तेरे आंचल सी नहीं
या तो गृहलक्ष्मी कहा, या फिर पग की धूल।
इन दोनो ही बातों में, मरदों ने की भूल।
जिस नारी के सामने, झुके कभी यमराज,
हर पल नर के सामने झुकती है वह आज।
कभी अहिल्या का रूप धर बन बैठी पाषाण
कभी जानकी बन किया, अग्नि का आहवान।
छांव बनी चलती रही, सहती रही अभाव,
नारी तेरे भाग में कब होगा बदलाव।
मैंने ढूंढा हर कहीं हर बस्ती हर गांव
तेरे आंचल सी कहीं मुझको मिली न छांव।
बहू भटकती धूप में झुलसा नहीं शरीर
सास ननद के बोल ने दिया कलेजा चीर।
महिलाओं की जिन्दगी, समझौते का नाम,
हर रिश्ते में कर रही, काम, काम बस काम।
मां तेरे आंचल सी नहीं, दुनिया में विश्राम।।
रोशन रहे आशियां
धुल गई है मेंहदी, छाले उकेर कर
सख्त हो गई हथेलियां, उम्र के साथ।
उम्र के साथ पांवों की बिवाईयां
गहरा गई है।
आंगन चौका बुहारते-बुहारते
लहराते केशों की स्याह सघनता
चांदी सी हो गई है।
धुआं-धुंआ हुई उसकी,
आंखों की रोशनी।
मंद पड़ गई इस प्रयास में
कि रोशन रहे आशियां
उसके जाने के बाद भी।
उसके जाने के बाद भी।।
श्रीमती सरिता पाण्डेय
श्री जी.पी.पाण्डेय
अभिषेक सर्जिकल एंड डेन्टस्, अनुपमा रोड, जगदलपुर