पर, सवाल है…हम हैं क्या….!
कहां जीते हैं…!
और इस भीड़ भरी आवाम…..? वह भी इन सीमित प्रगतिवादियों के विरोध में -जैसा कि ये हर कला-साहित्य क्षेत्र में कोल्हू के बैल की तरह एक निश्चित गोले में तेल पेरते रहे हैं…उसके एंटी आप राष्ट्रीय आंदोलनकारियों ने बस एक पारालेल कोल्हू का बैल पेलना शुरू कर दिया है। उत्तर का यही प्रति उत्तर है! सवाल का यही जवाब होता है ? जो गलती उन्होंने की क्या उसे ’करेक्ट’ करने की बजाये एक समान्तर गोला खींचकर रख दिया जाये! यह तो प्रतिक्रिया है। इससे हम जितनी जल्दी निजात पायें उतना बेहत्तर। राजनीति तो आवाम को खण्डित करेगी ही। यह तो उसका काम है, मगर आवाम को खासकर बुद्धिमानों को इस ’गोले’ से निकलने की नहीं सूझी ? आज के संदर्भ में आज की समस्या…आज की हमारी माटी और पानी को देखते हुये नीतियां और समझ क्यों नहीं बनी ? विदेशी विचार प्रेरित हों कार्बन कापी या फोटो कापी मशीन न हों…!
कोरोना ने हमें सीखा दिया कि हम वास्तव में एक ’ग्लोबल सिटीजन’ हैं।
सनत जैनये बात तो सोलह आने सच है कि अपनी मिट्टी से उखड़ा हुआ पेड़ कभी बढ़ नहीं सकता। परन्तु इस बात को तथाकथित बुद्धिजीवी क्यों समझना नहीं चाहते ? पर सर इस प्रश्न का उत्तर आपसे कल दलपत सागर के आइलैण्ड में जानना चाहेंगे।