जीने को जी रहे हैं
कहीं खुशियों की बारात है
कहीं अश्कों की बरसात है।
कहीं देर कहीं अंधेर है
कहीं दिन में ही रात है।
भूल के इंसानियत को-
पूछते इंसान की जात है।
देखने में जो भोली सूरतें हैं
वे भी अब करती घात है।
झूठ हो गया इतना जमा
सच को द्वार पे ही मात है।
जीने को जी रहे हैं सभी
पहले सी कहां वो बात है।
नहीं अब अधरों पे हंसी
फिकी लगती हर बात है।
इतनी समझ रखके भी
इंसां करते क्यों घात है।
बात-बात पे अब ‘अलवरी’
चलते हाथ और लात है।
कितनी हसरतों से
हमसे हमारे न कभी तोड़े उसूल गये
चले हम दरो-रसन पे झूल-झूल गये।
कभी सदमे औ’ कभी जख़्म मिले हैं इतने
रहते हैं खोये-खोये, हंसना तक भूल गये।
लगता है डर अब खुद के साये से भी
यह कैसे खौफ में आज हम ढूल गये।
दिल औ’ जां सब कुर्बान किये थे जिनमें हम
वे भी भूल अहसां लेने इम्तिहां तुल गये।
कल तक वे गूंगे थे जीने का सलिका न था
आज बैठे दौलत आई, तो मुंह खुल गये।
कितनी हसरतों से सजाई थी यह माला
राह तकते थकी आंखें, मुरझा फूल गये।
देखो कैसा सिला देकर गये हैं मेरी वफा का
करके रूसवाई, गिरा चाहत पे धूल गये।
यह दर्द और यह तड़प किसे बतायें
हमे हमारे भी होकर, बेरहम भूल गये।
की हकीकत से वाकिफ़ कराने ‘अलवरी’
निकाली कलम़ तो वे राज सब खुल गये।
डॉ.जयसिंह अलवरी
सम्पादक-साहित्य सरोवर
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